समाचार पत्रों में हिंदी भाषा
आलेख | साहित्यिक आलेख डॉ. उषा रानी बंसल2 Sep 2014
आज के चुनावी वातावरण में भाषा की बात करना बेकार लग सकता है। लेकिन जब बात समाचारपत्र से जुड़ी हो तो शीषर्क देख कर शायद ही कोई इसे पढ़ना चाहेगा। पर बात इतनी ज़रूरी है कि अब नहीं लिखा तो बहुत देर हो जायेगी।
बचपन में जब भी हम पिताजी, भाई, बहिन, अध्यापक से भाषा सीखने का तरीका पूछते थे तो एक ही उत्तर मिलता था कि समाचारपत्र प्रतिदिन पढ़ा करो। समाचारपत्र का प्रयोग एक प्रमाणिक हिंदी-अग्रेज़ी शब्दकोश के रूप में किया जाता था। लेकिन आज हम अपने बच्चों, नाती, पोती-पोतों से ऐसा नहीं कह सकते हैं। क्यों? यह विचारणीय है?
समाचारपत्र अपने पद से स्खलित हो गये हैं। ख़ासतौर से सबसे अधिक पढ़े जाने वाले हिंदी समाचारपत्र दैनिक जागरण की हिंदी भाषा का स्तर तो ज़ी टी.वी. की हिंगलिश का भी नाती बन गया है। अपनी बात और स्पष्ट करती हूँ। 15 अप्रैल 2014 को मैं किसी कारणवश मेरठ गई थी, जहाँ ठहरी थी उनके यहाँ भी दैनिक जागरण आता था। अतः चाय के साथ मैंने आदतन दैनिक जागरण पढ़ना शुरू कर दिया। समाचारपत्र में मेरठ शहर के चार पृष्ठ भी थे। चौथे पन्ने के अंतिम चार कालम पढ़ते ही सिर भन्ना गया। हिंदी समाचारपत्र में हिंदी का क्रियाकर्म देख दिल दुख गया। अंग्रेज़ी के शब्दों को हिंदी के वाक्य में प्रयुत्त किया गया था। जैसे- मैंने आस्क किया कि पिक्चर इन्जाय की, क्या फाइट थी।
देखिये 27.4.14 के यात्रा अंक का शीर्षक (नेचर के बीच एडवेंचर ---) क्या हिंदी अखबार में ऐसे शीर्षक होने चाहियें।
आगे देखिये और भी सुभानअल्ला वाक्य है- (इस गर्मी कैम्पिंग भी किया जाये और नये डेस्टिनेशंस का......) इंफ्रा पुरस्कार प्राप्त करने वाले हिंदी के समाचार पत्र में इस तरह हिंदी जनाज़ा निकाला जा रहा है।
तारीख 9 मई 14 पृष्ठ 18 देखिये (फन के साथ नालेज); (बढ़ती है रीडिंग हैबिट) (ढेर सारा फन) सोचने की बात है कि क्या यह हिंदी का सरलीकरण है? अंग्रेज़ी या किसी भाषा का सरलीकरण यही है, इससे किस का भला होगा? हिंदी का या अंग्रेज़ी का, या दोनों ही अपना रूपरंग खो देंगीं।
ऐसी हिंदी पढ़ कर मेरा सिर घूम जाता है। हिंदी जागरण धन अर्जित करने की लालसा में शायद यह भूलता जा रहा है कि वह जिस हिंदी की रोटी खा रहा है उसकी थाली में छेद कर रहा है। यह अखबार बार-बार ताल ठोंक कर लिखता है कि वह हिंदी का सबसे लोकप्रिय व सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार है, तब उसकी ज़िम्मेदारी भी सबसे अधिक बनती है कि वह सही हिंदी का प्रयोग करे, वाक्यविन्यास व व्याकरण भी, हिंदी के कलेवर को विकृत न करे। मुझे लगता है कि बिकने की अंधी दौड़ में न केवल वह अपने पथ से भटक गये हैं वरन हिंदी भाषा के वृक्ष की जड़ें भी खोद रहे हैं। पर ऐसा करते समय उन्हें यह ध्यान नहीं है कि कल अगर हिंदी भाषा का वृक्ष ही सूख गया तो उनका अखबार ख़ुद-ब-ख़ुद काल कलवित हो जायेगा।
अच्छा व्यापारी वही है जो मादा को पाले, मारने का काम न करे। बुद्धिमानी इसी में है कि समय रहते चेत जायें। हिंदी को मेरा शत् शत् नमन।
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