पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन?
आलेख | ऐतिहासिक डॉ. उषा रानी बंसल15 Mar 2022 (अंक: 201, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
बात सन् 1980 की है। हम ब्रिज एनक्लेव कॉलोनी में घर बनवा रहे थे। ब्रिज एनक्लेव कॉलोनी के अधिकांश प्लाट ख़ाली थे। शाम को मज़दूरों को विदा करके हम लौटते थे तो अँधेरा हो जाता था। लिहाज़ा कार की लाइट जला कर जाना पड़ता था। सड़क के किनारे शौच करती महिलाओं पर जब लाइट पड़ती तो वह अपने अस्त-व्यस्त कपड़े ठीक करने लगती। ब्रिज एनक्लेव देहात सा था। कहीं-कहीं गोबर पथा तो कहीं शौच होता था। हमने शौच को इथनिक (Ithanic) नाम से नया नाम दे दिया, ‘शौच का नया‘ तरीक़ा कहने लगे थे l यह नया नाम तब गोष्ठियों में बहुत प्रयुक्त हो रहा था। अक़्सर दिखने वाले इस दृश्य से मुझे गाँधी जी की याद आ जाती थी। उन्होंने कहा था कि हम सदियों से भंगियों का शोषण कर रहे हैं। न जाने मैला ढोने की प्रथा कब प्रारंभ हुई? गाँधी जी को भी इसका पता नहीं था? परंतु यह मानवता पर कलंक व अभिशाप है ऐसा उन्होंने कहा था। इतिहास की विद्यार्थी होने के कारण मुझे यह जानने की इच्छा हुई कि भंगी शब्द की उत्पत्ति है किस धातु से, और कब हुई? इस जानकारी प्राप्त करने के लिए जाति प्रथा का उद्गम, विकास का अध्ययन किया तो उसमें जिस निम्नतम जाति का उल्लेख था—वह डोम थी। जो शमशान पर रहते थे, और अंत्जय माने जाते थे। भारत में पहले केवल 7 जाति थीं। धीरे-धीरे इनकी संख्या में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होती गई। मनुसंहिता (द्वारा हरगोविंद शास्त्री) पढ़ने पर उसमें भी किसी भंगी जाति या मैला ढोने का कर्म करने वाले का उल्लेख नहीं मिला। इस पर विचार करते समय एक संगोष्ठी में वक्तव्य दिया जा रहा था कि भारत की 90% जनता गाँवों में निवास करती है। अब यह प्रतिशत घटकर लगभग 70% रह गया है। तब यह समझ में आया कि जब गाँव की 90% जनता दिशा मैदान अर्थात् में शौच करती थी, तब किसी भंगी या मैला ढोने वालों की आवश्यकता ही न थी। बाक़ी 10% शहरी जनता के लिए, शायद इसकी आवश्यकता पड़ती हो?
इस जिज्ञासा ने शहरों में मैला निकासी तथा शौचालयों के इतिहास को खोजने की ओर प्रेरित किया। भारत के संदर्भ में पुरातात्विक स्रोतों से पता चलता है कि मोहनजोदड़ो, हड़प्पा (सिंध मोंटगोमरी) नियोजित शहरी सभ्यता थी। इसका समय 3000 ईसा पूर्व माना जाता है। सिंधु घाटी की सभ्यता के नगरों में 30 से 40 फुट चौड़ी सड़कें तथा भूमिगत ड्रेन व्यवस्था ख़ुदाई से प्राप्त हुई है। घर पर्याप्त बड़े आकार के थे, जिनमें खिड़कियाँ, आँगन, स्नानघर होते थे। कुछ घरों में शौचालय थे, जिनमें सोक पिट भी उत्खनन में मिले हैं। ऐसी दशा में किसी ऐसे कर्म को करने वाले की सम्भावना दिखाई नहीं देती, और न ही मैला एकत्र कर उसका निस्तारण करने के लिये किसी भंगी नामक मनुष्य की उपस्थिति की?
विभिन्न सभ्यताओं जैसे जनपदीय, मौर्य, कुषाण, गुप्त आदि के दूसरी सदी से 11वीं सदी तक जो अवशेष मिलते हैं, उसमें नगर एक चारदीवारी के अंदर या क़िले के भीतर होते थे। यह नगर व क़िले किसी पहाड़ी अथवा नदी के किनारे बने होते थे। इन नगरों, ज़िलों में, शासक का महल, पूजा स्थल, प्रशासनिक भवन, मुद्रणालय, कोषागार, शस्त्रागार आदि होते थे। बहुत से दरबारी, अफ़सर, व्यापारी आदि भी इन्हीं स्थानों पर रहते थे। उनके घर खुले हुए पर्याप्त खिड़की रोशनदान युक्त होते थे। वहाँ अन्य घरों का उल्लेख भी मिलता है। इमारतों के अवशेष इस ओर इंगित करते हैं कि इन घरों में महिलाओं के लिया शौच की व्यवस्था घर में होती थी। रनिवासों के शौचालयों का मैला सुरंग के द्वारा नदियों में गिरता था। राज परिवार से भिन्न व्यक्ति खुले में नदी, नालों, तालाबों तथा आबादी से दूर के स्थानों पर शौच करने जाते थे। मनु संहिता में मल या शौच त्याग के नियमों का विस्तार से वर्णन है।
12 वीं सदी में जब मुस्लिम सुल्तानों ने भारत पर अपना शासन स्थापित किया तो यह ध्यान रखें कि वह मुख्यता सैनिक थे। स्वयं को पराजित हिंदुओं से श्रेष्ठ समझते थे। हिंदुओं को अपना शत्रु मानते थे। उनमें असुरक्षा की भावना अत्यंत प्रबल थी। वह खुले मैदान या नदी-नालों के किनारे शौच के लिए नहीं जाते थे। अमीरों और सुल्तानों के परिवारों में पर्दा प्रथा, है बुर्का की रस्म होने के कारण उनकी स्त्रियाँ खुले में दिशा मैदान के लिए जाने से डरती थी। शायद उनके लिए परदों वाले शौचालयों का विकल्प रखा गया। युद्ध में बनाए बंदियों व अन्य व्यक्तियों को इन शौचालयों को साफ़ करने के लिए बाध्य किया जाता होगा। इस तरह मैला साफ़ करने वालों की एक नई जमात बनी होगी। जिसको सम्राट अकबर ने मेहतर नाम दिया।
मुस्लिम सुल्तानों और मुग़ल बादशाहों ने जब क़िलों महलों नगरों का निर्माण कराया तो उनमें एक से एक शानदार ग़ुसलख़ानों का निर्माण भी कराया। परंतु उनमें शौचालयों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि मैला सुरंग टाइप, और ड्राई शौचालयों का प्रयोग उस समय होता रहा होगा। लेकिन इन शौचालयों में एकत्रित मल को उठाने या उठाकर फेंकने की व्यवस्था नहीं थी। इस विषय में मुझे अमेरिका में प्रेसिडेंट अब्राहम लिंकन के घर के शौचालय का स्मरण हो आता है जिसका चित्र ऊपर दिया है।
यह शौचालय घर के आँगन में एक कोने में बना था। जहाँ शौच के बाद उस पर चूना डालने के लिए एक बाल्टी में चूना रखा था। जब शौचालय का एक गड्ढा भर जाता था, तो दूसरा खोद दिया जाता था। उसके घर में स्नानघर नहीं था। रसोई का प्रयोग भी स्नानघर के रूप में होता था। आज भी पहाड़ों पर, या पुराने क़स्बों के घरों में इसे देखा जा सकता है। पहाड़ों पर शौच की इस व्यवस्था को भी देखा जा सकता है। रात्रि में मूत्र त्याग के लिए एक प्रकार के जग के प्रयोग किया जाता था, जैसा कि ऊपर चित्र में दिखाया गया है:
यहाँ यूरोपीय देशों में मल-मूत्र त्याग व निस्तारण के बारे जानना आवश्यक है:
यूरोप के मध्ययुगीन क़िलों में निजी शौचालयों में ’गार्डरोब्ज़’ (उदाहरण ऊपर का चित्र) लगे होते थे। आमतौर पर इसमें एक लम्बे छेद के ऊपर एक सीट लगी होती थी और इस छेद द्वार निस्तारण क़िले के बाहर बनी खाई में होता था। मध्ययुगीन ब्रिटेन के मठों में सार्वजनिक शौचालयों में एक पंक्ति में कई सीटें लगी होती थीं।
इंग्लैड में निम्न वर्गीय जनता के लिए सार्वजनिक शौचालय प्रयोग में आते रहे जो कि आमतौर पर नदियों के पुलों पर बने होते थे।
ग्रामीण अंचल में शौचालय सेसपिट या मिट्टी के गड्ढे पर पंक्ति में लगी सीटों वाले होते थे। कई बार यह शहरी इलाक़ों के निजी घरों में बाहर के शैड में या नीचे तहखाने में बनाए जाते थे।
शहरी मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लोक पोर्टेबल चैंबर पॉट (ऊपर चित्र में) का उपयोग करते थे और आम तौर पर प्रयोग के बाद यह बाहर गली में ही ख़ाली कर दिए जाते थे।
मध्य युग में भारत के कुछ घरों में शौचालयों के लिए सेसपिट या सेप्टिक टैंक बने हुए थे। 1518 में सुल्तान अली कुली खाँ के द्वारा बनाया गया गोलकुंडा का क़िला इसका उदाहरण है।
मुग़लों के समय में 16-19 वीं सदी में व्यापार तथा उद्योगों का बहुत विकास हुआ। जिसके कारण राजधानियों, क़िलों, गढ़ों आदि के चारों ओर नई-नई कॉलोनियों व बस्तियों का निर्माण हुआ, जिनमें कलाकार, दस्तकार, कर्मकार, व्यापारी, मज़दूर, बढ़ई, आदि विभिन्न पेशों के लोग रहने लगे। यह बस्तियाँ गाँव व शहर का सम्मिलित रूप लिए हुए थीं। इनमें सड़क, रोशनी, पानी, जल निकासी व शौचालयों की कारगर व्यवस्था नहीं थी। जैसा आज भी मुंबई की चाल व झुग्गी झोपड़ियों में देखी जा सकती है।
19वीं सदी में जब यूरोप के विभिन्न देशों ने भारत में फैक्ट्री अर्थात् व्यापारिक प्रतिष्ठान स्थापित किए तो नगर निर्माण की पाश्चात्य शैली विकसित हुई। इसका अर्थ यह नहीं कि वह वहाँ से शौचालयों की कोई विशेष व्यवस्था लेकर वह आए थे (जैसा ऊपर लिखा गया है), क्योंकि उस समय उनके यहाँ तो स्थिति बहुत भयानक थी। लोग सुबह होने से पहले ही घर की खिड़की से मल गली में फेंक देते थे। इस मैले को इंग्लैंड में नाइटसॉयल (night soil) कहते थे, अर्थात् ’रात की मिट्टी’ कहा जाता था, जिसे मेहतर किसान गाड़ियों में भरकर खेतों में डाल आते थे। जिससे खाद की तरह प्रयोग किया जाता था। इस भयानक दशा के बारे में उस समय के कवियों लेखकों ने वर्णन किया है। गलियों में फैली गंदगी से चलना कठिन हो जाता था। फ्रांसीसी कवि क्लाउड जला पेटी ने फ्रांस की गलियों का वर्णन करते हुए लिखा है कि, “मेरे जूते मोजे, ओवरकोट, कॉलर, दस्ताने हैं सब मल से सने हैं, मैं ख़ुद को कचरा समझने की ग़लती कर सकता हूँ”। इसके कारण अक़्सर महामारी फैलती रहती थीं। जिससे बहुत से लोग मर जाते थे। 18वीं सदी में पानी वाले शौचालय (water closet) एंड सीवेज सिस्टम तथा सीवरेज सिस्टम के आने के बाद, उसे घरों, क्लबों, ऑफ़िसों आदि में प्रचलित कराने में यूरोप और अमेरिका में नगर पालिका व सरकार को क़ानूनी व सामाजिक क़दम उठाने पड़ेl यह पढ़कर शायद आश्चर्य होगा कि शौचालय प्रत्येक घर में बनवाने के लिए फ्रांस की सरकार ने क़ानून बनाया। इसके विरोध में एक बुनकरों का डेलिगेशन फ्रांस की म्युनिसिपल बिल्डिंग में पहुँचा, उनका कहना था, कि आप हमें इस ज़मीन पर शौच करने से नहीं रोक सकते, हमारे पूर्वज यहाँ शौच करते रहे थे, और अब हम तथा फिर हमारे बच्चे भी यहीं शौच करेंगे। भारत में भी भी सरकार की तरफ़ से अनुदान देकर सोपपिट वाले शौचालय बस्तियों के घरों में बनाए गए लेकिन फिर भी लोग खुले में शौच करने जाते हैं। 18 वीं सदी में यूरोप व अमेरिका में टॉयलेट तकनीक का विकास हुआ। एक के बाद एक तरह-तरह के टॉयलेट तैयार किए गए। 1870 में एस एस Helior ने जब फ़्लश वाले शौचालयों का अविष्कार किया तब से टॉयलेट संस्कृति बदल गई। इसके लिए बड़ी-बड़ी सीवर लाइन, सफ़ाई की तकनीक का विकास हुआ। भारत के संदर्भ में आने वाले युरोपियों ने जिन व्यापारिक प्रतिष्ठानों, फ़ोर्ट (forts) का निर्माण कराया उनमें एक देश के लोग, एक जगह रहते थे l यह अपने अपने प्रतिष्ठानों की सुरक्षा के लिए घेराबंदी करते थे। इनमें इनके अफ़सर, कर्मचारी रहते थे। इनके घर उनके देश की स्थापत्य कला के अनुरूप बनाए गए। उनमें भारतीयों के प्रति घृणा और अपने प्रति गौरव व श्रेष्ठता का मिथ्याअभिमान था। उन्होंने इन प्रतिष्ठानों के घरों में शौचालय बनवाए। इनमें कमोडनुमा शौच का गमला या बाल्टी होती थी। जिसमें एकत्र मल को उठाकर फेंकने की ज़रूरत थी। फिर बाल्टी या गमले को धोकर लकड़ी के कुर्सीनुमा कमोड में लगा दिया जाता था।
भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हो जाने के बाद आने वाले अँग्रेज़ों की संख्या में निरंतर वृद्धि होती गई। अब उन्होंने कोलकाता, मुंबई, लाहौर, नागपुर, मद्रास, इलाहाबाद, मेरठ आदि स्थानों पर छावनी शहर बसाये। तब काले-कलूटे पराजित हिंदुस्तानी इन छावनियों में सेवादार का काम करते थे। ऐसे ही सेवादारों में जिसमें बंदियों की संख्या ज़्यादा थी, को मैला साफ़ कराने के लिए मजबूर किया जाता था। कैंटोनमेंट में जैसे-जैसे टॉयलेट सभ्यता का विकास होता गया वैसे-वैसे जल निकासी, पेय जल की व्यवस्था की गई। उनकी सफ़ाई व अन्य कार्यों से जुड़े व्यक्तियों ने फ़ोर्ट के बाहर रहना शुरू कर दिया। इन स्थानों पर बिजली पानी शौचालयों की कोई व्यवस्था नहीं थी। यह सीवर के पानी के बजाते गड्ढों के पास तितर-बितर तरीक़ों से फैलते चले गए, इन बस्तियों की दशा इंग्लैंड की सोलहवीं सदी की दशा, जिसका ऊपर वर्णन किया गया है, से भी ख़राब हो गई। इस तरह से नये यूरोपीय शहरों, क़िलों, छावनी में रहने वालों के शौच को साफ़ करने के लिए बड़ी संख्या में हिंदुस्तानी लगाये गये। यही व्यक्ति मैला ढोने के कारण भंगी कहलाए। यह शब्द शायद भंगिमा (वक्रता) से लिया गया होगा। भाषा कोष में तभी यह शब्द नहीं था। अँग्रेज़ों ने उन्हें जमादार कहा जमादार एक सैनिक अधिकारी का टाइटल भी होता था, बाद में जमादार शब्द भंगी के लिए प्रयुक्त होने लगा।
स्वर्गीय लेखक अमृतलाल नागर ने भी इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए गहन शोध किया था। उन्होंने अपने उपन्यास “नाच्यो बहुत गोपाल“, जिसकी मुख्य पात्र मेहतरानी थी, में लिखा है कि “काम करते हुए क्रमश: मुझे यह अनुभव होने लगा कि भंगी कोई जाति नहीं है, और यदि है भी तो केवल ग़ुलामी की जाती। सनातन श्र्वपच अथवा चंडालो से आज हम साधारणतया भंगी वर्ग को और जोड़ लेते हैं, वह मुझे भ्रामक लगा।” उन्होंने आगे पृष्ठ 9 पर लिखा कि 1925 में प्रकाशित श्रीराम वंशी राम राउत (मेहतर) की पुस्तक “पतित प्रभाकर अर्थात् मेहतर जाति का इतिहास” उन्होंने पढ़ा जिसमें भंगी मेहतर, हलाल खोर चुहड आदि नामों से जाने गए लोगों की क़िस्मेंं दी गई हैं। जिनमें जाति-भेद राजपूतों के जाति भेद से बिल्कुल मिलता है। भंगी मेहतर की वास्तविक जाति मजबूरी के कर्म का परिचायक है। शहरों में संडासों का चलन बहुत पुराना है, इन संडासों में साल में या महीने में एक बार नमक डाल दिया जाता था। गाँव में मैला ढोने वालों की आवश्यकता ही नहीं थी। झाड़ा, पोखरा, बहरी-अलग जैसे प्रचलित शब्द हमारी प्राकृतिक आवश्यकताओं शौच की पूर्ति की जगह का इशारा करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दिशा मैदान तथा ड्राइशौच और सोकपिट, वाले शौचालयों का स्थान जब कमाने वाले कमोड शौचालय ने लिया, तब एक नए वर्ग का जन्म हुआ होगा—जिसे मेहतर, जमादार, भंगी आदि नामों से संबोधित किया गया। 1960 में गाँधीवादी प्रोफ़ेसर एनआर मलकानी की अध्यक्षता में सरकार ने एक समिति गठित की जिसका कार्य मैला ढोने वाला यह वर्ग जाति के रूप में कैसे स्थापित हो गया? पता करना था। बाल्मीकि समाज के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए उसमें यह कहा गया था कि यह समाज उन पराजित योद्धाओं की संतान हैं, जिन्हें विजेताओं ने बंदी बना लिया था, और विजेताओं ने उन्हें सफ़ाई करने के लिए विवश किया होगा।
पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन
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टिप्पणियाँ
shaily 2022/03/11 06:08 PM
आपने काफी शोध किया, बहुत अच्छी जानकारी दी, वाकई इस विषय पर ध्यान नहीं गया कभी, आज पढ़ कर लगा विचारणीय विषय है. बहुत आभार और बधाई
राजनन्दन सिंह 2022/03/11 04:02 PM
शोधपरक लेख। बहुत हीं अच्छी जानकारी। निम्न कर्म जिसके आधार पर जातियों का निर्धारण हुआ किसी भी समुदाय ने स्वेच्छा से नहीं चुना होगा। निश्चित रुप से हीं उन्हें बाध्य किया गया होगा। इसके आधार पर यह माना जा सकता है कि निम्न वर्ग किसी न किसी काल के पराजित योद्धा हीं है।
Sarojini Pandey 2022/03/11 03:40 PM
सूचना प्रद लेख, । पराजित देश की समाजिक व्यवस्था को आक्रांता किस प्रकार प्रभावित कर सकता है ,भंगी जाति की उत्पत्ति इसका दुखद उदाहरण है।इस जानकारी के लिए धन्यवाद उषा जी ।
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पाण्डेय सरिता 2022/03/11 10:50 PM
मैं जानती थी इन बातों को,फिर भी एक बार और पढ़ने से खुद को रोक नहीं पाई।सादर नमन आपको।