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गुरु द्रोणाचार्य का दर्द

महाभारत भारतीय संस्कृति का उत्तम ग्रंथ है जिसे वेदव्यास जी ने लिखा था। महाभारत के पात्रों में भीष्म पितामह, कौरवों में दुर्योधन, सगे सम्बन्धियों में शकुनि मामा विशेष स्थान रखते हैं। ये पात्र महाभारत युग के अन्तिम चरण में भारतीय संस्कृति के मूर्तिमान रूप हैं। राजा शांतनु का माझीराज की पुत्री सत्यवती पर आसक्ति तथा उसके मोहपाश में जकड़ कर राज्य के हित-अनहित का विस्मरण इसकी प्रथम घटना है। सर्वगुण सम्पन्न युवराज गंगापुत्र देवव्रत (भीष्म) का पिता की वासना हेतु अपने यौवन व गृहस्थ आश्रम की तिलांजलि को एक सम्राट द्वारा स्वीकार करना इसका दूसरा सोपान था। ऐसा राजा जो अपने सुख के लिये अपने पुत्र के सुख का बलिदान स्वीकार करें वह प्रजा सुख या जनहित को कैसे वरीयता दे सकता था। जिस राजा का ख़ुद पर नियंत्रण नहीं था, जो विषयवासना का दास हो गया था। वह प्रजावत्सलता के गुण से रिक्त हो गया। अतः इस समय राजाओं की प्रजा वत्सलता का अध्याय समाप्त हो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं, स्वार्थ तथा अन्ध प्रतिस्पर्द्धा और प्रतिशोध का नया अध्याय प्रारंभ हो गया।

शिक्षा जो किसी संस्कृति का आधार होती है। वह इस स्वार्थपरता की दौड़ में उपेक्षित हो विपन्न हो गई। भारत में उस युग में गुरुकुल (आवासीय विश्वविद्यालयों) का कार्य करते थे। विद्यार्थी निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरुकुल का आर्थिक पक्ष राजा धनाढ्य व सम्पन्न व्यक्ति की आर्थिक सहायता से पुष्ट होता था। विद्यार्थी गुरुकुल में स्वःसहायता (self-help) के आधार पर आश्रम के विभिन्न कार्यों में स्वेच्छया भाग लेकर जीवन के विभिन्न पक्षों का ज्ञान प्राप्त करते हुए जीवन जीने की कला सीखते थे। गुरु शिष्य को नया रूप प्रदान करने, गुणों और प्रतिभाओं को निखारने का कार्य करते थे। ऐसे आचार्य कुलों में शिष्य दूसरा जन्म पाकर द्विज कहलाते थे। तभी गुरु माँ-पिता तथा प्रभु से श्रेष्ठ वंदनीय माना जाता था। कबीर ने ऐसे आचार्य-गुरु के लिये लिखा था, “गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पायँ। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय॥” इस श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था में व्यास राजा शांतनु के समय से होना प्रारंभ हो जाता है। गुरु द्रोणाचार्य में वह साकार रूप में परिलक्षित होता है। गुरुकुलों की आर्थिक विपन्नता इस हद तक बढ़ गई थी कि आचार्यों के लिए स्वयं के भरण-पोषण व गुरुकुल का लालन-पालन करना कठिन हो गया। भरद्वाज जैसे ऋषि के पुत्र द्रोणाचार्य थे। उन्होंने धनुर्विद्या के सुप्रसिद्ध आचार्य अग्निवेश से धनुर्विद्या ग्रहण की थी। द्रोणाचार्य के आश्रम में धनाभाव का प्रमाण वह घटना है जिसमें गुरुवर गाय के दूध के अभाव में अपने पुत्र अश्वत्थामा को आटा घोलकर पिलवाते हैं। यह मात्र संयोग नहीं था, वरन् गुरुकुलों की आर्थिक दुर्दशा का दृष्टांत है।

व्यथित द्रोणाचार्य अर्थ प्राप्ति, संसाधन जुटाने के उद्देश्य से अपने बचपन के सहपाठी मित्र पांचाल नरेश द्रुपद के यहाँ गये। द्रुपद ने धन देने (गाय) से ही इन्कार नहीं किया, वरन् द्रोणाचार्य की विपन्नता का उपहास किया। द्रोणाचार्य का यह कहकर अपमान किया कि मित्रता बराबर वालों में होती है। इस तरह गुरु पद की प्रतिष्ठा राजा व समाज में किस स्तर को पहुँच गई थी, ये इसका परिचायक है। आचार्य और गुरु जो राज्य, भौतिक संसाधनों, सम्पन्नता से ऊपर श्रद्धेय व राजा से श्रेष्ठ माने जाते थे। वह न केवल राजकीय सहायता वरन् सामाजिक प्रतिष्ठा भी खो बैठे। गुरु की प्रस्थिति संदिग्ध हो गई। इसका सीधा प्रभाव शिक्षा पर पड़ा। शिक्षा जो अब तक सामाजिक, राजनीतिक प्रतिबंधों व स्तरीकरण से स्वतंत्र थी। वह प्रतिबंधित होने लगी। आर्चाय द्रोणाचार्य का विवश हो आजीविका के लिये शिक्षा को साधन रूप में स्वीकार करना इस परिवर्तन का सोपान है। शिक्षा के नये अध्याय के प्रथम पृष्ठ में विद्या दान के उच्च आसन से स्खलित हो आजीविका का साधन बन गई। द्रोणाचार्य का हस्तिनापुर के युवराजों को धर्नुधर बनाने का दायित्व इसी का परिचायक था। कहना अनुचित न होगा कि महाभारत में द्रोणाचार्य प्रसंग शिक्षा के अवमूल्यन, अनैतिकरण की प्रक्रिया तथा आचार्यों की समाज में प्रस्थिति में गिरावट का अंश है।

राजकुँवरों को गुरुकुल के उन्मुक्त वातावरण के खुले प्रांगण में धनुर्विद्या सामान्य प्रतिस्पर्द्धियों के साथ न सिखा कर राजकीय प्रयोगशालाओं के विशेष वातावरण में राजकीय सुख सुविधाओं में सीमित प्रतिस्पर्द्धियों के बीच श्रेष्ठ धनुर्धर बनने की शिक्षा देना इसी का प्रतिफल था। इस संदर्भ में मुझे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शिक्षा का वह पक्ष याद आता है जिसमें राजा, नवाबों के पुत्रों को शिक्षित करने के लिये पृथक प्रिंसेस कॉलेज खोले गये थे। युरोपियों व अँग्रेज़ों के लिये अलग शिक्षण संस्थायें थीं। युवराज व शासक वर्ग के बच्चे साधारण प्रजा के साथ शिक्षा नहीं प्राप्त कर सकते थे। यह उनके स्तर व शान के विरुद्ध था। तत्कालीन यूरोप और इंग्लैण्ड में भी कुलीन तथा सभ्रांत परिवार के बालकों के लिये पृथक-पृथक शिक्षण संस्थायें थीं, जिनमें शिक्षा तथा राज्योचित व्यवहार की शिक्षा दी जाती थी। रुड़की ओवरसियर कॉलेज अंग्रेज़ों ने स्थापित किया था, वहाँ पर ब्रेकफ़ास्ट, लंच, डिनर पर कैसे कपड़े पहनने हैं, व शिष्टाचार पर विशेष बल दिया जाता था। यह सब अँगरेजियत परम्परा के अनुसार था। गुरुकुल परम्परा में ऐसा कोई भेद न था। द्रोणाचार्य तथा द्रुपद का एक ही आचार्य अग्निवेश से शिक्षा लेना इसी कारण सम्भव हुआ होगा, तभी साधारण वर्ग के बच्चे गुरुकुल जाने की आकांक्षा रखते थे। साक्षर होने तथा विभिन्न शिल्पों व उद्योगों की शिक्षा के लिये गुरुकुल जाने की ज़रूरत न थी। उनकी व्यवस्था नियमों व श्रेणियों में थी। 17वीं सदी में भारत आने वाले यूरोपीय यात्रियों को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ कि “भारत के निवासी साक्षर थे।” यह अलग चर्चा का विषय है। विशिष्ट ज्ञान के लिये गुरुकुल या आश्रम थे। कहने का तात्पर्य सिर्फ़ इतना है कि महाभारत के युग के अन्तिम चरणों में गुरुकुलों का इतना ह्रास हो गया कि आचार्यों को अनुबंधित वैतनिक कर्मचारी बनने के लिये बाध्य होना पड़ा। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में शिक्षक एक अनुबंधित वैतनिक कर्मचारी है। उसके नियमों जैसे कोचिंग, ट्यूशन आदि पर रोक की अवमानना करने पर शिक्षक के विरुद्ध शासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। यह एक ग़ैर-क़ानूनी धंधा माना जाता है।

उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में द्रोणाचार्य, एकलव्य तथा कर्ण प्रकरण को अधिक अच्छे से समझा जा सकता है। जिस द्रोणाचार्य धनुर्धर अग्निवेश के यहाँ विद्या ग्रहण की उनका उद्देश्य मात्र सीमित छात्रों (युवराजों) को ही शिक्षा देना नहीं हो सकता। अग्निवेश आचार्य के बहुत से शिष्य धनुर्विद्या में प्रवीण द्रोण के समकालीन थे। परशुराम जिससे कर्ण ने धनुर्विद्या ग्रहण की धनुर्विद्या के पारंगत आचार्य थे। ये बात द्रोण भी जानते थे। इसलिये धनाभाव की विवशता ने और अपमान के दंश ने द्रोणाचार्य को विद्यादान के स्थान पर विद्या विक्रय करने के मार्ग को अपनाने के लिये बाध्य होना पड़ा। जब द्रोण हस्तिनापुर के युवराजों के अनुबंधित आचार्य बन गये तब एकलव्य या कर्ण अथवा किसी अन्य को धनुर्विद्या नहीं सिखा सकते थे। यह जाति-व्यवस्था की जटिलता का परिणाम न होकर एक आचार्य की विवशता थी। कुछ दिन पूर्व एक लेख में इस पर प्रकाश डाला गया कि एकलव्य के पिता राज्य में उच्चपद पर थे। तब उनको निम्न जाति का बताना कितना बड़ा अपराध है? एकलव्य की घटना उस समय विशेष में शिक्षा की प्रस्थिति, शिक्षक की प्रतिष्ठा के अवमूल्यन का प्रतिफल था। जिसके लिये द्रोण नहीं वरन् व्यवस्था उत्तरदायी थी।

द्रोणाचार्य को जब हस्तिनापुर के युवराजों ने एकलव्य की धनुर्कौशलता तथा उसके कथन कि द्रोण उसके आचार्य थे, बताया तो यह सुनकर द्रोण एकलव्य के कौशल, लगन, गुरुनिष्ठा के प्रति शिष्य प्रेम से अभिभूत हो गये। लेकिन दूसरे ही क्षण हस्तिनापुर नरेश से किये अनुबंध की याद से मर्माहत हो गये। एक तरफ़ उनका अनजाना शिष्य था, दूसरी तरफ़ उनके अनुबंध की पालन की प्रतिष्ठा। गुरु द्रोण कठिन परीक्षा में पड़ गये। उनका मन अनचीन्हे शिष्य को देखने-मिलने का हुआ, परन्तु साथ-साथ युवराजों के संदेह (कि शायद आचार्य उसे छुप कर शिक्षा न देते रहे हों) का दंश उन्हें हज़ार बिच्छुओं के डंक सा चुभने लगा। उनकी कोई भी सफ़ाई एकलव्य के इक़बालिया बयान व तीरंदाज़ी के सामने बेकार थी।

आचार्य द्रोण की प्रतिष्ठा व निष्ठा दाँव पर लगी थी। गुरु पर एकलव्य के कथन से आई आँच का शमन भी केवल एकलव्य ही कर सकता था। व्यथित द्रोणाचार्य अपनी निर्दोषता को प्रमाणित करने के लिये युवराजों को लेकर एकलव्य ने अपने देवाधिदेव गुरु को अत्यधिक दुखी, मर्माहत तथा याचक के रूप में देखा तो उनके कष्ट में आकंठ डूब गया। उसे अनजाने में हुई अपनी भूल का अहसास हुआ जिसने उसके श्रद्धेय गुरु को हस्तिनापुर का अपराधी बना दिया था। युवराजों ने द्रोण से धनुर्विद्या क्रय की थी। एकलव्य ने सूर्य के प्रकाश की तरह अपनी योग्यता व सामर्थ्यानुसार शिक्षा ग्रहण की थी। इसलिये गुरु की पीड़ा का अनुभव वही कर सका, मालिक के दर्प में चूर युवराज नहीं। गुरु द्रोण की आत्मा सच्चे शिष्य के समक्ष नतमस्तक थी और अपनी निर्दोषता की भीख माँग रही थी। वह क्षण बड़ा पीड़ादायक और युगांतकारी था। गुरु द्रोण कितनी बार मर-मर कर जी रहे थे। अन्त में गुरु द्रोण ने गुरुदक्षिणा का प्रस्ताव एकलव्य के सामने रख ही दिया। एकलव्य ने एक पल की भी देर किये बग़ैर अपना अँगूठा, जो मात्र अँगूठा नहीं द्रोण की निर्दोषता का सबूत था, गुरु द्रोण को भेंट कर दिया। गुरु की प्रतिष्ठा की रक्षा कर दी। आचार्य द्रोण व एकलव्य की कथा मात्र एक गुरु के शिष्य से अनाधिकार चेष्टा की कहानी नहीं है, वरन् समय विशेष, युग विशेष में शिक्षा व शिक्षकों की दुर्दशा का कथानक है। जिसकी परिणति सामाजिक-राजनीति नैतिक पतन में हुई।

शिक्षा को बिकने वाली वस्तु या पण्य बनाने का यही दुष्परिणाम होता है। व्यवस्था के दोषों का दर्द द्रोण की पीड़ा के रूप में महाभारत पर छा गया।

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टिप्पणियाँ

ऊषा बंसल 2022/10/10 03:34 AM

बहुत बहुत धन्यवाद । इस पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है।

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