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सतत वैज्ञानिक अनुसंधान और भाषा 

 

 हिंदी भाषा के जनक आदरणीय भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने लिखा है: 

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल 
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल। 
अंग्रेज़ी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन 
पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन। 
उन्नति पूरी है तबहिं जब घर उन्नति होय 
निज शरीर उन्नति किये, रहत मूढ़ सब कोय।”

भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने भाषा को ज्ञान विज्ञान और अनुसंधान आदि के लिए सबसे प्रथम बताया है। इस तरह, भाषा किसी भी सभ्यता व संस्कृति का मूल है। मूल को खाद पानी देना बंद करने के बाद अगर उस भाषा की जड़ को भी इतनी गहराई से खोद कर नेस्तनाबूद कर दिया जाये तो वह भाषा मृतप्राय हो जाती है। भाषा का ज्ञान न होने पर उसकी लिपि भी विलुप्त हो जाती है। विश्व की कितनी ही सभ्यताएँ जो विकास और वैज्ञानिक अनुसंधान कर, उस समय उन्नति के शिखर तक पहुँची थीं, आज उनके अवशेष भी नहीं हैं। उनके जो अवशेष हैं वह भी ख़ुदाई में मिलें हैं। ख़ुदाई में जो लिपि मिली है, उन्हें पढ़ने, समझने, व्याख्या करने वाला कोई नहीं है। एक प्यारा सा शेर है:

“कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, 
ये क्या अजाब है सब अपने आप में गुम हैं, 
ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता
ख़ुद अपने घर में ही घर का निशां नहीं मिलता” (ग़ालिब) 

बड़े बड़े भाषाविद्, भाषा विज्ञानी उसे समझने का प्रयास कर रहे हैं। कुछ को आंशिक सफलता मिली है परन्तु कुछ भाषायें आज भी अपठित हैं। कुछ सभ्यताओं का ज्ञान उनके भित्तिचित्रों को जोड़ कर लगाया जा रहा है। इस तरह सभ्यता के विनाश के साथ वैज्ञानिक प्रगति का सोर्स (स्रोत) भी विलुप्त हो जाता है। सब इतिहास के अंधकूप में समा जाता है। कई बार यह प्रकिया जान-बूझ कर एक सोची-समझी रणनीति की तहत भी की जाती है। वर्तमान में चीन में, चीन में बोली जाने बहुत सी भाषाओं पर प्रतिबंध लगाना इसका उदाहरण है। चीनी सभ्यता विश्व की सर्वोच्च सभ्यताओं में अग्रणी सभ्यता थी। वहाँ बहुत-सी भाषाएँ व लिपियाँ हैं। नई सरकार धीरे-धीरे उन्हें समाप्त कर रही है। रेड इंडियनस की, कैनेडा के मूल निवासियों की सभ्यता का विनाश इसका ज्वलंत उदाहरण है। 

जब किसी भाषा को जानने वाला ही न रहेगा तो उसमें कैसे प्रगति होगी, उसका वैज्ञानिक आधार क्या था? यह बताने, जानने वाले भी दुर्लभ हो जायेंगे। सब यही कहेंगे कि पहले इतनी उन्नति की तो अब क्या साँप सूँघ गया? अब क्यों नहीं कुछ करते! सब चुक गया क्या? जब भाषा रूपी माँ, जननी का ही सफ़ाया कर दिया जायेगा तब संतान रूपी ज्ञानी विज्ञानी कहाँ से पैदा होंगे? 

भारत पर गौरी के आक्रमणों के बाद जो विदेशी शासन प्रारंभ हुआ उनके पास अपनी कोई सुसंस्कृत भाषा नहीं थी। मध्य एशिया में ईरान सबसे सुसंस्कृत व उन्नत देश था। उन्होंने पर्शियन को सरकारी भाषा और पर्शियन ऐटिकेट, आचार संहिता और प्रशासन को अपनाया और भारत पर शासन करने के लिए प्रयुक्त किया। शनै: शनै: फ़ारसी भाषा मुस्लिम वर्ग और भारत के निवासी सीखने लगे। सरकारी नियम क़ानून, अदालत की भाषा पर्शियन होने के कारण पर्शियन का ज्ञान आवश्यक हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत में संस्कृत और अन्य हिंदी भाषाओं का स्थान पर्शियन लेने लगी। सल्तनतत के बाद जब बाबर (मंगोल) ने भारत में मुग़ल सरकार बनाई तो उसने पर्शियन भाषा व शासन पद्धति को ही प्रचलित रखा। 

मध्य एशिया से मीर क़ासिम, महमूद ग़ज़नवी, गौरी आदि के जो वर्ष दर वर्ष हमले हुए उसने भारत के विश्वविद्यालय जला दिए, जिनकी आग महीनों सुलगती रही। (यह ऐतिहासिक तथ्य है) सल्तनत और मुग़लकाल में भारतीय धर्म और शिक्षा पर बहुत से प्रतिबंध लगाया गये। ज्ञानी शिक्षक विशेष कर संस्कृत के ज्ञाताओं का दमन करने के लिए उन पर असहनीय अत्याचार किए। चोटधारी पंडितों और पुरुषों की चोटी खींच कर उखाड़ कर हत्या कर दी जाती थी। यह इस्लाम के अनुसार सबाब था, पुण्य का काम था। कोई भी व्यक्ति निम्न तत्कालीन इतिहासकारों की लिखी किताबों से इसको जान सकता है। इनके नाम हैं: बरनी, अहमद यादगार, ईसामी, मिनहाजुसिराज, याहा बिन अहमद सरहिंदी, अफीफ, अबुल फ़ज़ल, अब्दुलकादिर बदाउंनी, तुजके बाबरी, जहांगीरनामा आदि आदि। 

तत्कालीन किताबों के मूल ग्रन्थ पढ़कर इसको विस्तार से जान जा सकता है। उस समय के विदेशी शासकों ने (सल्तनत-१९४५ तक) तीर्थ यात्रा पर कर लगा दिया गया था यहाँ तक नदियों व गंगा स्नान पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह तब, जब कि उस समय घरों में सरकारी पेय लाइन न होने के कारण कुएँ, तालाब व नदियाँ ही जल का एक मात्र स्रोत थीं। यह सब तत्कालीन सरकारी रिकार्ड से देखा जा सकता है।

(सल्तनत कालीन सरकार व प्रशासनिक व्यवस्था, तथा मुग़लकालीन सरकार एवं प्रशासनिक व्यवस्था नामक दो पुस्तक लिखते समय तत्कालीन सामग्री का उपयोग किया था) कहने का तात्पर्य इतना ही है कि पहले ज्ञान के भंडार पुस्तकालय जला दिये गये, फिर संस्कृत पढ़़ने और पढ़़ाने पर प्रतिबंध लगा दिया, न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी की तरह पंडितों को ही निशाना बना कर मौत के घाट उतार दिया। 

भला हो भक्ति संप्रदाय के महान संत, रामानंद, शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बकाचार्य, नयनार, ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि जिन्होंने भारतीय ज्ञान विज्ञान परम्परा को भक्ति की सजल सलिल धारा में प्रवाहित रखा। इन संतों ने प्रदेशिक भाषाओं में रचना की, जिसमें वेद, वेदांग, प्रस्थानत्रयी को नये कलेवर में प्रस्तुत किया। संस्कृत के वेज्ञानिकों द्वारा किया गये अनुसंधानों को कवित्त, दोहा, सूक्ति, भाष्य, कहावतों आदि में पिरो कर सुरक्षित करने का प्रयास किया गया। ऐसा माना जाता है कि संस्कृत एक वैज्ञानिक भाषा है। यह भाषा इतनी समृद्ध थी कि उसमें गणित और विज्ञान में प्रयुक्त होने वाले शब्द जैसे वर्ग, आयत, आयताकार, त्रिज्या, गुणनफल, चतुर्भुज आदि टर्म्स के लिए अलग-अलग शब्द और उनकी परिभाषा है। नारद भक्ति सूत्र पढ़़ते हुए मुझे यह पढ़ कर महान आश्चर्य हुआ कि सोने की तोल की सबसे छोटी इकाई सूर्य की रोशनी से जो कणों की रेखा दिखती है उसके एक कण के बराबर होती है। बाद में सुनारों ने इसे सही बताया। इस तरह माप और माप की इकाइयाँ वर्णित हैं। विचारणीय है कि अगर उस समय यह सब वैज्ञानिक अनुसंधान न हुए होते तो इनके लिये शब्द भी नहीं होते। बताते चलें कि बहुत सी भाषाओं में इनके लिए अपना कोई शब्द नहीं है। चीनी, जापानी, कोरियन जैसी कुछ समृद्ध भाषाओं में ही इनके लिये शब्द हैं। संस्कृत युग—प्रस्थान त्रयी, पौराणिक, श्रुति, स्मृति, ब्राह्मण ग्रंथों के मनीषियों ने इनका प्रयोग ज्योतिष, खगोलीय, वास्तुकला पृथ्वी की संरचना और दवाई आदि विषयों में अनुसंधान किया था। इन्हीं फ़ॉरमूलों के आधार पर भारत ने गणित में महान गणितज्ञ पैदा किये जिनके बहुत से सूत्र, समीकरण आज भी सिद्ध नहीं हो सके हैं। कहना न होगा गणित के बहुत से आनंदित करने वाले मुहावरे आज भी समाज में प्रचलित हैं जैसे ‘दो तीन पाँच मत कर, नौ दो ग्यारह हो जा।’ अभी HWG Goshti group पर प्रीति ठक्कर ने ‘अद्भुत इतिहास’ पोस्ट कर हमें भास्कराचार्य की पुत्री लीलावती के बारे में हमारा ज्ञानवर्धन करते हुए लिखा–आजकल गणित एक शुष्क विषय माना जाता है पर भास्कराचार्य का ग्रंथ ‘लीलावती’ गणित को भी आनंद के साथ मनोरंजन, जिज्ञासा आदि का सम्मिश्रण करते हुए कैसे पढ़़ाया जा सकता है, इसका नमूना है, लीलावती का एक उदाहरण देखें—“निर्मल कमलों के एक समूह के तृतीयांश, पंचमांश तथा षष्ठमांश से क्रमश: शिव, विष्णु और सूर्य की पूजा की, चतुर्थांश से पार्वती की और शेष छह कमलों से गुरु चरणों की पूजा की गई। अये, बाले लीलावती, शीघ्र बता कि उस कमल समूह में कुल कितने फूल थे?” 

उत्तर—120 कमल के फूल। 

वर्ग और घन को समझाते हुए भास्कराचार्य कहते हैं—अये बाले, लीलावती, वर्गाकार क्षेत्र और उसका क्षेत्रफल वर्ग कहलाता है। 

दो समान संख्याओं का गुणन भी वर्ग कहलाता है। इसी प्रकार तीन समान संख्याओं का गुणनफल घन है और बारह कोष्ठों और समान भुजाओं वाला ठोस भी घन है। 

“मूल” शब्द संस्कृत में पेड़ या पौधे की जड़ के अर्थ में या व्यापक रूप में किसी वस्तु के कारण, उद्गम अर्थ में प्रयुक्त होता है। 

इसलिए प्राचीन गणित में वर्ग मूल का अर्थ था ‘वर्ग का कारण या उद्गम अर्थात् वर्ग एक भुजा‘। 

इसी प्रकार घनमूल का अर्थ भी समझा जा सकता है। वर्ग तथा घनमूल निकालने की अनेक विधियाँ प्रचलित थीं। 

लीलावती के प्रश्नों का जवाब देने के क्रम में ही “सिद्धान्त शिरोमणि” नामक एक विशाल ग्रन्थ लिखा गया, जिसके चार भाग हैं: (1) लीलावती (2) बीजगणित (3) ग्रह गणिताध्याय और (4) गोलाध्याय। 

‘लीलावती’ में बड़े ही सरल और काव्यात्मक तरीक़े से गणित और खगोल शास्त्र के सूत्रों को समझाया गया है। 

कुछ समय पहले तक भी भारत में कई शिक्षक गणित को दोहों में पढ़ाते थे। जैसे कि पन्द्रह का पहाड़ा तिया पैंतालीस, चौके साठ, छक्के नब्बे अट्ठ बीसा, नौ पैंतीस। इस तरह कविता गा गा कर इन्हें याद करना समझना आनंददायक था बोझ नहीं। 

इसी तरह कैलेंडर याद करवाने का तरीक़ा भी पद्यमयसूत्र में था, “सि अप जूनो तीस के, बाक़ी के इकतीस, अट्ठाईस की फरवरी चौथे सन् उनतीस” इस तरह गणित अपने पिता से सीखने के बाद लीलावती भी एक महान गणितज्ञ एवं खगोल शास्त्री के रूप में जानी गईं . . . ‘ 

कहने का तात्पर्य है कि भारत ने महान गणितज्ञ पैदा किए। आर्यभट्ट, भाषकराचार्य आदि इतने गणितज्ञ हुए कि उनको यहाँ लिखना सम्भव नहीं। यूँ तो पढ़ना ही अपने में योग है, ऐसे विषय को रुचिकर रूप में पद्य में सिखाना, याद करवा देना तो अपने में विलक्षण है। 

जब यूरोपीय यात्री भारत आये तो यह देख कर कि भारत में बच्चे ज़मीन पर गणित के समीकरण, पहाडे़ आदि लिखते थे। छोटी से छोटी इकाई का दाम फ़ुर्ती से जोड़ लेते हैं आश्चर्य में पड़ गया थे। मोबाइल अब यह सब समाप्त कर रहा है। उन्होंने लिखा कि भारत का शैक्षणिक स्तर बहुत ऊँचा है। भारत साक्षर है। बाद में अंग्रेज़ी न आने के कारण और प्राचीन शिक्षा पद्धति को ध्वस्त कर देने के कारण भारत अशिक्षित हो गया। 

मौसम विज्ञानी घाघ भंडारी ने जनसाधारण में मौसम का, स्वास्थ्य का, कृषि आदि के ज्ञान सूत्रों को कहावतों व छोटी छोटी सूक्ति, दोहों, लोकोक्ति, कविताओं आदि में पिरो कर जनता जनार्दन को मुँहज़बानी रटा दिया। जैसे:

“दुश्मन की किरपा बुरी, भली मित्र की त्रास।” 

“उतरा उतर दे गया, हस्त क्यों मुख मोरी। 
भली विचारी चित्रा, प्रजा लेई बहोरि।” 

“ओझा कीमिया, वैद किसाना . . .” 

साहित्य के क्षेत्र में संस्कृत पर प्रतिबंध के कारण जनता के अज्ञान को दूर करने के लिए अवधी में रामचरितमानस की रचना की। सूरदास ने गीत, पद आदि लिख कर भारतीय संस्कृति को नवजीवन दिया। भक्तिकाल के संतों की संस्कृत मिश्रित प्रदेशिक भाषा जन जन में समा गई। 

मुग़ल साम्राज्य के पतन के अंतिम दिनों में यूरोपीय व्यापारियों ने भारत में प्रवेश किया। जब वह व्यापारी से ज़मींदार, ज़मींदार से ईस्ट इंडिया सरकार और बिट्रिश सरकार बने, तब बहुत समय तक, भारतीय संस्कृति व सभ्यता को लेकर विवाद चलता रहा। एक तरफ़ Oriantalist थे जो संस्कृत, अरबी, पर्शियन आदि भाषाओं में शिक्षा देने के साथ साथ अंग्रेज़ी में शिक्षा देने पक्ष में थे। दूसरी तरफ़ Anglicans थे जो केवल अंग्रेज़ी में शिक्षा देने के पक्ष में थे, चाहे उसका उपयोग कुछ ही व्यक्ति कर सकें और लाभ भी कुछ को ही मिले। वह Public Instruction Department को मिली राशि को केवल लिबरल शिक्षा में व्यय करने के पक्ष में थे। बहुत समय तक यह विवाद चलता रहा। जिसका समापन मैकाले की ऐतिहासिक मिनट्स में हुआ। जिसमें उसने लिखा कि भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना केवल अंग्रेज़ी में शिक्षा देने से ही सम्भव है। हमारा उद्देश्य भारत में अंग्रेज़ी राज्य को स्थापित करना है। यह मिनट्स आँखें खोलने वाली हैं जो सबको पता होनी चाहिए। इसके बाद अंग्रेज़ी सरकार ने इंग्लिश माध्यम से शिक्षा प्रचार-प्रसार किया। ईसाई मिशनरी घर-घर जाकर बच्चों को दो-चार पंक्तियाँ अंग्रेज़ी की सिखाने लगे जैसे, “फ़ादर बाप, मदर है माई। सिस्टर बहन ब्रोदर भाई।” 

देश भर में मिशनरी स्कूल खोले गये। सरकार अंग्रेज़ी में शिक्षा देने वाले स्कूलों को सरकारी अनुदान देकर अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देने के लिए प्रोत्साहन देने लगी। इस तरह हिंदी, संस्कृत, अरबी, पर्शियन आदि स्कूलों में अंग्रेज़ी का पठन-पाठन तेज़ी से शुरू हो गया। मिशनरी स्कूलों में चर्च बना रहता था। पादरी उसके प्रधानाचार्य होते थे। सिस्टर टीचर का काम करती थीं। स्कूल में हिंदी में बात करने पर सज़ा दी जाती थी। यहाँ तक कि खाने की छुट्टी के समय भी सिस्टर घूम-घूम कर देखती रहती थीं और अगर किसी को हिंदी में बात-चीत करते देखती तो वहीं स्केल, फिटे से पिटाई करती थीं। 

अदालत की भाषा तथा सरकारी राजकाज की भाषा अंग्रेज़ी कर दी गई। स्कूल, कॉलेज, सरकारी संस्थाओं के नाम, सड़कों के नाम, स्टेशनों, अस्पताल के नाम आदि अंग्रेज़ी में लिखे जाने लगे। इस तरह हर सम्भव तरीक़े से भारत में अंग्रेज़ी भाषा का प्रचार-प्रसार किया गया। 

पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति का भारत में प्रचार करने के लिए रेस कोर्स, गोल्फ़ कोर्स बनाए गये। क्लब संस्कृति शुरू हुई। संडे को चर्च जाना—पश्चिम के रीति-रिवाज़ शुरू किये गये। विदेशी सिनेमा देखने व दिखाने के लिए सिनेमाघरों की स्थापना हुई। सब बात लिखना यहाँ सम्भव नहीं है। परन्तु इसका प्रभाव यह हुआ कि भारत की नव पीढ़ी कालिदास, भवभूति, वाणभट्ट, भैरवी, अश्वघोष, वाल्मीकि आदि का नाम ही भूलने लगी। उसके स्थान पर कीट्स, बायरन, वर्डसवर्थ, थामस ग्रे, टेलर, रिचर्डसन, शैली, कीट्स, शेक्सपीयर आदि के नाम शान से लेने लगी। यह सब स्कूल व कॉलेज के पाठ्यक्रम का अंग बना दिए गये। इसी कारण सब को पढ़ना व याद करना अनिवार्य हो गया। इनकी कविता याद करना व सुनाना पढ़े-लिखे होने का प्रमाण बन गया। जब किसी के यहाँ कोई अपने बच्चों को साथ ले कर जाता तो बड़ी शान से बताता कि उसका बच्चा इंग्लिश स्कूल में पढ़ता है। फिर उस बच्चे से इंग्लिश में पोयम सुनाने का आग्रह होता और वह बच्चा सुनाने लगता—जॉनी जॉनी यस पापा, टिंवकिल टिंवकिल, जैक एंड जिल आदि। सब ख़ूब ताली बजाते। माता-पिता गर्व से बच्चे को प्यार करने लगते। और हिंदी कविता—मछली जल की रानी है तो बेचारी नौकरानी बन गई।  “हुआ सबेरा चिड़िया बोली,” देहाती गीत हो गया। इस तरह मैकाले ने भारत के अंग्रेज़ीकरण की जो रूपरेखा तैयार की उसका परिणाम यह हुआ कि देहाती हिंदुस्तानी शरीर में (काले लोग) अंग्रेज़ी दिल दिमाग़ में ऐसी समाई कि उसका उत्तरोत्तर द्रुतगति से प्रचार प्रसार होने लगा। देसी भाषा बोलने वाले हीनता के भाव से ग्रसित होने लगे। उनका स्वाभिमान, आत्मविश्वास, आत्मगौरव का स्थान ग्लानि ने ले लिया। 

संस्कृत साहित्य, वैज्ञानिकों पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। वैदिक भाषा ‘एलियन’ घोषित कर दी गई जो कुछ भी भारतीय संस्कृति व सभ्यता में था उसे अतार्किक घोषित कर दिया गया। (ऐसा ही मिशनरियों ने रोमन सभ्यता को समाप्त करने के लिए किया था। आपको पता होगा रोमन साम्राज्य में बड़े-बड़े तरणताल थे जिस के चारों ओर कमरे बने थे वहाँ रेस्तरां भी थे। जब रोमन साम्राज्य का पतन हुआ तो मिशनरियों ने उसे अय्याशी के अड्डे घोषित कर दिया। नहाने पर पर प्रतिबंध लगा दिया। एक क्रिशच्यन को अपने जीवन में केवल तीन बार नहाना ही ईसाई धर्म में बताया गया। बाद जिससे प्लेग आदि बीमारियों का प्रकोप हुआ) 

इस सब का परिणाम यह हुआ कि भारतीयों ने अपनी भाषा, संस्कृति व सभ्यता को निकृष्ट मान कर अँग्रेज़ियत के गुणगान करना प्रारंभ कर दिया। 

स्वतंत्रता के बाद जब भारतीय भाषा, संस्कृति को पुनर्जीवित करने का प्रयास करना चाहिए था, उसके स्थान पर सरकारी कामकाज, शिक्षा, रिसर्च, नौकरी में अंग्रेज़ी जानने, समझने वालों को वरीयता दी जाने लगी। तभी उस समय किसी कवि ने एक कविता लिखी थी:

जब ये गोरे गोरे चले गये, 
तब ये गोरी (अंग्रेज़ी) क्यों न गई . . .

परिणाम हम सबके सामने है। अब जब हमारे पास न हमारी भाषा है न हमारे ज्ञान-विज्ञान के सूत्र हैं न हमारे पास कोई दृढ़ इच्छाशक्ति है उन्हें पढ़ने व उनको समझ कर रिसर्च करने की। ऐसी कुंद गहन जड़ता से घिरे नागरिक स्वयं अनुसंधान न करके समय की लीक पर चल कर मलाई बटोरने में लगे हैं। 

यह याद दिलाना आवश्यक है कि बहुत सी मेधा विदेशों में पलायन कर गई। उनमें से कुछ ने उनकी भाषा में उनके ज्ञान का उपयोग कर शोध किया और नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया। डॉ. हरगोविंद खुराना, सुब्रह्मण्यम चंद्रशेखर, वेंकटरामन रामकृष्णन, अभिजीत बनर्जी आदि कितने ही नाम हैं वर्तमान में तो वे कुछ कॉर्पोरेट कम्पनियों के सी.ई.ओ. भी भारतीय मूल के हैं। 

निज भाषा को यथोचित सम्मान न देकर उसकी अवहेलना करने उसका पुरज़ोर अपमान और विरोध के कारण हमारे सूत्र कालकलवित हो गये और हम मानसिक और आत्मिक रूप से पराधीन हो गये। हमारा अपने संसाधनों पर से विश्वास ही उठ गया। कहना होगा कि आज हम अपने संदेश व्हाट्सएप पर, अपनी देवनागरी लिपि में न लिख कर तथाकथित रोमन में लिख कर अँग्रेज़ियत को पुरज़ोर बढ़ावा दे रहे हैं। अगर ऐसा ही रहा तो आने वाले समय में देश की भाषा ही नहीं देवनागरी लिपि भी विलुप्त हो जायेगी। 

अभी भी समय है भाइयों! कोढ़ खुजायें नहीं वरना कोढ़ बन जायेगा?-

“ऐ भाइयों सोऐ बहुत अब तो उठो जागो अहो, 
देखो ज़रा अपनी भाषा, संस्कृति की दशा, 
सुविधा परकता को त्यागो अहो! 
काश हमारी आन बान शान पुनर्जीवित हो!” 

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