मृत्यु उपरांत व्यक्ति का दर्शन
संस्मरण | आप-बीती डॉ. उषा रानी बंसल15 Jun 2021 (अंक: 183, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
किसी बड़े संत की कथा सुन रही थी। उन्होंने बताया कि प्राण, पूर्वज, दिवंगत, देवता सूक्ष्म रूप में रहते हैं जिनका हम अपनी श्रद्धा से आह्वान व विसर्जन करते हैं जैसे पूजा में सुपारी में गजदंत विनायक का आह्वान, विभिन्न देवी देवताओं का आह्वान व पूजा के बाद पितरों, देवों का विनम्रतापूर्वक अपने अपने लोकों में स्थापित होने का निवेदन। मन में अचानक विचार कौंधा कि क्या हम अपनी श्रद्धा से किसी दिवंगत के भी दर्शन कर सकते हैं, या करा सकते हैं। यह विचार करते-करते मुझे जून १९८७ की एक घटना याद आ गई।
मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला महाविद्यालय में प्रवक्ता थी। गर्मी की छुट्टियों में हम देहली-ग़ाज़ियाबाद अपने परिवार से मिलने गये। लौटते समय हमारी दीदी भी, संतोष गोयल हमारे साथ बनारस आईं थीं। उस समय हम का० हि० वि० वि॰ की हैदराबाद निज़ाम कॉलोनी में रहते थे। जिसको जामुन लाईन कहा जाता था। उसकी सड़क के दोनों तरफ़ जामुन के पेड़ थे। जो घर हमें रहने को मिला था, उसमें कार गैराज नहीं था। अत: हैदराबाद गेट के पास एफ़ क्वार्टर का गैराज हमें दे दिया गया। हमने नई-नई मारुति ८०० ली थी। थोड़ा बहुत कार चलाना मुझे भी आता था। जून की शाम को मैं दीदी को लेकर कार गैराज में रखने गई। यहाँ यह बताना ठीक रहेगा कि उस घर में हम सालभर रह चुके थे। जिसके दाहिने तरफ़ इंग्लिश के प्रोफ़ेसर महरोत्रा रहते थे और बाईं तरफ़ प्रोफ़ेसर चक्रवर्ती, जो आईआटी में अंग्रेज़ी की क्लास लेते थे।
घटना का सूत्र आगे बढ़ाते हैं, जब हम कार गैराज में रख कर लौट रहे थे तो देखा कि चक्रवर्ती साहब के घर में किसी समारोह के बाद, जैसे सामान समेटा जा रहा था। मैं दीदी को बताने लगी कि दीदी इसमें जो इंग्लिश के प्रोफ़ेसर रहते हैं उन्होंने, इनको (मेरे पति) भी पढ़ाया था। यह बहुत अच्छे टीचर माने जाते हैं। हमारी बेटी नीलू को कुछ आवश्यकता थी, तो आपने सहायता की थी। पता नहीं इनके यहाँ क्या उत्सव है? इनका हमारे यहाँ उत्सवों में आना-जाना है। पर शायद हम यहाँ नहीं थे इसलिये नहीं बुलाया होगा। हम दोनों का मुँह उनके घर के मुख्य द्वार की ओर था। तभी क्या देखती हूँ कि प्रोफ़ेसर साहब बंगाली स्टाइल में झक सफ़ेद कुर्ता-धोती पहने काँधे पर शाल डाले खड़े मुस्कुरा रहें हैं। मैंने कहा, “देखो, देखो वह रहे प्रोफ़ेसर साहब“। कितनी सौम्य व तेजस्वी थी, वह छवि। दीदी कहने लगी कि इनका व्यक्तित्व कितना आकर्षक है। हम दोनों उनकी बात करते-करते जामुन लाइन पहुँच गये।
बात आई गई हो गई। गर्मी की छुट्टियों के बाद जब विश्वविद्यालय खुला, तो कॉलिज जाना शुरू हो गया। एक दिन स्टाफ़ रूम में इंग्लिश की सहयोगी अध्यापिका से मुलाक़ात हो गई। जाने कैसे यह चर्चा भी बातों में आई कि डॉ. चक्रवर्ती के यहाँ जून में कोई उत्सव था? उन्होंने बहुत आश्चर्य से कहा कि क्या तुम्हें नहीं पता कि वह नहीं रहे। जिस दिन की आप बात कर रही हो उस दिन तेरहवाँ था। मुझे एकाएक विश्वास नहीं हुआ। यह कैसे हो सकता था? मैंने देखा ही नहीं अपनी बहन को भी दिखाया था। वह अपने घर के मुख्य द्वार पर शांत मुद्रा में खड़ा देखा था।
जब घर आ कर दीदी को यह सब बताया तो वह भी आश्चर्य में पड़ गईं। हमने तो उन्हें देखा था, तुमने मुझे दिखाया था।
प्रश्न: इसका उत्तर सब खोज रहे हैं कि क्या हम तीव्र इच्छा व श्रद्धा से कुछ क्षण के लिये किसी के दर्शन कर सकते हैं? या हम अपने भ्रम से किसी दिवंगत को ऐसा मूर्त रूप दे सकते हैं ?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
अभी नहीं 1- जाको राखे साईंयाँ, मार सके न कोए
आप-बीती | विजय विक्रान्तजीवन की कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो अपनी…
टिप्पणियाँ
मधु 2021/06/15 04:17 PM
उषा जी, आपका अनुभव संभवत: सही हो। कहीं वह प्रोफ़ेसर साहब के जुड़वा या मिलती-जुलती शक्ल वाले भाई तो नहीं थे? हमारे एक परिचित को भी यूँही लगा था परन्तु बाद में मालूम हुआ कि स्वर्गवासी के छोटे भाई देखने में बिल्कुल उन्हीं की तरह थे।
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
- कुछ अनुभव कुछ यादें—स्लीप ओवर
- दरिद्रता वरदान या अभिशाप
- पूरब और पश्चिम में शिक्षक का महत्त्व
- भारतीय नारी की सहभागिता का चित्रांकन!
- मीडिया के जन अदालत की ओर बढ़ते क़दम
- वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र में धर्म
- सनातन धर्म शास्त्रों में स्त्री की पहचान का प्रश्न?
- समान नागरिक संहिता (ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में)
कविता
- आई बासंती बयार सखी
- आज के शहर और कल के गाँव
- आशा का सूरज
- इनके बाद
- उम्मीद का सूरज
- उलझनें ही उलझनें
- उसकी हँसी
- ऊँचा उठना
- कृष्ण जन्मोत्सव
- चित्र बनाना मेरा शौक़ है
- जाने समय कब बदलेगा
- प्रिय के प्रति
- बिम्ब
- बे मौसम बरसात
- भारत के लोगों को क्या चाहिये
- मैं और मेरी चाय
- मैसेज और हिन्दी का महल
- राम ही राम
- लहरें
- लुका छिपी पक्षियों के साथ
- वह
- वक़्त
- संतान / बच्चे
- समय का क्या कहिये
- स्वागत
- हादसे के बाद
- होने न होने का अंतर?
- होरी है……
- ज़िंदगी के पड़ाव ऐसे भी
ऐतिहासिक
- 1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय
- 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग
- औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति
- पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन?
- भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का एक दूसरा पक्ष
- शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .
- सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में
- सोलहवीं सदी: इंग्लैंड में नारी
- स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
- इक्कसवीं सदी में कछुए और ख़रगोश की दौड़
- कलिकाल में सावित्री व सत्यवान
- क्या तुम मेरी माँ हो?
- जब मज़ाक़ बन गया अपराध
- तलवार नहीं ढाल चाहिए
- नये ज़माने में लोमड़ी और कौवा
- भेड़िया आया २१वीं सदी में
- मुल्ला नसीरुद्दीन और बेचारा पर्यटक
- राजा प्रताप भानु की रावण बनने की कथा
- रोटी क्या है?: एक क़िस्सा मुल्ला नसीरुद्दीन का
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
पाण्डेय सरिता 2021/06/21 10:45 PM
कुछ भी संभव है इस संसार में