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समान नागरिक संहिता (ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में)

 

प्रति पाँच साला चुनाव के बरसाती मौसम में कुछ मुद्दे कुकुरमुत्ते से उग जाते हैं। घिसे-पिटे नारे नये रूप में जनता को लुभाने के लिये स्वाँग रचते हैं। ऐसे मुद्दों में एक मुद्दा है समान नागरिक संहिता, जो बरसाती मेंढक सा टर्राने लगता है। जैसे तुलसीदास जी ने लिखा है:

दादुर धुनि चहुँ दिसा सुहाई 

♦     ♦    ♦

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभहिं कर मिला समाजा॥

♦     ♦    ♦

दो०। हरित भूमि तृन संकुल समझि परहिं नहीं पंथ।
जिमि पाखंड बाद ते गुप्त होहिं सदग्रंथ॥

आगे लिखते हैं वर्षा ऋतु के बाद क्या स्थिति होती है (इलैक्शन के बाद);

दो० कबहुं प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।
जिमि कपूत के उपजे कुल सद्धर्म नसाहिं।

दो० कबहुं दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँ प्रकट पतंग।
बिनसई उपजइ ज्ञान जिमि पाइ कुसंग सुसंग॥(१५) किष्किन्धा कांड

भारत के संविधान में समान नागरिक संहिता एक महत्त्वपूर्ण है। भारत के विभाजन के बाद जब २६ जनवरी १९५० में स्वतंत्र भारत का संविधान लागू किया गया, तब से जब-जब समान नागरिक संहिता लागू करने की बात हुई तब तब देश में तर्क, कुतर्क तथा वितर्क का ऐसा तूफ़ान आया कि समान नागरिक संहिता भूमिसात हो गई। समान नागरिक संहिता में सबसे विचारणीय शब्द नागरिक है। प्रश्न यह है कि क्या भारत के निवासी एक राष्ट्र के नागरिक हैं? या ख़ुद को भारतीय मानते हैं? स्वतंत्रता के ५० वर्ष बीतने पर भी भारत के नागरिक अपना परिचय भारतीय कहने के स्थान पर हिन्दू, मुस्लिम, व पारसी, सिक्ख, ईसाई आदि धर्मों से देते हैं। उन्हें ख़ुद को भारतीय कहलाने में, हिंदुस्तानी बोलने में झिझक होती है। परिचय का यह सामान्य सा ढंग सहज ही इस बात का बोध करा देता है कि भारत के नागरिकों के लिये उनका धर्म या भाषा, राष्ट्र से अधिक महत्त्व रखती है। उनका अस्तित्व धर्म से है न कि राष्ट्र से! उन्हें हिन्दुस्तानी कहलाने में शर्म आती है। परन्तु अपना परिचय धर्म, भाषा, क्षेत्रीयता तथा जाति से देने में गर्व का अनुभव करते हैं। भारत देश जो अपने नागरिकों का पोषण करता है, शिक्षा का प्रबंध करता है, उसके नागरिक स्वयं अपने को उसके नाम से पृथक करने के लिये धर्म, भाषा आदि का सहारा लेते हैं। कितनी बड़ी विडंबना है। ऐसी स्थिति में जब देश के नागरिक पृथक अस्मिता को राष्ट्रीयता से अधिक महत्त्व देते हों, ख़ुद को वहाँ का नागरिक कहने समझने से कतराते हों, तब उनको समान नागरिक संहिता में बाँधना टेढ़ी खीर सा है।

समान नागरिक संहिता पर गंभीरता से विचारने की आवश्यकता है। भारत के विभिन्न धार्मिक समुदायों के लोग जब भारत के बाहर, अपने संप्रदायों के देश में जाते हैं तो अपना परिचय बड़े गर्व से धार्मिक सम्प्रदाय के आधार पर (मुसलमान, ईसाई, सिक्ख, जैन, बौद्ध) आदि देते हैं, इस परिचय से वो वहाँ के धार्मिक समुदाय के सागर में बूँद की तरह समा कर अस्तित्वहीन हो जाते हैं। जैसे अगर भारत का कोई शिया मुसलमान ईरान जाकर ख़ुद को शिया मुसलमान कहता है तो वह वृहत शिया संप्रदाय का अंग बनकर रह जाता है, जो संसार के विभिन्न भागों में फैले हैं। इसी तरह अगर भारत का कैथोलिक धर्म को मानने वाला नागरिक यूरोप में जाकर ख़ुद को ईसाई कहता है तो वो विशाल कैथोलिक संसार सागर में समा जाता है। उनका पृथक अस्तित्व व पहचान जिसके लिये वह अपनी जननी जन्म भूमि में बवाल मचाते हैं, समाप्त हो जाता है। तब उनको कोई शिकायत नहीं होती और न इसके लिये दंगा फ़साद करते हैं। भारत का नागरिक होने पर यहाँ का संविधान उन्हें धार्मिक स्वतंत्रता का विशेष अधिकार अनुच्छेद २५, २६, २७, २८ में तथा सम्पत्ति का अधिकार अनुच्छेद ३१-३२ ख तथा कर न देने की स्वतंत्रता, संस्कृति व शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद २९-३० में एवं धर्म प्रचार का विशेषाधिकार देता है। यह विशेषाधिकार वृहत मूल धर्म व सम्प्रदाय का अंग बनने पर दूसरे देशों में समाप्त हो जाता है। तब उनकी पहचान उनकी नागरिकता ही होती है, जैसे भारतीय ईसाई, हिन्दुस्तानी मुसलमान आदि। देश में रह कर जिसका नागरिक कहलाने में इतना अपमान महसूस करते हैं विदेश में जाकर वही उनकी पहचान बन जाती है। कितना आश्चर्य है कि भारत में रहने पर वह अपनी पहचान अस्मिता व सम्प्रदाय की अक्षुणता के लिये कितना उपद्रव व ख़ून ख़राबा करते हैं। इसी के लिये धार्मिक सम्प्रदाय राष्ट्रीय प्रवाह की सलिल धारा में अनगिनत रोड़े लगाते हैं। कभी देश की सम्पत्ति, जानमाल को मिनटों में स्वाह कर देते हैं, देश की शान्ति भंग कर अराजकता व असुरक्षा का वातावरण पैदा कर देते हैं। सरकार राष्ट्रीय काम-काज छोड़ कर शान्ति बहाल करवाने में व्यस्त हो जाती है। देश में आपत्ति काल की सी स्थिति पैदा कर दी जाती है।

विदेशों में भारत के नागरिकों के द्वारा दिए जाने वाले इस परिचय से विदेशी बहुत विस्मित होते हैं। उनके इस आत्मपरिचय देने के बद वहाँ के लोग उन्हें भारतीय मुसलमान या भारतीय ईसाई ही कहते हैं। जिससे उन्हें बहुत ग्लानि होती और एक हीनता का बोध होता रहता है। यह तथ्य विदेशियों की समझ से परे है कि भारत का नागरिक ख़ुद को भारतीय न कह कर ईसाई, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध आदि क्यों कहता है? जब उन्हें यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि ऐसा वो मुसलमान, ईसाई . . . होने के कारण करते हैं तो उनका तर्क होता है कि यूरोप के बहुत से देशों में प्रजा ईसाई (कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट . . .), मध्य एशिया में मुसलमानों के बहुत से सम्प्रदाय बसते हैं पर वह अपना परिचय अपने देश के आधार पर देते हैं जैसे, इराकी, ईरानी, तुर्की, सउदी, जर्मन आदि। यहाँ भारत से अलग हुए बंगलादेश व पाकिस्तान के लोग ख़ुद को पाकिस्तानी व बांग्लादेशी कहते हैं, जबकी इन देशों में भी शिया-सुन्नी, पख़्तूनी, सिंधी, अफ़गानी आदि बसते हैं। फिर वह सब अपने देश की राष्ट्रीयता से बँधे हैं। वहाँ के सिविल नियम सबके लिये समान हैं। विचारणीय प्रश्न यह है कि भारत में रहने वाले धर्म व सम्प्रदाय के व्यक्तियों को भारतीय नागरिक कहलाने से परहेज़ क्यों? इसका क्या कारण है विचारणीय प्रश्न है? जब तक अन्य देशों की तरह भारत के निवासी एक ही समान नागरिक क़ानूनों में नहीं बँधते तब तक किसी प्रकार की समानता एक दिवा स्वप्न ही है। यह ध्यान देने की बात है कि सल्तनत के सुल्तानों व मुग़ल बादशाहों ने पूरे देश में एक ही क़ानून लागू किया था। हिंदू-मुस्लिम के लिये अलग अलग क़ानून या न्याय व्यवस्था न थी। हिन्दुओं पर लगाये जाने वाले कर व प्रतिबंध अध्यादेश की तरह थे, क़ानून नहीं थे। वह मुख्य तौर पर शरीयत के अनुसार सरकारी काम काज करते थे। ये। बात दीगर है कि जनसाधारण की राजाओं तक पहुँच नहीं थी।

अंग्रेज़ी शासनकाल में लार्ड विलियम बेटिंक, जो भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर जनरल था, उसको चार्ल्स मेटकॉफ ने समान नागरिक संहिता लागू करने की सलाह दी थी। उसने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत में शासन करने पर भारत में युरोपियों की संख्या में वृद्धि होगी, जिससे न्याय-शासन में कुछ परिवर्तन करना होगा। युरोपियों को भी भारतीय न्यायाधिकरण के अंतर्गत लाना होगा। ऐसे व्यक्तियों को एंटोनी बनाना होगा जिन्हें अंग्रेज़ी क़ानून व विधि का ज्ञान हो! राजाओं की अलग अदालत और पृथक अंग्रेज़ी न्यायालयों को समाप्त कर न्याय व न्यायाधिकरण में एकरूपता लानी होगी। सबको एक ही व्यवस्था के अंतर्गत रखना होगा।

एंग्लो-इंडियन (मिश्रित नस्ल के पूर्वी भारतीय) को अंग्रेज़ी भारतीय प्रजा के दर्जे पर ही रखना चाहिये। लार्ड विलियम बेंटिग ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि मिश्रित नस्ल के ईसाइयों को मूल भारतीय निवासियों के ऊपर प्राथमिकता देने का कोई औचित्य नहीं है। उनका शिक्षा स्तर, संपदा, समाज में जनसाधारण से काफ़ी नीचा है। अंग्रेज़ी शासन से पूर्व ये ईसाई, मुस्लिम क़ानून अधीन थे। अब अंग्रेज़ी शासन में उन्हें विशेष सुविधा क्यों दी जा रही है? इन महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ों से स्पष्ट है कि अंग्रेज़ी शासन में भारत की जनता को एक नियम क़ानून के अंतर्गत लाने पर गंभीरता से विचार किया गया था। फिर चरणबद्ध तरीक़े से इस पर कार्य किया गया। उदाहरण के तौर पर (१) राजकीय काम काज की भाषा फ़ारसी के स्थान पर अंग्रेज़ी बना दी। विचारणीय है कि तब मुस्लिमों व भारतीयों ने चूँ भी नहीं की। (२) अंग्रेज़ी के प्रचार-प्रसार के लिये शिक्षा की योजना व सुविधाएँ उपलब्ध कराई गईं। (३) सभी क़ानून अंग्रेज़ी भाषा में एक जिल्द में प्रकाशित किये गये। (४) पूरे ब्रिटिश भारत में उसे लागू करवाया गया। (५) पूरे देश में विनिमय की एक ही मुद्रा लागू की गई। (६) आर्थिक सुविधा व लेन देन के लिये अंग्रेज़ी माप प्रारंभ किया गया। ऐसा नहीं की अँग्रेज़ों का विरोध नहीं हुआ। कुछ एंग्लो-इंडियन ने इसका विरोध भी किया पर सरकार ने हार नहीं मानी। उसने नियम क़ानूनों में धीरे धीरे परिवर्तन कर पूरे भारत की समस्त प्रजा पर (राजा, नवाब, ज़मींदार, हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, ईसाई) एक ही क़ानून लगा कर दिया। अंग्रेज़ी सरकार ने भारत सुरक्षा अधिनियम की परिधि बढ़ा कर फ़ौजदारी व नागरिक क़ानूनों के अंतर्गत सब को बाँध दिया।

भारत के संविधान निर्माता व नेता जिन्होंने स्वतंत्र भारत की बागडोर सँभाली वह सब लॉ की इंग्लैंड से पढ़ाई कर के आये थे और अंग्रेज़ीदाँ थे तब उन्होंने फ़ौजदारी के नियम तो नहीं बदले केवल धर्मों के तुष्टिकरण के लिये एक समान नागरिक क़ानून नहीं रहने दिया, उसके भी टुकड़े कर दिये।

स्वतंत्रता के बाद संविधान के अनुच्छेदों में पूरे भारत में एक नया सिविल कोड, अर्थात् नागरिक संहिता बनाने व एक राष्ट्रीय भाषा एवं बेसिक शिक्षा योजना लागू करने की बात कही गई थी। प. जवाहरलाल नेहरू जैसे स्वतंत्रता आन्दोलनकारी प्रधानमंत्री के शासन काल में और उसके बाद सुश्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल तक, कांग्रेस पार्टी के वर्चस्व में भी इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया। सन् १९७६ में संविधान में संशोधन कर के धर्म निरपेक्षता शब्द जोड़ दिया गया। इसने साम्प्रदायिकता व सम्प्रदायों की सुरक्षा का ऐसा फोबिया खड़ा किया कि एक भाषा, शिक्षा तथा समान नागरिक संहिता वितंडा के चक्रवात में फँस गई। यह समस्या क्षेत्रिय और जाति सापेक्ष बन कर रह गई। देश के नागरिक जो पहले केवल धार्मिक समुदायों में बँटे थे अब धार्मिक जाति समुदायों में (धोबी, मुस्लिम, जुलाहे, बढ़ई, कुम्हार, बौद्ध . . . ) बंटकर और भी बुरी स्थिति को प्राप्त हो गये। समान नागरिक शब्द संविधान या शब्दकोश में बंद हो गया।

भारत को संप्रभु धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने के लिये भारत के नागरिकों को भारतीय नाम की हीनता के बोध से बाहर निकालना होगा। धर्म, सम्प्रदाय, जाति आदि के भेद से ऊपर उठ कर गर्व से स्वयं को भारत का नागरिक कहना होगा जो कि वास्तविकता है।

इतिहास की चेतावनी

समान नागरिक संहिता को यदि अगामी चुनाव में वोट बटोरने का लुभावना नारा या वैमनस्य फैलाने का नारा मात्र है, एक मुद्दे की तरह हर बार की तरह इस बार भी प्रयोग किया जा रहा है तो चुनाव के बाद इस बार भी वह बरसाती मेंढक सा ग़ायब हो जायेगा। अगर नियत पाक-साफ़ है, पवित्र है, राष्ट्रीय हित सर्वोपरि है, केवल वोट पाना उद्देश्य नहीं है तो इस बिल का क़ानून बनना तय है। अपनी आत्मा का साक्षात्‌ करने के बाद ही इसका राग अलापें। सब अच्छा होगा॥

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