अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

महान आश्चर्य क्या है?

यह बात शायद तब की है, जब लता की उम्र ४५-५० के आसपास रही होगी। उस समय मित्र व परिवार के लोग अचानक चले आते थे। आज की तरह आने वाले, बहुत पहले से दिन व समय निर्धारित नहीं करते थे। तभी उन्हें अतिथि कहा जाता था। ऐसे ही एक दिन चार-पाँच मित्र परिवार लता के घर बैठकी कर रहे थे। सभी पढ़े-लिखे विद्वान थे। परिवार के कुशल-क्षेम से शुरू हुई बातें, पिक्चर, गाने, राजनीति के गलियारे घूम कर संसार के महान आश्चर्य क्या हैं? पर आ कर टिक गईं। पीसा की झुकती मीनार से गिनती, इजिप्ट के पिरामिड, होते हुए . . . ताजमहल तक चली गई। एक सहेली ने कहा, "लता तुम सब चुपचाप सुन रही हो। क्या तुम्हें यह आश्चर्य नहीं लगते?" 

लता कुछ देर मौन रही, फिर बोली, "नहीं।"

सबको बड़ा अचरज हुआ! सबने लगभग एक साथ कहा, "भला क्यों? हम भी आपके विचार सुनें?"

"जाने भी दीजिये, मेरे विचार आश्चर्य की इस परिभाषा से मेल नहीं खाते,” लता ने कहा। 

अब तो सब लता से विचार बताने के लिये आग्रह करने लगे। तब लता ने झिझकते हुए कहा कि उसके विचार से यह तथाकथित आश्चर्य, मानव की योग्यता, कला तथा तकनीकी के उत्तरोत्तर विकास के सोपान हैं। जो निस्संदेह एक से बढ़ कर एक हैं। ऐसे तो बनारस के मणिकर्णिका घाट पर एक रत्नेशवर महादेव का मंदिर है, जो गंगा के जल में है। जब से बना है टेढ़ा है। प्रतिवर्ष गंगा के बढ़ते जल में डूब जाता है। पर अभी भी स्थिर खड़ा है। आश्चर्य से आँखें गोल करते हुए सुगंधा ने पूछा कि तब आश्चर्य कौन-कौन से हैं? 

लता ने शांत भाव से कहा कि उसे तो मानव संरचना ही आश्चर्यजनक लगती है। सिर, ललाट, दो कटोरे से गड्ढे– नेत्र, बीच में नासिका, नाक के दो छेद, खूँटे से दो कान, नाक के नीचे मुँह, उसमें लपलपाती जीभ, एक पतली सी गर्दन पर टिकी कितनी हास्यास्पद लगती है। जैसे किसी बाँस पर हंडिया लटका दी हो। सब खिलखिला कर हँस पड़े। लता ने कहा, "सच में खेत में खड़ा कोई बिजुखा ही है यह। पर उसके गुण- रूप, रस, गंध, स्पर्श, ध्वनि, उसे आश्चर्य प्रदान कर देते हैं। बिजुखा बेजान है। मानव में जीवन है। मेरे विचार से जहाँ तक मैंने पढ़ा है आश्चर्य जीवंत होता है, बेजान नहीं," उसने ज़ोर देकर कहा। अपनी बात स्पष्ट करने के लिये उसने कहा कि जन्मान्ध को सुंदर बड़े नयनों के रहने पर भी कोई भी ज्योति नहीं प्रदान कर सकता। इक्कसवीं सदी में विशेष प्रकार की बीमारी में कोर्निया ट्रांसप्लांट होने लगा है, पर जेनेटिक/आनुवांशिक रूप से अंधत्व को वह भी अभी दूर नहीं कर सका है, जन्म से मूक-बधिर को सुनने, बोलने के ताक़त कोई नहीं दे सका है। यह बात दीगर है कि मानव ने कुछ यन्त्रों का विकास कर उनका जीवन सरल बनाया है। इसी तरह स्वाद, रसानुभूति, चखना आदि भी हैं। स्पर्श का जन्मजात अनुभव नहीं होने पर जीवन कितना दुस्सह हो जाता है। अगर किसी को गर्म, ठंडा, तरल आदि का आभास न हो तो वह न तो चल पायेगा, न कुछ कर पायेगा। हाथ-पैर या तो गर्मी में झुलस जायेंगे अथवा ठंड में जम जायेंगे। तब उसके लिये जीवन में कितनी कठिनाई होगी। ये सब नैसर्गिक गुण मुफ़्त मिलते हैं, परन्तु इन्हें अपार सम्पदा देकर भी ख़रीदा नहीं जा सकता। तकनीकी ने उपकरण बना कर काम तो चलाया है पर गुण का अभाव फिर भी वैसा रहेगा ही है। पाँच तत्वों, जिनसे जगत बना है, कैसे बना है, अपने में अद्वितीय है अद्भुत है। 

मुझे आश्चर्य लगता है शव को देख कर कि पूरे अंग व शरीर वैसा ही है, पर अभी है, और अभी था, हो गया। क्या था जो नहीं रहा। है और था कहने से भी कम समय में सब कैसे घट जाता है? श्रीमद्भगवद् गीता के द्वितीय अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि शरीर से निकल जाने वाला तत्व आत्मा है। जिसे कोई आश्चर्य से देखता है, तो कोई तत्व रूप में। कोई आश्चर्य से इसे सुनता है, कोई देख, सुनकर भी इसे नहीं जान पाता।
 
मुझे आश्चर्य होता है कि जब नासा-सी प्रयोगशाला, दूरबीन, नाप-जोख करने के यन्त्र नहीं थे, तब कैसे जंगलों, आरण्यकों में रहने वाले ऋषियों ने कैसे भौगोलिक स्थिति को जाना। उन्होंने सात द्वीपों का उल्लेख किया है, आज भी द्वीप सात ही हैं। 

मुझे आश्चर्य होता है उनके बनाये समय के गणना तन्त्र को पढ़ते हुए जो इतना सटीक कैसे है: 

■ क्रति = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुति = 1 लव, 
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल, 
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ), 
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार), 
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह, 
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष, 
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी, 
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग, 
■ 3 युग = 1 त्रैता युग, 
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 76 महायुग = मनवन्तर, 
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महाकाल = 730 कल्प।(ब्रह्मा का अन्त और जन्म )

यही नहीं एक मास में दो पक्ष: कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष।

दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन। यही नहीं तीन स्थिति द्रव्य, ठोस, वायु /गैस। 

आकाश में चमकने वाले नक्षत्रों की सही सही स्थिति। सप्त ऋषि मंडल, ध्रुव तारे का स्थिर होना, अश्वनी माह में अगस्ति तारे का चमकना आदि . . . 

उद्वेग में लता का गला भर आया, आँखें गीली हो गईं। तभी मृदुला ने पानी लाकर उसे पीने का आग्रह किया। लता ने पानी पीकर गहरी साँस ली। कुछ संयत होकर बोली, "मेरे लिये यह सब महान आश्चर्य हैं। कैसे नन्हा सा बीज पेड़ के सारे गुणों से परिपूर्ण रहता है। ज़रा सी मिट्टी धूप पानी मिलते ही अंकुरित हो जाता है। 

"कैसे उन्होंने जल को दो गुणों का योग कहा? आक्सीजन व हाइड्रोजन के योग से पानी बनता है यह कैसे जाना होगा। हवा/आक्सीजन पानी, जो प्रकृति ने मुफ़्त दिया है, ख़रीदना पड़े तो बिक जायेंगे पर जीवन भर के लिये ख़रीद न सकेंगे। वेदों में हवा सात प्रकार की बताई है। उनके नाम भी अलग-अलग हैं। उनके गुण और व्यवहार भी अलग हैं। उनके अनुसार जल, अंतरिक्ष, पाताल में अलग-अलग प्रकार की हवा होती है। उसका वर्गीकरण— १-प्रवह,२-आवक, ३- उद्वह, ४- संवह, ५- विवह, ६- परिवह, ७- परावह बताया है। इनके स्थान और संचरण के बारे में भी विस्तार से उल्लेख किया है। हवा ऊपर की तरफ़ हल्की होती जाती है। हम सब जानते हैं, फिर हवा का दबाव नहीं महसूस होता। गर्म, ठंडी, समान वायु तो सब ने महसूस की है। ऋषियों ने जाने किन यन्त्रों के उपयोग से यह सब पता किया होगा? डच दार्शनिक स्पिनोज़ा ने कहा था कि "ईश्वर है या नहीं यह मत सोचो, ईश्वर प्रदत्त चीज़ों को अनुभव करो। धर्म पुस्तकों में नहीं सूर्योदय, पृथ्वी, प्रकृति, सृजनात्मक शक्ति, तथा आपका जीवित होना ही सबसे बड़ा आश्चर्य है। और कौन सा अजूबा देखना चाहते हो?“ ("What do you need more miracles for? So many explanations? The only thing for sure is that you are here,that you are alive,that this world is full of wonders.”) Spinoza."

लता की नज़र अचानक घड़ी पर गई, उस ने देखा कि समय बहुत हो गया था, सब अपने-अपने घर जाने के लिये अधीर हो रहे थे। उसने अपनी वाणी को विराम देते हुए, बहुत शर्माते हुए सबसे क्षमा माँगी। 

"ओह!" उसने घड़ी की ओर देखा ही नहीं था। "आप सबको बहुत देर करा दी।" 

सबने इतनी अच्छी ज्ञानवर्द्धक चर्चा के लिये उसका आभार व्यक्त किया और फिर सब ने अपने अपने घर की ओर प्रस्थान किया।

लता उनके जाने के बाद भी कुछ देर तक अपने विचारों में खोई रही। उसे याद आया अपना बच्चा जो दो-तीन माह का होते-होते, लेटे ही लेटे सारे योग के आसन करता रहता था? जाने उसे गर्भ में ही यह शिक्षा किसने दी? जब वह पहली बार खड़ा हुआ, पहला क़दम भरा कितना गौरव मिश्रित आश्चर्य हुआ था।

जब उसने पहली बार माँ, बा, बुआ कहा था, कितना सुखकर विस्मय था। उस परम पिता का बहुत-बहुत धन्यवाद किया था कि उसकी पाँचों इन्द्रिय ठीक हैं। कितना बड़ा वरदान तथा विस्मयादिबोधक था वह सब। पति ने कहा कि सब दोस्त मित्र चले गये तुम लगता है अभी भी विस्मय सागर में गोते लगा रही हो। तब उसे होश आया कि सच में वह तो आश्चर्य की दुनिया में विचरण करने लगी थी। आश्चर्यों से निकल कर जब यथार्थ में आई तो बिटिया खाने की थाली सजाये खाना खाने का आग्रह कर रही थी। कैसा मनोरम था विस्मय का वह संसार !

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

Dr Padmavathi 2021/11/06 08:37 AM

बहुत सुंदर । सचमुच महान आश्चर्य ही तो है बालक हमारे सामने जन्म लेता है, पल पल बढ़ता है, मानसिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं, रूप बदलता है, क़द बढ़ता है, और एक दिन वह नन्हा सा मुन्ना आदमी बन जाता है ! क्या कभी वह चेहरा अपरिचित लगता है? है न महान आश्चर्य!

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

कविता

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

यात्रा वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं