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मीडिया के जन अदालत की ओर बढ़ते क़दम 

 

भारत में समाचार पत्रों-पत्रिकाओं का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में जनकल्याण के उद्देश्य से हुआ था। जनता को जानकारी उपलब्ध कराना इसकी महत्त्वपूर्ण प्रतिबद्धता थी। अंग्रेज़ी शासन में सरकार ने जनता को अपनी काली करतूतों से अनभिज्ञ रखने के लिए समाचार पत्रों-पत्रिकाओं पर तरह तरह के प्रतिबंध लगाए थे। उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता को कुचलने के लिए दंडनात्मक क़ानून बनाए। परन्तु एक बार जो समाचार पत्रों-पत्रिकाओं  का प्रचलन हुआ अंग्रेज़ी सरकार की पूरी ताक़त भी उसे समाप्त नहीं कर सकी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं ने अंग्रेज़ी सरकार को समाप्त करने में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

स्वतंत्रता के बाद समाचार पत्रों-पत्रिकाओं का उद्देश्य जिसके लिए वह प्रारम्भ हुए थे, पूरा हो गया। स्वतंत्रता के बाद समाचार पत्र-पत्रिका जगत ने कोई नया उद्देश्य निर्धारित नहीं किया। अतः सैंतालिस के बाद समाचार पत्र-पत्रिकाएँ भारत पाकिस्तान विभाजन तथा विभाजन से उत्पन्न दंगों के ख़ून से रंगी रहीं। दंगों का ख़ून जब थक्का बन धूल से ढकने लगा तो समाचार पत्रों-पत्रिकाओं ने नेहरू सरकार की डोर थाम ली। राष्ट्रीय विकास पंचशील, पंचवर्षीय योजनाएँ, गाँधी-नेहरू का गुणगान उसका मुख्य विषय बन गया। आकाशवाणी टेलिविज़न सरकारी ज़ुबान बोलने लगे, जन कल्याण कहीं बहुत पीछे छूट गया। बीसवीं सदी के अंतिम दौर में जब प्राइवेटाइजेशन का दौर आया तो समाचार पत्रों-पत्रिकाओं और मीडिया पर भी उसका प्रभाव पड़ा। घर घर तक टीवी तथा संचार साधन पहुँचाने की घोषणा ने दूर-दराज के गाँवों तक टेलीविज़न, टेलीफोन आदि पहुँचा दिए। मोबाइल संचार ने भारतीय जनता को मोबाइल बना दिया। 

इन प्राइवेट चैनलों ने राष्ट्रीय प्रसारण की लोकप्रियता पर ऐसा कुठाराघात किया कि वो अलोकप्रियता के कुहासे से ढक गए। इन प्राइवेट चैनलों ने जो कुछ दिखाना शुरू किया उस से भारतीय सभ्यता, संस्कृति व भाषा, साहित्य, ज्ञान, कला सब मर्माहित हो गईं। एक पंगु, अस्वस्थ समाज, बीमार राजनीति, लचर-परन्तु भ्रष्ट सरकार, नाकारा पुलिस की ऐसी छवि उभरी कि पूरा देश मानसिक बीमारियों से ग्रस्त दिखा। हत्या, बलात्कार, दहेज़ हत्या, तस्करी, अंगों की ख़रीद-फ़रोख़्त, आतंकवादियों की करतूतों को दिखाने में चैनलों के लिए 24 घंटे कम पड़ गए। विकास, जन कल्याण की सुध लेने के लिए एक पल भी न मिला, न बचा। 

अदालत में मामलों के अंबार लग गए। पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करके मामले की तफ़तीश के दशकों तक चलने वाले केसों से उकता कर, रिपोर्ट दर्ज करना ही बंद कर दिया, और सबूत मिटाने में अपराधियों की हमजोली बन गई। 

इक्कीसवीं सदी के साथ प्राइवेट चैनलों को अपराध कांडों के वीडियो टेप दिखाने की लाठी थमा दी। डीएनए टेस्ट, सीबीआई इंक्वायरी आदि शस्त्रों से लैस होकर मीडिया ने देश में कहाँ क्या घट रहा है दिखाना शुरू कर दिया। जिसने एक नई दिशा दिखाई, जुर्म की वीडियो टेप टीवी चैनलों की मुख्य विषय बन गए। एसएमएस के द्वारा जनता की राय माँगना, और किसी घटना पर उसके आँकड़े मिनटों में ही चैनल दिखाने लगे। इस प्रक्रिया ने जनता को प्रसारण से जोड़ दिया। चैनल मात्र समाचार प्रसारण तक ही सीमित न रही वरन्‌ दोषी को सज़ा और वादी को न्याय दिलाने की पहल करने लगी। इस तरह मीडिया ने जनता की आवाज़ को न्यायाधीशों के कानों, संसद, विधान सभा तथा राजनीति के गलियारों में पहुँचाकर धमाल मचाना शुरू कर दिया। आँखों देखी, दूध का दूध, पानी का पानी, न्याय की तराज़ू, जैसे एपिसोड, अदालत के न्यायधीशों, संसद पर दबाव बनाने लगे। अफ़ज़ल गुरु को फाँसी की सज़ा, जेसिका लाल मुक़द्दमा, शिबू सोरेन को जेल, अमर मणि त्रिपाठी को सलाखों के पीछे डलवाना, कविता हत्या अथवा लापता, घटना की तफ़्तीश, बम्बई आतंक काण्ड का कसाब का मंदिर बनाना, मूर्ति बना कर पूजना आदि मामले इसका ही परिणाम हैं। दूसरी तरफ़ अमिताभ बच्चन द्वारा कर न जमा करने पर अमिताभ के पक्ष में जन समर्थन जुटाने का कार्य भी इन्हीं चैनलों के प्रसारण का है। यह चैनल फ़िल्मी हीरो को उनके अपराधों से मुक्त कराने के लिए उनकी फ़िल्मी इमेज का प्रयोग कर जनता की भावनाएँ उभारने लगे। यही दशा कमोबेश दलित, अल्पसंख्यक तथा आतंकवादियों के प्रति इन प्रसारणों की है। 

जहाँ तक जनता का प्रश्न है उसे केवल घटना की जानकारी घटना घटित होने के बहुत समय बाद मिलती है। वह घटना से आहत हो सकती है, सड़क जाम, चक्का जाम, सरकारी प्रॉपर्टी को नुक़सान पहुँचाकर, पुलिस से दो-दो हाथ करके कुछ और निर्दोषों को ज़ख़्मी करवा सकती है, तथा कुछ की मौत का कारण बन जाती है, परन्तु घटना से जुड़े सारे तथ्यों से अनभिज्ञ रहने के कारण किसी निर्णय को कोई ठोस आधार नहीं दी पाती। जनता की संज्ञाशून्यता, अनभिज्ञता आतंकवादियों, अपराधियों को ठोस ज़मीन प्रदान कर देती है। वह जनता के महानायक—खलनायक बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में न्यायिक प्रक्रिया को इससे कोई विशेष लाभ नहीं मिल पाता। वरन्‌ मुक़द्दमें और उलझते ही जाते हैं। एक अपराध के मुक़द्दमे के साथ कई और फ़ौजदारी के मामले और इस जुड़ जाते हैं। न्याय की अपनी प्रक्रिया है, और मुक़द्दमों का निपटारा साक्ष्यों के आधार पर होता है, भावनाओं के आधार पर नहीं। इलेक्ट्रोनिक मीडिया तथा प्रिंट मीडिया को इस तथ्य को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए। फ़िलहाल तो वह समाज में अपराध के गटर का ढक्कन हटाकर सर्वत्र सड़ांध फैलाने का कार्य कर रहा है, जिससे जनमानस से अपराध बोध समाप्त हो गया और अपराध करने में शान अनुभव कर लोगों से अवैध वसूली, बदसुलूकी कर रहे हैं। अंगुली उठाने पर, “हमाम में सभी नंगे” कहकर नंगई पे उतर आते हैं। इन सब से एक ऐसी तस्वीर बनी है कि भारत अपराध, आतंक, तस्करी, गाली-गलौज आदि विकृतियों के रंगों से रँगा है। अतः एक स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न होती है की क्या देश में कुछ भी ऐसा स्वस्थ घटित नहीं हो रहा है, जिसे मीडिया दिखा सकें? 

प्रत्येक समाचार पहली बार ताज़ा दूसरी बार बासी और तीसरी बार सड़ जाता है। प्रत्येक नया समाचार पुराने समाचार को रद्दी के हवाले कर देता है। जिसने कारण प्राइवेट चैनलों में एक अन्य प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया है—कि कीचड़ को सबसे पहले किसने उछाला! इसके छींटे किस-किस के दामन पर पड़े? इस दमघोंटू प्रतिस्पर्धा ने कोई ठोस कार्य करने अथवा परिवर्तन करने या नई दिशा देने की पहल नहीं कर सकी। वह अंग्रेज़ी समाचार पत्रों-पत्रिकाओं को शुरू करने वाले हिक्की व बोल्ट की उत्तराधिकारी बन गई। यह दमघोंटू प्रतिस्पर्धा इस क़दर बढ़ गई है कि उसने सत्य को सत्य झूठ को झूठ कहने से भी परहेज़ बरतना शुरू कर दिया। वह केवल अपने हित में झूठ का सच, आनाचार, अत्याचार, बलात्कार आदि की घटनाओं को नमक-मिर्च लगा कर चटपटी चाट-सा परोसने लगी। 

मीडिया व चैनल का मुख्य उद्देश्य केवल टीआरपी बढ़ाना है, वह समाज सुधारक या साधु संयासी, धर्मिक प्रवचन कर्ता नहीं है। इसके लिये संस्कार, आस्था चैनल, प्रवचन चैनल आदि हैं। उनका मानना है कि विकास के, अच्छे कामों को देखने में जनता की रुचि नहीं है। वो वही दिखा रहे हैं, जो जनता देखना चाहती है। सिर्फ़ दुर्घटनाएँ ही देखना चाहती है, वह केवल सेक्स कांड ही देखना चाहती है, मारपीट, दंगा, लड़ाई देखने में ही उसकी रुचि है। उसी से उनका टीआरपी बढ़ता है जिस पर चैनलों का धंधा टिका है, और पत्रकारों की नौकरी व रोजी-रोटी। 

वर्तमान इलेक्ट्रॉनिक मीडिया व प्रिंट मीडिया के हाथ ईडी और घोटाले लग गए हैं। सभी चैनल उनका पर्दाफ़ाश करने, नोटों की गिनती, नोटों का अम्बार दिखा कर जनता को भरमा रहे हैं, परन्तु कभी इस पर एक शब्द भी नहीं बोलते इतना-इतना पकड़ा गया काला धन कहाँ गया। उसे भ्रष्टाचार ने कैसे हज़म किया। गुंडों के डराने-धमकाने के कारनामें इस तरह दिखाते हैं कि नेक व्यक्ति भी गुंडा बनना पसंद करने लगे। समरथ को नहीं दोष गुसाईं की तर्ज़ पर सब गुंडा बन दबदबा बना राजनीति में उतर रहे हैं। 

प्रिंट मीडिया भी व्यंग्य या कहानी, लेखों में चोरी करने, कर देने से बचने, बलात्कारी को महिमा मंडित कर रहे हैं। स्कूल का उद्दंड साथी नेता बन, जब मंत्री पद सम्हालता है तो कक्षा का सबसे मेधावी छात्र आई ए एस बन तथाकथित मंत्री के सामने हाथ बाँधे खड़ा होता है। यह दशा अच्छे-अच्छों को पढ़ाई से विमुख कर देने के लिया पर्याप्त है। 

बालकों के खेलों में आए बदलाव में इसे देखा जा सकता है। सदियों से चले आ रहे चोर-सिपाही के खेल में अब सब चोर बनना चाहते हैं सिपाही नहीं। बचपन से ही सबको डराने धमकाने के लिए ख़ुद को खलनायक की तरह पेश करते हैं। चोरी-चकारी, जुआ-शराब, लड़कियों को छेड़ना, उनको अगवाह कर वीडियो बना कर वायरल करना आदि निकृष्ट, अनैतिक कामों को दंबगई से कर रहे हैं। मीडिया को भी इनका पक्ष लेते कई बार देखा जा सकता है। 

 आज मीडिया अनैतिकता, अनाचार का पक्षधर और मानवीय गुणों का संहारकर्ता दिखाई देता है। 

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