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अरे बनारस तो गाँव है! 

 

हमारी बिटिया नीलू (प्रतिमा) जब छोटी थी तो स्कूल में जब छुट्टियाँ होतीं तो घर आ कर बताती कि मेरी सहेली गाँव जा रही है। फिर मेरी वो मित्र भी गाँव जायेगी। इस तरह दशहरे-दिवाली, गर्मी की छुट्टियों में यह चर्चा चलती रहती, “मम्मी हमारा गाँव कहाँ है? हम कब गाँव जायेंगे?” हम उसे समझाते कि तुम्हारी ननिहाल गाजियाबाद है, बाबा-दादी मथुरा रहते हैं और बड़ी बुआ दिल्ली। तो हमारा वही गाँव है। 

उसकी सहेलियाँ जब उससे पूछतीं तो वह कह देती कि हम दिल्ली जायेंगे, मथुरा या गाजियाबाद जायेंगे। उसकी मित्र उसका मज़ाक़ बनाते कहती कि हट पगली वो गाँव नही हैं, बड़े शहर हैं। 

वह घर आकर फिर पूछती। उसे अब क्या बतायें कहते कि हमारा गाँव वही पर है। 

इसके बाद नीलू के पापा पीएच.डी. करने आईआई टी देहली चले गए। हम सब भी देहली चले गये। 

वहाँ वह पहले महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल में फिर आईआईटी के सेंट्रल स्कूल में पढ़ने लगी। अपनी पढ़ाई पूरी कर हम सब वापस बनारस आ गए। वहाँ अस्सी की किसी गली में रहने के लिए किराए का घर लिया। उस समय ऑटो रिक्शा सड़क पर नहीं दौड़ते थे। रिक्शा से ही आना-जाना होता था। एक दिन रिक्शा से हम कहीं से लौटे तो वो बहुत उदास थी। हमने पूछा, “तुम उदास लग रही हो, क्या बात है ?”

कुछ रुआँसी सी बोली कि “मैं समझती थी बनारस शहर है, पर यह तो गाँव निकला!”

हमने पूछा, “कैसे और क्यों?”

वह भोला सा मुँह बना घर बोली, “यहाँ तो रिक्शा चलती है।”

हमारी हँसी छूट गई। 

बच्चों की धारणाएँ व परिकल्पनाएँ (perceptions) कैसी-कैसी होती हैं! 

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