लहरें
काव्य साहित्य | कविता डॉ. उषा रानी बंसल15 Aug 2023 (अंक: 235, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
बात २०१९ की है। मैं फिलेडेल्फिया में थी। सुबह ब्लड प्रेशर कुछ अधिक था। राम नाम में मन लगाने लगी पर नहीं लग रहा था, बहुत से विचार आने-जाने लगे। कुछ हताशा भी हुई तभी मन ने कहा है कि विचार तो लहरें हैं, आने दो जाने दो पकड़ो मत! तब अचानक प्रश्न उठा कि लहरें क्या हैं? लहरों में एक दूसरे से कुछ अंतर है, तब ये पंक्तियाँ लिखीं:
अचानक प्रश्न उठा—
लहरें तो लहरें हैं,
तब गंगा जी व समुद्र की लहर,
अलग अलग क्यों, कैसे?
केरल में देखें—
तीन समुद्रों का सम्मिलन दृष्टिपटल पर छा गया।
सागर की लहरों में घर्षण है,
कोलाहल है,
प्रतिस्पर्धा है,
ज्वार है, भाटा है,
उतार है चढ़ाव है।
जैसे—
वारापार की लहरों को—
किसी तट, कूल किनारे
समाने के लिये बाँहों की तलाश हो!
इसी मृगमरीचका में लहरें
उठते गिरते, किनारे पर ढेर हो जाती हैं।
कभी आक्रोश में, आवेश में
प्रयकांरी बन नर्तन करने लगती हैं,
विनाश का भयंकर तांडव सब कुछ दहला जाता है।
पर!
गंगा, गंगा की लहर—
मंद मंद मंथर गति से
बस चलती जाती है,
एक के पीछे एक,
उसे न किसी कूल किनारे की चाह,
न कोई तट ही उसकी मंज़िल,
न किसी ज्वार-भाटे की प्रतीक्षा।
न उसे आगे वाली लहर से प्रतिस्पर्धा,
न पीछे रहने वाली लहर को,
आगे वाली को हराने का दंभ,
वह तो बस निरंतरता में बहती रहती हैं।
चलती रहती हैं,
उसका मन शांत रहता है,
उसका जल शीतल व मीठा है,
धीर गंभीर अगाध संतोष से सिक्त,
गंगा की लहर, लहरें बस लहर दर लहर
लहरती रहती हैं, चलती जाती हैं,
जैसे कोई जोगि—-
अपने प्रिय से मिलन का अलख जगाये हो!
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