अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

लहरें

 

बात २०१९ की है। मैं फिलेडेल्फिया में थी। सुबह ब्लड प्रेशर कुछ अधिक था। राम नाम में मन लगाने लगी पर नहीं लग रहा था, बहुत से विचार आने-जाने लगे। कुछ हताशा भी हुई तभी मन ने कहा है कि विचार तो लहरें हैं, आने दो जाने दो पकड़ो मत! तब अचानक प्रश्न उठा कि लहरें क्या हैं? लहरों में एक दूसरे से कुछ अंतर है, तब ये पंक्तियाँ लिखीं: 

 

अचानक प्रश्न उठा—
लहरें तो लहरें हैं, 
तब गंगा जी व समुद्र की लहर, 
अलग अलग क्यों, कैसे? 
केरल में देखें—
तीन समुद्रों का सम्मिलन दृष्टिपटल पर छा गया। 
सागर की लहरों में घर्षण है, 
कोलाहल है, 
प्रतिस्पर्धा है, 
ज्वार है, भाटा है, 
उतार है चढ़ाव है। 
जैसे—
वारापार की लहरों को—
किसी तट, कूल किनारे 
समाने के लिये बाँहों की तलाश हो! 
इसी मृगमरीचका में लहरें 
उठते गिरते, किनारे पर ढेर हो जाती हैं। 
कभी आक्रोश में, आवेश में 
प्रयकांरी बन नर्तन करने लगती हैं, 
विनाश का भयंकर तांडव सब कुछ दहला जाता है। 
पर! 
गंगा, गंगा की लहर—
मंद मंद मंथर गति से 
बस चलती जाती है, 
एक के पीछे एक, 
उसे न किसी कूल किनारे की चाह, 
न कोई तट ही उसकी मंज़िल, 
न किसी ज्वार-भाटे की प्रतीक्षा। 
न उसे आगे वाली लहर से प्रतिस्पर्धा, 
न पीछे रहने वाली लहर को, 
आगे वाली को हराने का दंभ, 
वह तो बस निरंतरता में बहती रहती हैं। 
चलती रहती हैं, 
उसका मन शांत रहता है, 
उसका जल शीतल व मीठा है, 
धीर गंभीर अगाध संतोष से सिक्त, 
गंगा की लहर, लहरें बस लहर दर लहर 
लहरती रहती हैं, चलती जाती हैं, 
जैसे कोई जोगि—-
अपने प्रिय से मिलन का अलख जगाये हो! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

सांस्कृतिक आलेख

सांस्कृतिक कथा

हास्य-व्यंग्य कविता

स्मृति लेख

कविता

ललित निबन्ध

कहानी

यात्रा-संस्मरण

शोध निबन्ध

रेखाचित्र

बाल साहित्य कहानी

लघुकथा

आप-बीती

वृत्तांत

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

बच्चों के मुख से

साहित्यिक आलेख

बाल साहित्य कविता

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं