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भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का एक दूसरा पक्ष

भारत पर मुसलमानों ने अरब से आठवीं शती में आक्रमण करना प्रारंभ किया। यह आक्रमण इस्लाम के उदय छठीं सदी से क़रीब 300 वर्ष बाद हुआ। इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है कि अरबों की सिन्ध विजय परिणाम-शून्य थी। लेकिन सिन्ध विजय का सबसे महत्पूर्ण परिणाम यह हुआ कि भविष्य में होने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों के लिये सिंध एक ठिकाना तथा शरणस्थली बन गयी। सिन्ध ने सैनिक रसद पहुँचाने के साथ-साथ भावनात्मक समर्थन किया। सिन्ध विजय के 200 वर्ष बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों ने पुनः भारत पर चढ़ाई प्रारंभ की। नवीं शताब्दी में (962 ई.) ग़ज़नी राज्य के उत्थान के बाद ग़ज़नी के खान महमूद ग़ज़नवी ने सन् 1000 से 1026 ई. तक भारत पर सत्रह बार आक्रमण किया। महमूद ग़ज़नवी लुटेरे की तरह आया और तूफ़ान की तरह तबाही मचा कर चला गया। उसकी विजय का कोई स्थायी राजनीतिक परिणाम नहीं निकला। महमूद ग़ज़नवी ने भारत में राजनैतिक सत्ता तो स्थापित नहीं की लेकिन उसकी लूट-पाट, मन्दिरों के विध्वंस, पुस्तकालयों और बौद्ध मठों की आग तथा नरसंहार एवं क़त्लेआम ने भय और आतंक का ऐसा वातावरण पैदा कर दिया जिसमें इस्लाम क़त्लेआम, लूट, वहशीपन और दरिंदगी का पर्याय बन गया। इससे भारत के लोगों के नैतिक बल और स्वाभिमान तथा सम्मान को गहरा आघात लगा। इतिहासकार डेनलू ने लिखा है कि “महमूद गजनवी ने अपनी हवस को पूरा करने के लिए मथुरा के 1018 मन्दिरों को जला कर राख कर दिया। कन्नौज को धूल में मिला दिया तथा सोमनाथ के प्रसिद्ध मन्दिर, कला के उत्कृष्ट नमूने को नष्ट कर दिया।” डॉ. मजुमदार ने लिखा है कि ग़ज़नवी अधिकृत पंजाब ने अन्तःस्थित भारत के द्वार खोलने के लिए कुंजी का काम किया। 

1026 ई. की त्रासदी से भारत अभी उबर भी न पाया था कि मुहम्मद ग़ौरी 1175 ई. में भारत पर आक्रमण करने लगा। ग़ौरी 1175 ई. से 1192 ई. तक निरंतर भारत पर धावा बोलता रहा। इन आक्रमणों में क़त्लेआम, आगजनी, औरतों, मर्दो, बच्चों, असहायों पर अत्याचार, उन्हें बंदी बनाना, दास बनाना, लूटमार, मन्दिरों को तोड़ने से जो दहशत फैली उसने भय और आतंक को और घनीभूत कर दिया। अकेले बनारस में 1030 मन्दिर तोड़े गये। इतिहासकार विल डूरेण्ड ने लिखा है कि “. . . the Islamic conquest of India is probably the bloodiest story in history it is discouraging tale, for its evident moral is that civilization is a precious good, whose delicate complex order and freedom can at any moment be overthrown by barbarians invading from without multiplying within.” अर्थात् इस्लाम की भारत पर विजय मानव इतिहास की सबसे रक्त रंजित कहानी है। जिस कहानी का शिक्षात्मक पहलू निराशा और हताशा है। सभ्यता और संस्कृति की अच्छाइयाँ तथा कोमल संवेदनशील जटिल संस्थायें एवं स्वतंत्रता को किसी भी समय वहशी आक्रान्ता उखाड़ फेंकते हैं। कितना आश्चर्यजनक है कि आक्रान्ताओं की संख्या कम होती है परन्तु बुराई की तरह गुणात्मक रूप में बढ़ जाते हैं। फिर वह सभ्यता के मूल्यों, सौंदर्य, अनुपम कलाकृतियों को बेरहमी से भस्मीभूत करते हुए भय, आतंक और दहशत के ऐसे नित नये उदाहरण प्रस्तुत करते हैं जो न केवल कल्पनातीत होते हैं वरन् उनसे रूहें तक काँप जाती हैं। 

भारत में ख़ूँख़ार इस्लामिक आक्रांताओं का सामना चार हज़ार वर्ष पुरानी सभ्यता से हुआ था। उनके वहशीपन से घबराकर भारतीयों ने (हिन्दू, बौद्ध, जैन इत्यादि) इस्लाम स्वीकार नहीं किया वरन् अन्तिम साँस तक उसकी चुनौतियों का सामना किया। यही कारण था कि प्रत्येक सुल्तान, बादशाह और आक्रांता को निरंतर सैनिक आक्रमण करने पड़े। इन आक्रमणों में क़त्लेआम, आगजनी, लूटमार, हिन्दुओं के सिरों की मीनारें बनवाना, हाथियों तले रौंदवाना, ज़िन्दा खाल खींचवाना, मंदिर तथा मूर्तियाँ तोड़ने का कार्य अनवरत चलता रहा। तैमूर ने 339 ई. में एक लाख हिन्दुओं को एक दिन में मौत के घाट उतारा था। बहमनी सुल्तानों ने प्रतिवर्ष एक लाख हिन्दुओं को मौत के घाट उतारने का लक्ष्य बनाया था। इसमें सबसे आश्चर्य की बात यह है कि बहमनी राज्य की स्थापना कराने का कार्य एक ब्राह्मण ने किया था। ब्राह्मणी राज्य का अपभ्रंश बहमनी प्रसिद्ध हो गया। डॉ. के.एस. लाल ने लिखा है कि 1000 से 1525 तक 80 मिलियन भारतीयों को मौत के घाट उतारा गया। इतिहासकार एल्सट ने ‘नेगेशनिश्म इन इण्डिया’ में लिखा है कि पूरे संसार के इतिहास में यह सबसे बड़ा नरसंहार था। 

बाबर, नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली आदि आक्रांता एक के बाद एक इसी इतिहास को दोहराते रहे। मुस्लिम शासक सत्तानशीन होने के बाद भी एक वर्ग विशेष के सफाये का काम करते रहे। 40 वर्षों तक चलने वाले मुग़ल-मेवाड़ युद्ध ने हल्दी घाटी को पीली से रक्त रंजित (लाल) कर दिया। राणा का युद्ध क्षेत्र से पलायन कर जाने और अकबर की आधीनता न मानने ने अकबर को बौखला दिया वह युद्ध जीत कर भी विजयी न हो सका। औरंगज़ेब स्वयं चित्तौड़ गया और तत्कालीन इतिहासकार हसन अली खान लिखा है कि उसने वहाँ 63 मन्दिर तुड़वाये तथा अबु तरब को मेवाड़ के मन्दिरों को तोड़ने का काम सौंपा। हसन अली खां नामक इतिहासकार ने लिखा है कि औरंगज़ेब ने मथुरा और बनारस के 172 मन्दिर तोड़े और वहाँ मस्जिद बनवाईं। औरंगज़ेब ने अयोध्या में त्रेता के ठाकुर का मन्दिर तुड़वाया। संक्षेप में ख़ूँख़ार, स्वार्थी, लोभी, दम्भी, नृशंस आक्रांताओं और शासकों ने एक वर्ग विशेष के लोगों का क़त्लेआम करने, आस्था के मन्दिर व मूर्तियाँ तोड़ने, लूट-पाट करने का जघन्य कृत्य किया। जिससे सभ्यता के परखच्चे निकल गये। बेबीलोनिया, ग्रीक, पोम्पई, रोमन सभ्यता को पिक्ट, सैक्शन, स्कॉट, आईरिस आदि के झुंडों ने इसी प्रकार नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। रोमन सभ्यता का स्थान बर्बरों ने ले लिया और वहाँ की जनता को लीलते हुए पूरे प्रायद्वीप को बंजर और असभ्य बना दिया। “Civilization reeled and regressed।” सभ्यता का चक्र उल्टा हो गया। पी एंड एम मैगज़ीन के चौथे पृष्ठ पर लिखा है कि ईसाइयों ने ईसाई धर्म फैलाने के लिए रोमन सभ्यता के उच्च आदर्श और उन्नति के सभी सोपानों पर कटाक्ष कर उन्हें पाप घोषित कर दिया। उन्होंने कहा कि, “The early Christians rejected most anything Roman, including the value of cleanliness। They considered it unsanitary to be clean, signal to display material wealth। 'All is vanity', stated an early Christian writer St। Benedict.” 

अर्थात् आरम्भिक ईसाईयों ने जो भी रोमन था उसे नकार दिया। उसकी हद यह थी कि उन्होंने रोमन स्वच्छता के महत्त्व को धन का प्रदर्शन बताया। ईसाई लेखक सेन्ट बेनेडिक्ट ने स्वस्थ पुरुषों को नहाने की आज्ञा बहुत कम दी। रोमन स्नानगृहों को ऐय्याशी के अड्डे कहकर बदनाम कर दिया। इस तरह एक महान सभ्यता असभ्य, घुमंतू, बर्बरों के हाथों समाप्त हो गयी। यह लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि सभ्य सुसंस्कृति को असभ्यता लीलने का कार्य दोहराती है। विनाश का कार्य करती है। भारतीय सभ्यता के साथ भी यही इतिहास दोहराता गया। लेकिन भारतीय और यूरोपिय सभ्यताओं की विनाश लीला में एक अंतर था। जहाँ ईसाईयत के आगे रोमन सभ्यता का नामोनिशान भी नहीं बचा वहाँ भारतीय सभ्यता बची रह गई. भारतीय सभ्यता संस्कृति के बारे में कहा जा सकता है कि, “ज़ुल्म करके वो समझे कि ज़ुल्म जीत गया, मुझको देखो, मैं ज़ुल्म सहकर भी ज़िन्दा हूँ ज़ुल्म का दौर कब का बीत गया।” 

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न बार-बार उठाया जाता है कि मुस्लिम आक्रांता भारत में क्यों जीत कर बस गये जबकि यूरोप से उन्हें खदेड़ दिया गया? दूसरे पूरा अरब, ईजिप्ट आदि ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया तब भारत क्यों दारूल इस्लाम में तब्दील न हो सका? पहले प्रश्न का हल ढूँढ़ने के लिये इस्लाम के उदय से 6ठीं शती तक का इतिहास खंगालना पड़ेगा। पहले प्रश्न के संदर्भ में इस्लाम ने 7वीं शती तक अरब, इराक, सीरिया, फारस, उत्तरी अफ़्रीका पर विजय पताका फहराते हुए यूरोप में स्पेन तथा फ्रांस तक पहुँच गये। ईसाई संसार उस समय आन्तरिक समस्याओं से घिरा था। इस्लाम का आक्रमण उनके दुर्दिनों में वज्रपात की तरह था। इस्लाम का समय नवीन उत्साह व जोश का था। 732 ई. में फ्रांस के राजा चार्ल्स मारवल ने एक बार इस्लामिक सेनाओं से निर्णायक युद्ध किया। इस्लाम की सेनाओं को पेरिस से खदेड़कर उनके अजेय होने के भ्रम जाल को तोड़ दिया। इसने यूरोपिय राज्यों में नये उत्साह का संचार किया। एक के बाद एक देश ने मुस्लिम सेनाओं को खदेड़ दिया। इस इस्लामिक ईसाई संघर्ष की सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी धर्म था। यूरोपिय राज्यों ने मुस्लिम सेना की विजय को ईसाई धर्म के लिए ख़तरे की तरह अनुभव किया क्योंकि जहाँ तहां मुस्लिम सेनाओं ने विजय पताका फहराई वहाँ वहाँ उनके धर्म और सभ्यता को समाप्त कर इस्लामिक जामा पहना दिया था। अतः यूरोपिय राज्यों ने उस धार्मिक उन्माद का ईसाई धर्म की रक्षा के जोश से मुक़ाबला किया। जिससे राजाओं के आपसी विवाद गौण हो गये और ईसाई धर्म की रक्षा के लिये उन्होंने ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू कर दिया। फ्रांस की सेना की विजय ने ईसाई धर्म पर से डिगते विश्वास को पुनः स्थापित करने का कार्य किया। जैसा ऊपर लिखा गया ईसाई इस खेल के पुराने खिलाड़ी थे। यही वह समय था जब इस्लामिक राज्य अर्न्तविरोधों से घिर गया। ख़लीफ़ा उस्मान जो (644-656) तीसरे ख़लीफ़ा थे, के समय मुसलमानों में पक्षपात और विरोध का स्वर मुखर हो गया। यह स्थिति बिगड़ते-बिगड़ते विस्फुटित हो गई। चौथे ख़लीफ़ा अली के समय मुबयिआओं ने इतना कड़ा विरोध किया कि इस्लाम का बँटवारा हो गया। 662 ई. में अली का वध कर दिया गया। अली के पुत्र हसन को ख़लीफ़ा के पद से हटा दिया गया। उमय्या ने ख़लीफ़ा के पद पर अधिकार कर लिया। मुबयिआ को उमय्या ने एक राजनैतिक दल के रूप में संगठित किया। इसने इस्लामिक संसार और धर्म को दो भाग सुन्नी और शियाओं में विभाजित कर दिया। ख़लीफ़ा की राजधानी मदीना से दमिश्क स्थान्तरित कर दी गई। उमय्या ख़लीफ़ाओं को आठवीं शताब्दी के मध्य में अब्बासी वंश ने पद से हटा दिया। उन्होंने शियाओं की सहायता से उम्मैयद वंश का खात्मा कर दिया। ख़लीफ़ाओं की राजधानी दमिश्क से उठाकर बगदाद पहुँचा दी। इस तरह जब फ्रांस की सेना ने इस्लामिक सेना पर पलटवार किया उस समय इस्लाम स्वयं झंझावतों से घिरा था उसके सामने अस्तित्व का संकट गहराया हुआ था। इस्लामिक सेनाओं को अरब से अपेक्षित सहायता प्राप्त न हो सकी और इस्लामिक सेनाओं को पूर्वी यूरोप से पीछे हटना पड़ा।

पूर्वी यूरोप में इस्लाम के न फैलने और इस्लामिक सेनाओं के हारने का कारण ईसाई संसार का इस्लामिक आक्रमण को धार्मिक, संकट के रूप में देखना और सामना करना था। क्योंकि ईसाई धर्म का प्रचार-प्रसार भी इसी तरह किया गया था। वह उनका मन्तव्य समझ गये थे। अतः उन्होंने धार्मिक प्रचार के उन्माद का धार्मिक जोश, धर्म पर आये ख़तरे को दूर करने के लिये जान की बाज़ी लगा कर सामना किया। दोनों तरफ़ धार्मिक उन्माद था जिसमें ख़लीफ़ाओं के आन्तरिक संघर्ष ने इस्लामिक सेनाओं की हार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक दूसरा प्रश्न भी इससे जुड़ा हुआ कि इस्लाम ने फिर दोबारा यूरोप की तरफ़ रुख़ क्यों नहीं किया? पूर्वी यूरोप की तुलना में मध्य एशिया में कज़ाकिस्तान, अस्तरखान, ट्रांसआक्सियाना, खुरासान, तुर्कीस्तान, बल्ख, बुखारा, खीवा तथा ईराक, सीरिया, अफ़्रीका, दक्षिण-पूर्व के द्वीप समूहों पर इस्लाम ने अधिकार करने में अपनी शक्ति का प्रयोग किया क्योंकि वहाँ की जलवायु योरप की तुलना में बेहतर थी। व्यापारिक मार्ग जो लाल सागर और हिन्द महासागर से होकर जाते थे उन पर तुर्कों का प्रभुत्व था। पूर्वी मध्यसागर से चीन की सीमा रेखा तक इनका साम्राज्य फैल गया। अतः व्यापारिक तौर पर सम्पन्न और उपजाऊ प्रदेश पर प्रभुत्व स्थापित करना अधिक लाभप्रद था। ग़ज़नी साम्राज्य के उत्थान के बाद उन्होंने भारत की ओर ध्यान दिया। विस्तार की संभावनाएँ अब दर्रों के माध्यम से ही सम्भव थी। अतः इस्लाम ने विस्तृत लाभप्रद क्षेत्र पर अधिकार करने में अपनी शक्ति का प्रयोग किया। यूरोप की राजनैतिक परिस्थितियाँ और राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया ने कुछ समय के लिए अंतराल पैदा कर दिया। 

मध्य एशिया में इस्लामिक साम्राज्यों के उत्थान पतन और विजयों की शृंखला में बगदाद के अब्बासी ख़लीफ़ाओं 870-900 ई. में पतन हो गया। सिंध में स्थापित मुस्लिम राज्य ने स्थिति का लाभ उठाते हुए ख़ुद की स्वतंत्र घोषित कर दिया। सिंध के अमीर याकूब-इब्र लैस की मृत्यु के बाद सिंध का मुस्लिम क्षेत्र मनसूरा (बहमनाबाद) तथा मुल्तान में विभाजित हो गया। ख़लीफ़ा की शक्ति के पतन के (900-1000) काल में मध्य एशिया में छोटे-छोटे राज्य अस्तित्व में आए जिसमें ग़ज़नी, सेल्जुग और ख्वारजमियन विशेष महत्त्वपूर्ण है। ग़ज़नी में समाजी वंश ने एक विशाल शक्तिशाली राज्य की स्थापना की और यहीं से साम्राज्य विस्तार की आकांक्षा ने इस्लामिक शासकों को भारत की उत्तर पश्चिम सीमाओं को आक्रान्त करने को प्रोत्साहित किया। युद्ध की बात पहले लिखी जा चुकी है। अब दूसरे प्रश्न की बारी है कि मुस्लिम आक्रान्ता क्यों भारत में बस गये, उन्हें भारत के बाहर क्यों नहीं खदेड़ा जा सका? 

इस प्रश्न का उत्तर भारत की तथा मध्य एशिया में अफगानिस्तान आदि की भौगोलिक दशा में निहित है। भारत के उत्तर पश्चिम में मध्यम दर्जे के पहाड़ हैं, जिनमें बहुत से दर्रें हैं जैसे, बोलन, खैबर, टोची, इत्यादि। इसके बाद भारत की जल संसाधनों से सिंचित भूमि है अफगानिस्तान में जलवायु तथा भौगोलिक दशा बहुत ख़राब है। पहाड़, रेगिस्तान, पानी की कमी इत्यादि के कारण जन-जीवन बहुत कठिन है। कहा जाता है कि ईश्वर ने संसार बनाने के बाद सारा कूड़ा-करकट वहाँ फेंक दिया था। ऐसे प्रदेशों से आने के बाद भारत की जलवायु, धन धान्य किसी स्वर्ग से कम न था। इसलिए आक्रान्ताओं के लिए इससे अच्छा देश नहीं था। अतः भारत ने सदैव आक्रान्ताओं को लुभाया। दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि पाषाण युग से 10वीं सदी तक भारत की सभ्यता संस्कृति उच्चतम सोपान पर पहुँच चुकी थी। उसका विकास हुआ था उसने किसी सभ्यता या धर्म को लीलने का काम नहीं किया था। एक महान परिष्कृत समाज वहशीपन के ख़ौफ़नाक तरीक़ों के लिये तैयार नहीं था। मुस्लिम आक्रांताओं ने प्रत्येक आक्रमण के समय दहशत, भय और आतंक फैलाने का काम किया। मुहम्मद ग़ौरी 16 आक्रमणों में मुँह की खाकर लौटा, परन्तु इन आक्रमणों में उसकी सेना ने घात लगा कर लूट, आतंक, लोगों को पकड़ कर बंदी बनाना, दास बनाने, ज़बरदस्ती मुसलमान बनाने के ऐसे कारनामे किए कि आक्रांता, भय और आतंक के पर्याय बन गए। वह जहाँ भी गये भयाक्रान्त करने के लिए मंदिरों को तोड़ा, क़त्लेआम किया। भारत में महमूद ग़ज़नवी तथा ग़ौरी जैसे मुस्लिम आक्रांताओं का सामना चार हज़ार वर्ष पुरानी सुसंस्कृत सभ्यता से हुआ था। इसमें महत्त्वपूर्ण ध्यान देने की बात यह है कि आक्रांताओं के वहशीपन से घबराकर भारतीय (बौद्ध, जैन व अन्य संप्रदायों ने) इस्लाम को स्वीकार नहीं किया। मुस्लिम शासन की स्थापना के बाद भी उन्हें अंतिम क्षण तक चुनौती दी। मुस्लिम आक्रांताओं के लिए यह अनहोनी घटना थी। क्योंकि इससे पहले इस्लाम ने तलवार के बल पर सारे मध्य एशिया व अन्य भागों के धर्मों को नेस्तनाबूद करके दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदल दिया था। भारत में ऐसा न होने से उन्होंने धार्मिक आस्था पर आघात पहुँचाया। भारतीय सेनाओं ने ग़ज़नवी के 17 तथा ग़ौरी के 17 आक्रमणों तथा साल में कई कई बार झुंड के झुंड आने वाले आक्रांताओं का सामना किया। शताब्दियों तक आक्रांता आक्रांत करते रहे। वर्तमान समय में इसे आतंकवादियों के द्वारा होने वाले बमकांड, आग़ज़नी, दहशत फैलाने के लिए राउंड दर राउंड भीड़ पर भरे बाज़ार में गोलियों की बौछार करना, कट्टे की नोक पर लुटेरों वहशियों द्वारा ट्रेनें, बस में लूटपाट करना, आग़ज़नी, बलात्कार और गोलियाँ दागते सुरक्षा एजेंसियों को धता बता कर निकल जाने में समझा जा सकता है। यह आतंकवादी संख्या में कम होते हुए भी संसार की श्रेष्ठतम ख़ुफ़िया एजेंसियों, रेड अलर्ट को निष्काम करते हुए अमेरिका के न्यूयार्क शहर के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर को उड़ा देते हैं। पेंटागन पर हमला कर देते हैं। इंग्लैंड में जहाँ-तहाँ बम फोड़ रहे हैं। भारत में कश्मीर तथा नक्सलवादी अन्य क्षेत्रों में आए दिन दहशत फैलाने और आतंक का साम्राज्य क़ायम करने का काम कर रहे हैं जिसने सामाजिक संगठन को चूर-चूर करके रख दिया। इंसान को ऐसा संवेदनाशून्य बना दिया है। कि आतंक के तांडव को देख कर भी सब अंधे, बहरे और गूँगे बने रहते हैं। चंद आतंकियों के हौसले दिन पर दिन परवान चढ़ रहे हैं। आतंकवादियों का यह खेल दशकों पुराना है जिसने आज उनका मक़सद पूरा कर दिया है। सब जगह अराजकता, अस्थिरता, दशहत और अकेलेपन का साम्राज्य है। ऐसे आत्मघाती आतंकवाद का सफ़ाया करने में आज विश्व की चुस्त दुरुस्त सुरक्षा एजेंसियाँ, हथियार सेना, क़ामयाब नहीं हो पा रही हैं, क्यों? क्योंकि आतंकवाद घात लगा कर बैठता है, अचानक हमला करता है। चालाक वहशी दरिंदा है। कुछ ऐसा ही वातावरण 400 वर्षों में भारत में पैदा किया गया होगा। सेनाएँ युद्ध क्षेत्र में शत्रु का मुक़ाबला करती रहीं। शत्रु हारने पर अथवा जीतने पर दशहत और भय फैलाता रहा। जिसमें भारतवासियों की हिम्मत और सेनाओं के हौसले की तारीफ़ करनी होगी कि वह निरंतन संघर्ष कर हर मोर्चे पर मुक़ाबला करते रहे। 

मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अपनी सेनाओं को प्रोत्साहित करने की लिए धार्मिक प्रवचन (तज़्किरा) दिए और उन्हें दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदलने के नेकोइमान के काम में क़ुर्बानी देने को कहा। भारतीयों ने तथा भारतीय सेनाओं ने शत्रु का मुक़ाबला देश की रक्षा के लिए किया न कि धर्म की रक्षा के लिए। उन्होंने हिंदू धर्म ख़तरे में, धर्म के लिए मरो या लड़ो का नारा नहीं दिया। अगर फ्रांस की तरह भारत में इस्लाम का आमना-सामना धार्मिक सेनाओं से होता तो शायद रुख़ दूसरा होता। यह संघर्ष एक तरफा था। भारत ने किसी धर्म या सभ्यता व संस्कृति को कुचल कर लोगों में भय, आतंक फैला कर अपने धर्म और संस्कृति का प्रचार नहीं किया था, वह वटवृक्ष की तरह बीज से वृक्ष बनी थी इसलिए धर्म परिवर्तन के वहशीपन का अंदाज़ा भी उसे नहीं था। उसके लिए धर्म आस्था व विश्वास की चीज़ थी। धर्म का सम्बन्ध आत्मा से था न कि तलवार से। इस्लाम में बदलने का तरीक़ा हिंदुओं के लिए सोच से परे था इसलिए वह ईसाइयों की तरह उनका मक़सद व तौर तरीक़ा न भाँप सके। आत्मबल और हिन्दू धर्म की पुख़्ता जड़ों पर विश्वास कर हिन्दू शत्रु का मुक़ाबला करते रहे। इतिहासकार एल्सट तथा गोतिए ने लिखा है कि इस्लाम को धर्म परिवर्तन कराने का एक तरीक़ा आता था वह था मौत का ख़ौफ़ पैदा करना अथवा नरसंहार या इस्लाम। भारत आकर उनका यह गणित बिगड़ गया। अहिंसा, धैर्य, शान्ति, आत्मबल, मानवता एक बार फिर हिंसा और विध्वंस से जीत गयी। भारत तलवार के ख़ौफ़ से बेख़ौफ़ जीत गया। इस दृष्टि से भारत के मंदिरों, मूर्तियों जो वाह्य आवरण था ध्वस्त हुआ लेकिन हिन्दू धर्म व सभ्यता के मूल्यों को अक्षुण्ण बने रहे। तुलसीदास जी ने क्या सही लिखा है, “सजल मूल जिन सरितन्ह नाहीं, बरस गये पुनि तबहीं सुखाई।”

मुस्लिम आक्रांताओं के आतंक को नकारने का तर्क

भारतीय इतिहास लेखन में 650 वर्षों के मुस्लिम शासन का आकलन करते समय सबसे पहले राजपूतों की पराजय के कारणों की विवेचना की गयी है। सन् 1920 में प्रोफ़ेसर हबीब ने मुख्यतः जिन कारणों को दोहराया है वह है राजपूतों का संगठित न होना, युद्ध प्रणाली का दोषपूर्ण होना। हिन्दू समाज में जाति प्रथा, छुआछूत तथा धार्मिक असहिष्णुता, बहुदेवी-देवतावाद, मंदिरों में धन का जमा होना तथा व्यभिचार आदि। हिन्दुओं को तलवार के बल पर इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य नहीं किया गया। यह सब शायद अलबरुनी की भारतीय समाज पर की गयी टिप्पणी पर आधारित है। इस आकलन में तैमूर, अहमद शाह अब्दाली, नादिरशाह के हाथों हारने के कारणों का विश्लेषण नहीं किया गया क्योंकि तब आक्रांता और सामना करने वाले एक ही धर्म के थे और आक्रांताओं ने जब भी दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदलने का नारा लगाया था। एक धर्म विशेष के आस्था के केंद्र तोड़ व जलाये थे। इतिहासकारों ने राजपूतों की पराजय के कारणों की व्याख्या करने से पूर्व यह स्पष्टीकरण कर दिया कि इस्लाम और मुस्लिम आक्रांता की अलग-अलग श्रेणियाँ हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों में उन्होंने ग़ज़नवी, तैमूर, नादिरशाह तथा अहमदशाह अब्दाली को रखा क्योंकि उन्होंने भारत में कोई सत्ता क़ायम नहीं की। मुहम्मद ग़ौरी जिसने 17 हमले किए, बाबर जिसने 1512 ई. से 1528 ई. अनेक बार भारत पर आक्रमण किए। सत्ता स्थापित कर लेने की सफलता के कारण आक्रांता के दोष से अलग श्रेणी में रख दिए गए। जबकि वह भी आक्रांता अथवा आक्रमणकारी थे। यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि क्या कोई देश, समाज आक्रांताओं, लुटेरों का स्वागत सत्कार कर अपनाता है जो कि भारतवासियों ने नहीं किया। रही बात भारतीयों की उदारता व सहिष्णुता की। बहशी दरिंदों, लुटरों हिंसकों, ख़ौफ़नाक आक्रमणकारियों का एक ही काम था लूटना, उनके लिये सहिष्णुता का कोई अर्थ नहीं था। दूसरी बात थी इस्लाम स्वीकार करो या मौत। उसमें उदारता जैसे उच्चतम मानवीय गुणों की गुंजाइश कहाँ थी? न ही आक्रमणकारियों के पास इसके लिये वक़्त था और न ही इसकी उन्हें अपेक्षा। तब कैसे उदारता और सहिष्णुता की बात होती। तब यह विश्लेषण कितना तर्क संगत है विचारणीय प्रश्न है? 

हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था तथा छुआछूत और असमानता की तुलना मुस्लिम समाज से करते हैं। विश्लेषकों ने जाने किन कारणों से इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया है कि मुस्लिम आक्रमणकारी विभिन्न क़बीलों जैसे सैयद, चगतई, करज़ई, युसफज़ाई, ससेनाई, अंसारी आदि में बँटे थे। उनकी स्वामिभक्ति अपने क़बीले के प्रति थी जिनमें निरंतर शक्ति के लिये मार-काट होती रहती थी। इसके अतिरिक्त उनमें तुर्की, इराकी, अफगानी, अरबी आदि अलग-अलग गुट थे। जिनमें एक दूसरे से श्रेष्ठता का (ऊँच–नीच का भेदभाव) भाव विद्यमान था। इनमें रोटी-बेटी तक का सम्बन्ध नहीं था। इस्लाम में कही जाने वाली समानता व भ्रातृत्व की बात केवल मस्जिद में जाने तक सीमित थी। इस श्रेष्ठता के दंश से भी ज़्यादा भयंकर उनकी सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें मुस्लिम दो भागों में बँटे थे स्वतंत्र और दास। परिवार के सदस्य ही अपने रिश्तेदारों को ग़ुलाम की तरह बेच देते थे। ये दास मालिक की सम्पत्ति थे। इनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। इसी कारण ग़ौरी का दास ऐबक मुस्लिम राज्य के संस्थापक होने अथवा प्रथम सुल्तान का गौरव नहीं पा सका, क्योंकि यह तय नहीं हो पाया कि उसे ग़ौरी ने दासता से मुक्त किया था या नहीं। मानवतावादी विचार (एम.ऐन. राय आदि) मुसलमानों में भाईचारे और समानता को उनके भारत विजय की श्रेय देते हैं। ऐसा करते समय इन ऐतिहासिक सच्चाई को कैसे अनदेखा कर देते हैं? पूरा सल्तनत काल का इतिहास तुर्की, खिलजी, अफगान, क़बीलों के सत्ता प्राप्त करने और आपसी षड़यंत्र कुचक्र, विद्रोहों, और नृशंसता से भरा पड़ा है। नए मुसलमानों से व्यवहार और उनका क़त्लेआम इसकी मिसाल है उसमें कौन सी समानता, भाईचारा या उदारता और सहिष्णुता दिखाई देती है। इसकी तुलना में भारत की जाति व्यवस्था के हर वर्ण का व्यक्ति अपने वर्ण में (चांडाल, डोम) स्वतंत्र था वह किसी की सम्पत्ति नहीं था। उसका अपना समाज, अपने संस्कार, यहाँ तक कि अपने इष्ट देव थे। वह अपने संस्कारों के लिए किसी दूसरे वर्ण पर आश्रित नहीं थे। इसीलिए शायद हिन्दू वर्ण व्यवस्था के निम्नतम श्रेणी के व्यक्ति की स्वेच्छया धर्म बदलने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई क्योंकि आने वाला समाज उसके सामाजिक मूल्यों से कहीं अधिक विभाजित ओर ऊँच–नीच में बँटा था। 

मंदिरों में जमा धन को लूटने के लिए बार-बार मंदिरों को ध्वस्त किया गया। इस तर्क के दो पक्ष है। पहले पक्ष में महमूद ग़ज़नवी, ग़ौरी, तैमूर, नादिरशाह आदि के द्वारा मंदिरों को तोड़ने और लूटने का कार्य। अगर यह मान भी लिया जाए कि उन्होंने मंदिरों में जमा धन को लूटने के लिए स्थापत्य कला के अद्भुत नमूनों को ध्वस्त कर दिया, जला दिया तब पुस्तकालयों को जला कर राख करने तथा साधारण गाँवों को जलाने का क्या औचित्य था? मुस्लिम शासन, मुग़ल सत्ता स्थापित होने के बाद वहमनी शासकों, टीपू सुल्तान, औरंगज़ेब, फिरोज़ शाह तुगलक आदि शासकों द्वारा मंदिरों को क्यों ध्वस्त किया गया, मूर्तियों को खंडित किया गया? शासन-मुसलमानों का था तब इसकी क्या आवश्यकता थी? उन्होंने क्यों बार-बार एक वर्ग विशेष के आस्था के केन्द्रों पर प्रहार कर मस्जिदों का निर्माण कराया? यह सब कारनामें ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के दारुब हरब पर दारुल इस्लाम की फ़तह के रूप में दर्ज है। तब से आज तक हिन्दू सह-अस्तित्व, उदारता, भाईचारे के नाम पर इन आस्था के मंदिरों के टूटने के दर्द को इसलिए सह रहे हैं, पत्रकार गोतिए ने लिखा है, “the Indian leadership, political and intellectual has made a willful and Conscious attempt to deny the genocide perpetrated by the Muslims” (पृ. 44) अर्थात् भारत के राजनैतिक बौद्धिक नेतृत्व ने जानबूझ कर एक वर्ग विशेष (हिन्दुओं) के ऊपर किये गए अत्याचारों को नकारने का कार्य किया है। उन्होंने आगे लिखा है कि एक अल्पसंख्यक वर्ग को संतुष्ट रखने के लिए “Negationism means that the Whole aspect of Indian history has been Totally erased, not only from history books, but also from the memory, from the Consciousness of Indian people.” भारतीय इतिहास की किताबों से हीं नहीं वरन् उनकी स्मृति और चेतना से ही इसे समाप्त करने का षड़यंत्र किया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि अगर तथ्यों को झुठलाया न जाता तो कोई प्रतिशोध की अग्नि जलाता था प्रतिशोध के लिए ऐसा करना चाहिए। न ऐसा लिखने का मन्तव्य प्रतिशोध की आग भड़काना है केवल सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत देना और इतिहास की भूलों को दोहराने से रोकना है। चौथे ख़लीफ़ा की हत्या के बाद हसन और हुसैन की याद में जो मातम साल दर साल मनाया जाता है; क्या उससे इतिहास को बदला जा सकता है, प्रतिवर्ष हिरोशिमा, नागाशाकी पर बम की वर्षगाँठ मनाने, डब्ल्यू.टी.ओ. त्रासदी की वर्षगाँठ अथवा नाज़ी नरसंहार की वर्षगाँठ मनाने में तत्कालीन इतिहास की घटनाओं को बदला जा सकता है और न इसके पीछे किसी का इरादा उन्हें बदलने का है परन्तु इसका अर्थ उस सबक़ को दोहराना व याद दिलाना है कि कोई फिर ऐसा काम करने का साहस न कर सके। इतिहास की पुनरावृत्ति को रोकना है। गोतिए लिखते हैं कि ऐसा न होने के कारण वह ग़लतियाँ निरंतर की जा रही है जैसे कश्मीर से 250, 000 हिन्दू पंडितों को उनके 500 साल पुराने प्रदेश से खदेड़ दिया गया और वह प्रयास जारी है। अफगानिस्तान से 50, 000 हिंदुस्तानियों को खदेड़ कर उनका पीछा किया गया। “We do not want to point a finger at Muslim atrocities yet they should not be denied and their mistakes should not be repeated today, but the real Question is Can Islam ever accept Hinduism?” अर्थात् मुस्लिम अत्याचारों पर अंगुलियाँ नहीं उठाना चाहते हैं लेकिन उन्हें नकारना भी नहीं चाहते हैं, और न ही यह चाहते हैं कि वह ख़ूनी वहशी खेल फिर खेला जाए और जो खेला जा रहा है वह बंद हो। एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या इस्लाम हिंदू धर्म को स्वीकार कर सकता है? क्या कभी किसी मुसलमान ने इन अत्याचारों के प्रति कभी कोई अफ़सोस प्रकट किया है? क्या वह कला के उत्कृष्ट नमूनों, ज्ञान भंडारों को जलाने, एक मानव जाति की विनाश लीला पर कभी शर्मसार हुए हैं? उन्होंने केवल इन्हें नकारने या उचित ठहराने जैसा कृत्य किया है। देवबंद विचारधारा, हबीब तर्क संगति तथा साम्यवादी विचारधारा ने पिछली दो तीन पीढ़ी से इस बात को पुख़्ता किया है कि, “As far as indoctrination goes, (Marxist) the youth of the west, particularly of the early sixties and seventies, we are groomed in sympathizing with good Arabs and bad Jews, and similarly in India, two or three young generations. Since the early twenties, were tutored negating Muslim genocide on the Hindus and denied it by replacing it instead with a conflict of classes.” अर्थात् साम्यवादी विचारधारा ने ज्यूस को बुरा और अरबों को अच्छा बता कर उनके साथ सहानुभूति पैदा की तथा भारत में मुस्लिम आक्रांताओं के द्वारा किये नरसंहार को वर्ग संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया। इतिहासकार हबीब ने इसका स्पष्टीकरण देते हुए लिखा कि मुस्लिम आक्रांताओं ने हिन्दू नरसंहार का वर्णन तत्कालीन इतिहासकारों ने इसलिए किया कि क्योंकि उन्होंने अनुभव किया कि उनके हमधर्मी अपना धार्मिक कर्तव्य पूरा कर रहे थे। “ . . . they who doing their duty, that killing, plundering, evolving and razing temples was Work of God.” (पृष्ठ 47) अल्लाह की मर्ज़ी से अल्लाह का काम कर रहे थे। इतिहासकार एल्सट ने लिखा है कि मुस्लिम धर्मान्ध आक्रांता क़ुरान के आदेश का पालन कर रहे थे। इसलिए मुसलमान नहीं वरन् इस्लाम ने उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। 

इसी संदर्भ में क्या इस्लाम सर्वधर्म, समभाव सेक्युलरिज़्म, उदारता, धार्मिक सहिष्णुता के लिए हिंदू धर्म को स्वीकार कर सकता है? सम्मान दे सकता है? यह एक गंभीर प्रश्न है। अब तक अंगुलियाँ हिन्दू धर्म पर मुसलमानों के तुष्टिकरण के लिए उठाई जाती रही हैं अब इस प्रश्न का उत्तर देने का समय आ गया है। इसका विश्लेषण गहराई से करना चाहिए। हिन्दू दर्शन के अनुसार ईश्वर एक है परन्तु वह विभिन्न रूपों से प्रभावित है। हिन्दू धर्म की सहअस्तित्व और उदारता है कि वह न केवल स्वीकार करता है पर इसका सम्मान करता है कि मोहम्मद साहब, ईसामसीह तथा अन्य पैग़म्बर उसी परमात्मा के अंश है, रूप है, उनके द्वारा प्रकाशित हैं और उसी तरह हिन्दू राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर इत्यादि। लेकिन इस्लाम व ईसाई इस तर्क को स्वीकार नहीं करते। उनका मानना है कि केवल एक ही ईश्वर है (अल्लाह अथवा गॉड) और बाक़ी सब मूर्तियाँ, ईश्वर बेकार हैं। अंधकार में पड़े लोगों को दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदलने का पवित्र (हलाल) कार्य किया। हिन्दुओं को पगान इस्लाम में विश्वास न करने वाले, अल्लाह को न मानने वालों के रूप में परिभाषित किया। पगान श्रेणी बनाते ही इस्लाम और ईसाई धर्म एक अहले किताब (कुरान तथा बाइबिल) की श्रेणी में आ गए। ईसाई धर्म के विरुद्ध जो तलवारें म्यान से बाहर आई थीं, म्यान में चली गयीं, परन्तु उनका दर्शन कहता है, “This philosophy, this way of seeing, which the Christians and Muslims Call, impious, is actually the foundation for a true monotheist understanding of the world॥t is because of this '। f you do not recognize Allah (or Christ), will kill you.” (पृष्ठ 49) अर्थात् वास्तविक एकेश्वरवादी संसार की नींव यही है कि पूरे विश्व को एक धर्म में बदलना और यदि उस धर्म को (अल्लाह मोहम्मद अथवा ईसाई) को स्वीकार नहीं करोगे तो जीने का अधिकार छीन लेंगे। इसी दर्शन के अनुसार इस्लाम के संवाहकों ने लाखों लाख हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया और ईसाई अमेरिका के मूल निवासियों को लील गये। सबसे दुखद बात यह है कि आज भी उनका यह जज़्बा बरक़रार है और अल्पसंख्ंयक तुष्टीकरण तथा बुराइयों का औचित्य ठहराने, इन पर अंकुश लगाने या इतिहास को न दोहराने का सबक़ सिखाने के स्थान पर इस्लामिक दर्शन दारुल हरब को दारुल इस्लाम में बदलने का बढ़ावा दिया है। 

यह सब लिखने का उद्देश्य प्रतिशोध जगाना या भूत को दोहराना नहीं वरन् सत्य को तथ्यात्मक रूप से स्वीकार कर इतिहास से सबक़ सीखने से है। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2022/04/30 03:04 PM

बहुत रोमांचक बहुत प्रभावशाली आंखें खोलने वाला लेख आपको इस लिस्ट के लिए अनेक साधुवाद

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