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प्यार की थी अधिकाई

 

बात अब से क़रीब पैंतीस साल पुरानी है, जिसकी याद आज भी ताज़ा है। मेरे पति सी एम आर आई दुर्गापुर में साईंटिसट के बड़े पद पर चले गये। हम—मैं, हमारी बेटी जो ग्यारहवीं में थी और बेटा जो 8 साल का रहा होगा बनारस में रह रहे थे। अम्माँ पिताजी की चिट्ठी आई कि कोई छुट्टी हो तो ग़ाज़ियाबाद आ जाओ, मिलने का बहुत मन हो रहा है। मैं दोनों बच्चों के साथ माँ के घर गई। 

हम कई बहिन भाई हैं/थे अब कुछ नहीं रहे। उस समय सभी थे। सब की शादी बच्चे हो गये। भाई भाभियों ने बारी-बारी अपने चूल्हे अलग कर लिये। पिताजी रिटायर हो गये थे। पर अभी भी वकालत का काम करते थे। माँ थक गई थीं। चूल्हा चौका सम्हालने में उन्हें कष्ट होने लगा। ऐसा नहीं था कि हमारे यहाँ खाना बनाने वाली मिसराईन व नौकर नहीं रहे पर अब माँ पिताजी किसी को रखना ही नहीं चाहते थे। कारण तो वही जानते थे। लड़कियों का आना-जाना होता रहता था। 

माँ पिताजी ने मिलजुल कर रसोई सम्हाल ली थी। पिताजी जिन्होंने कभी रसोई का काम नहीं किया था, अब दूध उबालने लगे थे। चाय बना लेते थे। माँ की सहायता से कुकर में दाल-सब्ज़ी बनाने लगे थे। माँ सब्ज़ी साफ़ कर काट देती, आटा गूँथ देती, फिर चार रोटी भी बेल देती। पिताजी सेंकना सीख गये। लड़कियों के आते जाते छोले बनाना भी सीख गये थे। 

मैं जिस दिन ग़ाज़ियाबाद पहुँची, पिताजी ने छोले बना रखे थे। नहाने आदि से निबटने, नाश्ता—जलेबी कचौड़ी (जो पिताजी मंदिर से लौटते में ले आये थे) खा कर जब माँ के पास बात करने बैठी तो माँ ने बातों-बातों में कहा तेरे पिताजी ने छोले बनाये हैं तुम आटा गूँथ कर बच्चों के लिये पूड़ी उतार देना। मैंने कहा ठीक है। 

जब पूड़ी उतार कर माँ, पिताजी, बच्चों को खाना परोसा तो पिताजी ने कहा, “मुझे अंदाज़ नहीं लगा छोले में चीनी अधिक हो गई। असल में प्यार की थी अधिकाई।” 

बात सीधी दिल तक उतर गई। बच्चों ने कहा कि, “नानाजी कितना अच्छा है सौंठ यानी मीठी चटनी अलग से नहीं मिलाना पड़ेगी।” 

काबुली चने के छोले बनाते में चीनी की लाग (आधा चम्मच) देते समय पिताजी की बात याद आ जाती है। दिल उनके प्यार से भर जाता है। 

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