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आज की नारी की विडम्बना

स्टार प्लस पर एक सीरियल आ रहा था, “दिया और बाती हम”l दिया और बाती की नायिका राजस्थान विश्वविद्यालय में बीए की परीक्षा में तृतीय स्थान प्राप्त करती है। समाचार पत्रों में उसकी प्रशंसा छपती है। मीडिया वाले उसका इंटरव्यू लेने उसकी ससुराल पहुँच जाते हैं। ससुराल में सास पति, लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। संध्या का पति जो हलवाई है, सातवीं पास है, उन्हें शादी के समय बताया गया था, कि संध्या पाँचवीं पास है। जब मीडिया और अख़बार से पता चलता है कि संध्या बीए पास है, तो ससुराल में हंगामा मच जाता है। संध्या को सास ननद देवरानी आदि तरह तरह से खरी-खोटी सुनाते हैं, और बात-बात पर उसके पढ़े-लिखे होने का ताना मारती हैं। 

नूरी यह सीरियल देखते-देखते दहाड़ मार कर रोने लगी। उसकी बच्ची कोमल उसको ऐसे रोता देख और माँ के आँसू पहुँचने लगी, बोली, ’मम्मी मत रो, मत रो . . .  मत रो . . .’ कहकर ख़ुद भी रोने लगी। नूरी जितना ख़ुद को चुप कराने की कोशिश करती उतनी ही तेज़ी से आँसू बहने लगते। आँसुओं का सैलाब बाँध तोड़कर बह निकला था। आँसू जो अब तक अचेतन के बादलों में थे, उनका सहसा बादल फट गया था, और आँसुओं की मूसलाधार बारिश हो रही थी। नूरी एमबीए करने के बाद एक बीपीओ में काम करती थी। उसकी माँ का देहांत हुए पाँच वर्ष बीत गए थे। पिताजी का कारोबार डूब गया था। एक ही भाई था, जो इंजीनियरिंग में पढ़ रहा था। नूरी की तनख़्वाह घर ख़र्च में, भाई की पढ़ाई में काफ़ी मददगार थी। दो साल बाद भाई के, पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी लग गई। पिताजी ने एक संपन्न परिवार में नूरी से कम पढ़े-लिखे लड़के से शादी कर दी। नूरी को नौकरी छोड़नी पड़ी, क्योंकि लड़का हैदराबाद में बीपीओ में अनुवादक का काम कर रहा था। यहीं से नूरी की समस्याएँ घटने के बजाय बढ़ने लगीं। नूरी के पति की आय बहुत अधिक न थी। अतः उसने नौकरी खोजनी शुरू की। एमबीए तथा कार्य का अनुभव होने के कारण उसे 25000 की नौकरी मिल ही गई। दो महीने ठीक-ठाक बीत गए। 

तीसरे महीने से नूरी की ससुराल से फोन आने लगे, कि नूरी को नौकरी करने की क्या आवश्यकता है, पति की आय में ही ख़र्च चलाए, हमारे यहाँ बहू नौकरी नहीं करतीं। उसके मायके में करती होंगी। उनका क्या नौकरी पेशा है, पढ़े-लिखे हैं। प्रतिदिन, दिन में रात में, दो-दो बार, कभी बड़ी बहन, कभी छोटी बहन, कभी माँ, कभी बाप के फोन आने लगे। नूरी की जिठानी, सास, बड़ी ननद, छोटी ननद, चाची, कोई भी नौकरी नहीं करती थी। तीन महीने तक ससुराल वालों के सिखाने से पति ने भी नौकरी छोड़ने के लिए ज़रूरत से अधिक दबाव डालना शुरू कर दिया। दिन रात की तू-तू मैं मैं से तंग आकर नूरी ने नौकरी छोड़ दी। 

नूरी गर्भवती हुई तो, पति ने सातवें महीने में ससुराल चलने का दबाव डाला, जिससे ससुराल में बच्चा किया जा सके। परंतु नूरी के ससुराल पहुँचने पर घर में इतना हंगामा हुआ कि उसे चार दिन बाद ही वापस हैदराबाद की ट्रेन पकड़नी पड़ी। जब नूरी को उसका पति अस्पताल लेकर गया तो उसके पास अपना कोई न था। पति ने अपनी माँ से आने को कहा परंतु उन्होंने बहाने बना दिया। जब नूरी के पिता को समाचार मिला कि नूरी अकेली है और उसने बच्ची को जन्म दिया है, तो वह रुक न सके। और हैदराबाद पहुँच गए। उन्होंने माँ-बाप का पूरा-पूरा दायित्व निभाया। नूरी के पिता के हैदराबाद जाने की बात से ससुराल वाले और अधिक खरी-खोटी सुनाने लगे। माँ-अपने बेटे के तथा बहनें-भाई के कान भाभी के ख़िलाफ़ भरने लगीं। कहने लगीं कि तुम्हारी ज़िन्दगी नूरी ने बर्बाद कर दी। 

अब नूरी को लगने लगा कि माँ के यहाँ के संस्कारों की यहाँ कोई क़द्र नहीं है। सभी का प्रपंच में मन लगा है। उसकी पढ़े होने और उसके दोष ढूँढ़ने में सबका मन लगता है। उसका एमबीए होना ही, उसका सबसे बड़ा दुर्गुण है। उसकी जेठानी ने दो बेटे जने थे। उस अभागिन के केवल कन्या ‘कोमल‘ हुई। करे भी क्या? पाँच साल बाद नूरी पुनः गर्भवती हुई तो उसके पति ने जब यह शुभ समाचार अपने घर वालों को सुनाया तो उन पर तो मानो बिजली गिर गई। लड़के को दिन में चार-चार बार माँ, बड़ी बहन, छोटी बहन, नानी-मौसी समझाने लगी कि बहू का गर्भपात करा दे। हमारे पास, या तेरे पास दो बच्चों को पालने लायक़ कमाई नहींं है। नूरी ने बहुत समझाया कि बच्चे अपना भाग्य का लेकर आते हैं। उनके भाग्य से माँ-बाप भी खाते हैं। परंतु उसके कुछ कहने पर उसे दुत्कार दिया जाता, कि वह तो पढ़ी-लिखी है, ’उससे कौन बहस करें‘ का ताना मारा जाता। 

एक दिन पति ने कहा कि मैंने रिज़र्वेशन करा लिया है। मेरी मम्मी ने कहा है कि वह फरीदाबाद में गर्भपात करा देगीं। नूरी गर्भपात के लिए तैयार नहीं थी। परंतु पति और माँ के बढ़ते दबाव के सामने बेबस थी। पति के साथ फरीदाबाद आ गई। उसे देखते ही सास-ननद ने उसका जीना हराम कर दिया। जब गर्भपात कराने की तिथि तय करने की बात उठी, तो ससुर ने कह दिया कि तुमने सोचा भी कैसे कि हम यहाँ तुम्हारा गर्भपात कराएँगे। यहाँ बिरादरी में हमें अपनी नाक नहीं कटवानी है। उन्होंने अपने बेटे से तुरंत टिकट कटा कर हैदराबाद जाने का आदेश सुना दिया। साथ ही साथ यह भी हिदायत दी, कि जाते ही गर्भपात करा देना, जैसे गर्भवती होना केवल नूरी का ही दोष था? 

नूरी अपनी बच्ची कोमल, पति के साथ वापस हैदराबाद आ गई। हैदराबाद पहुँचते ही सास-ससुर के फोन आने लगे अस्पताल दिखाया या नहीं? क्या डेट मिली? नूरी के लाख मना करने पर भी, उसे अस्पताल जाना पड़ा। उसे अपनी माँ की बहुत याद आती थी। वह होतीं तो माँ के पास चली जाती, पर अब कहाँ जाऊँ? मेरा कोई ठिकाना ही नहीं है। इन्हीं सब झमेले और उधेड़बुन में उसे अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। 

नूरी के सामने गहरा अंधकार था। कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था। इस बार पिता की भी तबीयत कुछ ख़राब थी। नूरी विचारों के महासागर में गोते लगा रखी थी, तभी डॉक्टर नर्स कमरे में आ गई नूरी सहसा उठकर खड़ी हो गई, उसने हाथ जोड़कर उनसे क्षमा माँगते हुए कहा कि यह पाप वह न कर सकेगी, भ्रूण हत्या पर अपराध है। वह इस बच्चे को जन्म देगी। वह तेज़ क़दमों से बढ़ती अस्पताल से बाहर चली आई उसके पीछे उसे रोकता हुआ उसका पति भी बढ़ चला। घर पहुँच कर बहुत गाली-गलौज हाथापाई हुई। पति ने बच्चा गिराने या पति में से, एक को चुनने को कह डाला! नूरी ने बच्चा रखना तय किया और दृढ़ स्वर में कहा कि अगर आपके पास इस आने वाले बच्चे को पालने के लिए धन नहीं है तो मैं अकेली ही दोनों बच्चों की परवरिश कर लूँगी। 

उसने सात साल बाद खुलकर साँस ली। उसने नौकरी तलाशनी शुरू कर दी। कंप्यूटर की सहायता और एमबीए की डिग्री ने उसे शीघ्र ही छोटी सी नौकरी दिलवा दी। पति ने उसे घर से निकाल दिया। वह एक कमरे का घर लेकर उसी शहर में नौकरी करने लगी। बीपीओ वाले उसे मैटरनिटी लीव तथा उसके बाद घर से ही काम करने की सुविधा देने को तैयार हो गये। अब वह खुली हवा में साँस ले सकती थी। जीवन की डगर कठिन थी पर उसमें घुटन व विवशता नहींं थी। तभी उसे कभी पढ़ी कविता की लाइन याद आ गईं:

“व्यर्थ करना ख़ुशामद रास्तों की, 
काम अपने पाँव ही आते हैं सफ़र में, 
वह न ईश्वर के उठाया भी उठेगा, 
जो स्वयं गिर जाये अपनी निगाहों में।”

नूरी ने आँसू पोंछ डाले, रोती हुई बच्ची को सीने से लगा लिया। बच्ची को ख़ूब प्यार किया। कोमल का व अपना मुँह धोया। फिर एक गहरी साँस ली। उसे लगा कि झिड़कियों, ताने-बोली, क्लेश से अकेलापन ही अच्छा है। ना आशा है, ना निराशा, ना दिलासा, ना किसी से गिला-शिकवा। ‘हमको मन की शक्ति देना . . . ‘ गीत गुनगुनाती घर के काम में लग गई। 

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