भारतीय नारी की सहभागिता का चित्रांकन!
आलेख | सामाजिक आलेख डॉ. उषा रानी बंसल1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
नर-नारी मुक्ति आंदोलन तथा नर-नारी समानता ने एक सदी उथल-पुथल मचा रखी है। इस आंदोलन का केंद्र धीरे-धीरे नारी द्वारा पुरुष की बराबरी करके दिखाना बन गया है। नारी ने मुक्ति आंदोलन में अपना स्वत्व स्थापित करने के स्थान पर, बराबरी की प्रतिस्पर्धा द्वारा पुरुष द्वारा किए जा रहे सभी कार्यों को करके दिखाना बन गया है। जिसने अच्छे–बुरे कार्यों का भेद भी मिटा दिया है। अपराध जगत में भी नारी ने अपने पाँव बड़ी तेज़ी से फैलाये हैं। दस्यु सुंदरियाँ तो इतिहास की गाथाएँ हैं। पर वह नर नारी मुक्ति आन्दोलन का हिस्सा नहीं थीं।
इस नर नारी समानता का सबसे रोचक पहलू है कि नारी पुरुष वर्चस्वता की अभेद्य दीवार में एक कील भी नहींं ठोक पाई है। स्त्रियाँ घर की देहरी लाँघ कर जैसे-जैसे पुरुष से बराबरी करने लगी, पुरुष घर-परिवार और सामाजिक दायित्व से पल्ला झाड़ने लगा। अब पुरुष नौकरी पेशा पत्नी की आशा करने लगे हैं। दहेज़ और सती सावित्री के मापदंड न बदलने थे और न बदले। दहेज़ के साथ दहेज़ हत्या का दावानल फैल गया। कन्या भ्रूण हत्या जो कभी पाप समझी जाती थी, उससे पाप का बोध गधे के सिर से सींग सा तिरोहित हो गया। नए ज़माने में परिवार पर बोझ बनी लड़कियाँ अंग प्रदर्शन तथा देह व्यापार में लिप्त होने लगीं। नारी न घर की रही न घाट की। घर पर बेटी, बहिन, माँ, दादी, चाची होने का अर्थ कहीं खो गया। लड़की को काम पूर्ति के साधन की तरह देखा जाने लगा। जिसने निजी संबंधों के पवित्र तारों को तार-तार कर दिया। बलात्कार के नए से नए कारनामे (निठारी हत्याकांड) मीडिया की सुर्ख़ियाँ बन विकृत मानसिकता को सोमरस पिलाने लगा। पति नामक पुरुष ने स्त्री पर प्रभुत्व बनाए रखने के लिए मन ही मन अपनी कमज़ोरी को छुपाने के लिए पत्नी को सहभागिता का एहसास दिलाने में अधिक कृपणता बरतने लगा।
मुझे नये ज़माने के चलन को देखकर लगता है कि नारी जो स्वयं में पूर्ण तथा मुक्त थी, अपूर्ण बन गई। आपने शायद कभी इस पर ध्यान दिया हो कि जब पुरुष को अपनी अपूर्णता का का बोध हुआ तो वह अर्धनारीश्वर बन गया। लेकिन कोई देवी लक्ष्मी, सरस्वती, काली आदि आदि ने कभी स्वयं को अर्धनर के रूप में प्रस्तुत नहींं किया! क्या कभी आपने सोचा ऐसा क्यों हुआ? अपूर्ण ही पूर्णता की ओर जाता है, पूर्णता अपने स्थान से विचलित नहींं होती। स्वभावतया संवेदनशील देवियों ने जब-जब देवताओं को संकट से घिरा पाया तो उनको त्राण दिलाने का कार्य किया। दुर्गा के नए रूपों में सरस्वती ने मथंरा, सुरसा बन आदिरूप धर कर देवताओं का कार्य किया। ऐसी पूर्ण नारी की अराधना का व्रत नौ गौरी, दुर्गा के रूप में प्रचलित हुआ।
भारतीय शास्त्रों और आख्यानों में नारी के अद्भुत चरित्रों का उल्लेख है। मनुसंहिता में उसे सर्वांग से शुद्ध बताया है। (वहाँ किस का कौन भाग शुद्ध है का वर्णन है, जैसे गाय मुँह से शुद्ध व पीछे से अशुद्ध . . . ) नारी मक्खन से मुलायम और पाषाण से कठोर है। उसका यह रूप मात्र गाथा नहींं, कोरी कल्पना नहींं वरन् ऐतिहासिक सत्य हैं।
भारत में नर नारी की सभी कर्मों में सहभागिता थी। कृषिगत कर्म में स्त्रियाँ खेतों की निराई, गुड़ाई, धान को भूसी से अलग करना, कुटाई पिसाई आदि कामों में सहायता करती थीं। भारत की आर्थिक दशा व उद्योगों की जानकारी रखने वाले बताते हैं कि बिना तकनीक विकास और औद्योगिक क्रान्ति के भारत सोने की चिड़िया कहा जाता था। यह सब आर्थिक समृद्धि के कारण हुआ होगा। भारत में उद्योग-कुटीर उद्योग थे। जिसमें एक परिवार के सभी सदस्य काम करते थे और साथ साथ प्रशिक्षण भी पाते थे। व्यापार का काम पुरुष वर्ग करता था। लेकिन बहुत सी महिलायें समुद्री व्यापार तथा देश के विभिन्न भागों में व्यवसाय, व्यापार देखती थीं। द्वापर में दूध, दही का व्यापार गोपियाँ, जो स्त्रियाँ थी, करती थीं। उस समय "women's lib" जैसा कोई आन्दोलन नर-नारी के बीच दरार डालने वाला न था। वह परिवार, समाज, राज्य का दायित्व समान रूप से एक दूसरे का सम्मान करते हुए निभाते थे। कहीं प्रतिस्पर्धा या दूसरे को नीचा या ऊँचा दिखाने का दिखावा न था। यहाँ यह भी बताते चलें कि परिवार में चूल्हा-चौका औरतें सम्हालती थीं तो विवाह आदि उत्सवों में पुरुष हलवाई ही रसोई सम्हालते थे। एक से एक बढ़कर पाक शास्त्र में निपुण पुरुषों का उल्लेख इतिहास में बिखरा पड़ा है। पर आज का दिखावे का संसार विषमताओं का पोषक है। इसलिये कुकिंग शो दिखा कर सुर्ख़ियाँ बटोर रहा है।
इतने पुराने समय से कुछ आगे निकल कर देखें तो यत्र तत्र अनेक मोती बिखरे पड़े हैं जो १८-१९ वीं सदी के हैं। जब नारी मुक्ति आंदोलन की पहल भी न हुई थी। ऐसी ही एक घटना ने २००७ में मीडिया में सुर्ख़ियाँ बटोरीं। भारत में जल्लाद, कसाई का काम करने वाली स्त्रियों का इतिहास में उल्लेख मिलता है। यह कार्य वह पुरुष वर्ग से प्रतिस्पर्धा करने या चुनौती देने के लिए नहींं करती थीं, और न ही वह किसी नर-नारी समानता या मुक्ति आन्दोलन का पड़ाव थीं। यह कार्य उनकी जीविका कमाने का साधन मात्र थी। ऐसी ही एक महिला को २००७ के प्रयाग मेले में चारपाई पर अध-लेटे, टीवी पर दिखाया। उसके साक्षात्कार में बताया गया कि वह महिला बुआ के नाम से जानी जाती है। वह मसानघाट की डोम है। उसके चेहरे पर कहीं डोम का काम करने का विषाद या पुरुष से समानता का दर्प न था। वह अपना नियत काम कर रही थी। मसानघाट पर जहाँ कुछ वर्ष पहले तक स्त्रियों को शव यात्रा में भी नहींं ले जाया जाता था, उस भयानक श्मशान एक स्त्री डोम का काम कर रही थी। जिसके लिए उसे किसी सरकार से आज्ञा नहींं लेनी पड़ी थी। लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि नारी मुक्ति आन्दोलन का काला चश्मा हटाकर देखो तो नारी अपने विविध रूपों में सर्वत्र विद्यमान् है। पुरुषों द्वारा किए जाने वाले कार्य शान्ति और स्थिरता से वह कर रही है। उसमें पश्चात्य नारी मुक्ति आंदोलन की छटपटाहट नहींं है।
इसी संदर्भ से जुड़ी एक और घटना है १८३५ ई० में जब लार्ड विलियम बैंटिक ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जनरल थे, तो उन्होंने सामाजिक बुराइयों को दूर करने का कार्य किया था। जिसमें सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल हत्या पर रोक के बारे में तो सब जानते हैं, लेकिन उससे जुड़ी छोटी-मोटी प्रथाओं के बारे में कम चर्चा होती है। उनके बारे में बहुत कम पता चलता है। इसी तरह एक प्रथा आत्महत्या से जुड़ी थी। जनवरी माह में ही प्रयाग में संगम में डुबकी लगा कर प्राण त्यागने की एक प्राचीन प्रथा थी। इसके लिए एक विशेष नाव थी, जिसकी संचालिका एक स्त्री थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर कॉलविन ने इस प्रथा का गहराई से अध्ययन किया। तब ज्ञात हुआ कि जीवन से तंग आये व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करने की आकांक्षा से माघ के पवित्र माह में, प्रयाग में, गंगा को जीवन अर्पित करने आते थे। (इस विषय पर अधिक जानकारी के लिए लॉर्ड विलियम बैंटिक की १८२८-१८३३ तक के पत्र देखें) जिसमें वह नाव मृत्यु के घाट तक ले जाने का काम करती थी। नाव की संचालिका मृत्यु की आकांक्षा लिए आने वाले व्यक्तियों को मरने में सहायता करती थी। जिसके बदले में उसे पारिश्रमिक मिलता था। कभी कभी पूस-माघ के महीनों में ३० से अधिक व्यक्ति प्राण त्याग कर देते थे।
(मैं जून 2003 में स्वीडन एक शोध पत्र प्रस्तुत करने गयी थी। स्वीडन जाने के लिए डेनमार्क रुकी थी। वहाँ भ्रमण करते समय मुझे बताया गया कि “शहर के स्क्वायर (चौक) मुख्य बाज़ार में नव वर्ष की रात को भारी जश्न होता है। सुबह वहाँ बहुत से शव मिलते हैं, लोग जीवन से ऊब कर रात में आत्महत्या कर लेते हैं।”)
मृत्यु में सहायता करने वाली नाव की बात करते हैं। कॉल्विन ने उस नाव को ज़ब्त करवा लिया। जब जीवन त्यागने की इच्छा से आये व्यक्तियों को नाव नहींं मिली, तो वह वापस लौट गए। इस तरह इस प्रथा की समाप्ति हुई। नाव की संचालिका ने बनारस की प्रांतीय अदालत में दावा किया कि “उसकी जीविका उपार्जन का साधन कंपनी सरकार ने बंद करा दिया है। उसे 5 रुपया साल की दर से मुआवज़ा दिया जाए।” उसकी यह फ़रियाद नामंज़ूर कर दी गई। इतिहास में इस तरह के अनेक उदाहरण है जब नारी मुक्ति आन्दोलन के शुरू होने से बहुत पहले से ही भारत में स्त्रियाँ विभिन्न क्षेत्रों में काम कर अपने पैरों पर खड़ी थीं, और अपनी पहचान बना कर अस्मिता से जी रही थीं। लेकिन उनमें आधुनिक समय का दिखावा या दमघोंटू प्रतिस्पर्धा नहींं थी। प्रतिशोध व प्रतिकार का दंभ नहीं था। प्रतिशोध व प्रतिकार, दिखावा विकृतियों का जनक है जिसे स्वस्थ परिवार व समाज का सृजन सम्भव नहींं है।
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टिप्पणियाँ
Sarojini pandey 2022/05/27 12:05 PM
बहुत बढ़िया जब तक स्त्री अपनी मानसिक और शारीरिक शक्ति से परिचित और संतुष्ट रही ,तब तक समाज का उत्थान होता रहा। अब जब वह प्रतिस्पर्धा में उलझ कर पुरुष के कामों की बराबरी करने लगी है ,तब समाज का ढांचा ही गड़बड़ा गया है। न जाने कितनी मानसिक और उसके कारण शारीरिक व्याधियों जन्म ले रही हैं। नारी जो पुरुष की भी मानसिक शक्ति का कारण बनती थी अब समाज के विघटन में योग दान कर रही है,।
Dr Padmavathi 2022/05/27 11:52 AM
बहुत सार्थक लिखा आदरणीया । सचमुच नारी की मुक्ति किससे और क्यों? नारी आंदोलन ,मेरी दृष्टि में तो महज़ नारा और परिभाषा मात्र है । बहुत रोचक जानकारी । बहुत बधाई
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SumamG. 2023/09/16 07:36 AM
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