क्रांतिकारी की भूमिका में श्रीकृष्ण
आलेख | सांस्कृतिक आलेख डॉ. उषा रानी बंसल1 Feb 2024 (अंक: 246, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
गीता के चतुर्थं अध्याय के सातवें श्लोक में श्री कृष्ण जी ने कहा है:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
अर्थात् जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब मैं अपने रूप को रचता हूँ। अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ। कृष्ण के उद्गार क्रांति की आवश्यकता और उसकी ज्वाला में अधर्म के नाश का उद्घोष करते हैं। धर्म, सनातन हिंदू, सिख, इस्लाम या ईसाई से तात्पर्य नहीं है और अधर्म की गीता में जो विस्तृत व्याख्या की गयी है उसका आशय जीवन मूल्यों से है। जब-जब जीवन मूल्यों का हर आस ह्रास हो जाता है और किसी मनुष्य, समाज, राज्य, संस्कृति या युग के संचालन का रस स्रोत सूखने लगता है, अधर्म, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अनाचार, असत्य दीमक की तरह उसकी जड़ें खोखली करने लगते हैं। तब-तब खोखली मरणासन्न संस्कृति को उसके अनिवार्य परिणाम तक पहुँचाकर जीवन मूल्यों के स्रोत को प्रवाहित करने के लिए महापुरुष, एक युगांतकारी क्रांतिकारी के साकार रूप में जन्म लेते हैं।
पुरानी गाथाओं को छोड़ भी दें तो महाभारत के कथानक में कृष्ण का यही रूप मुखरित हुआ है। कंस के दुराचार, अनाचार, अत्याचार से त्रस्त जनता जब त्राहिमाम करने लगी, कंस के असीम बल हिंसा से परास्त हो असहाय हो गयी। आस्था का जल जीवन मूल्य के अवमानना में सूख गया तथा आसुरी शक्तियाँ पुष्पित पल्लवित होने लगीं, तब एक जन क्रांतिकारी के रूप में कृष्ण आए और सामाजिक राजनीतिक क्रांति संपन्न हुई।
मथुरा के प्रतापी, वैभवशाली राजा कंस के राज्य में राजा प्रजा के संबंधों का आधार बदल गया था। राजा प्रजा का सेवक न होकर निरंकुश स्वेच्छाचारी स्वामी बन गया था। प्रजा राजतंत्र व कर्मचारी तंत्र की इच्छाओं की पूर्ति का साधन बन गई थी। शस्त्र विद्या से अपरिचित हीन प्रजा ऐसे बलशाली प्रखर तेजस्वी कंस और उसकी सेना का सामना करने में असमर्थ थी। अतः उदासीनता, असह्यता, दीनता, मजबूरी (जैसी आज हमारे देश में व्याप्त है) समाज में व्याप्त हो गई थी। सब असंतुष्ट थे। आवाज़ उठाने की ताक़त भी जैसे चुक गई थी। तब कौन कंस जैसी बिल्ली के गले में घंटी कौन चूहा बाँधता? डूबने वालों को तिनके के सहारे की आवश्यकता थी। कृष्ण इसी आस्था के तिनका बने। कंस की विशाल सेना शक्तियाँ, ऋद्धियाँ, आस्था एवं विश्वास की एक चिंगारी से स्वाह हो गईं। जन आक्रोश का सैलाब फिर रोके ना रुका। निहत्थी कूटनीतिक दाँव पेचों से अनभिज्ञ जनता तब ज्वालामुखी बनी तो कंस का स्वेच्छाचारी कर्मचारी तंत्र लावे में दब भूमिसात हो गया। कंस व उसकी आसुरी शक्तियाँ के विनाश के लिए जनता को संगठित करना, आत्मविश्वास जगाना, आस्था के जल को पुनर्जीवित करना तथा अन्याय को अन्याय कहने की सामर्थ्य देना ही क्रांतिकारी कृष्ण का कर्म था।
कंस के राज्य की राजधानी मथुरा थी। जिसको तीन लोक से न्यारी कहा गया था। ऐसा वर्णित है कि मथुरा में ग़बन गगनचुंबी अट्टालिकाएँ थीं। वैभव संपन्न राजधानी थी, जिसके चारों तरफ़ गाँव व टूटी-फूटी झोंपड़ियाँ व मड़ैया थीं। इन गाँवों का अन्न, दूध, दही, मक्खन, वस्त्र, आदि राजमहल व राजधानी की शानो-शौकत बनाने में ख़र्च होता था। मथुरा एक मात्र बाज़ार या विक्रय केंद्र था। गाँव के बच्चे-बूढ़े नंगे-अधनंगे दूध दही से वंचित थे। वैसे मथुरा में किसी चीज़ की कमी नहीं थी। दूध दही की नदियाँ थीं जिनमें कंस के रानियाँ नहाती थीं। जमुना का जल राजा व राज्य के कर्मचारियों के लिए सुरक्षित था। रेगिस्तान जैसी आबोहवा थीं। टीलों के ब्रज क्षेत्र में पीने के पानी का घोर संकट था (जो आज भी है)। कंस के भय से लोगों ने मथुरा के पास जमुना में जाना छोड़ दिया था। कंस को लोकहित से कोई सरोकार नहीं था। अन्न जल की पूर्ति कराने का सवाल था ही नहीं। ऐसे दायित्वहीन राजा का सामना करने का मार्ग कृष्ण ने सुझाया था। अहिंसात्मक संपूर्ण बॉयकाट की राह पर चलने का संबल दिया था।
दूध, दही, मक्खन इत्यादि मथुरा भेजना बंद कर दिया था। जो व्यक्ति भय या निहित स्वार्थ व लाभ के आकांक्षा से इसके अवहेलना करते, उन्हें रास्ते में रोक दिया जाता था, समझाया जाता था परन्तु हठ करने पर उसकी मटकी फोड़ना, सामग्री लूटना या सब में बाँट देना इसी का प्रतीक था।
मथुरा को जाने वाली सामग्री पर प्रतिबंध विरोध के साधन के रूप में प्रयुक्त किया गया था। कंस के क्रोध का जितना भय गाँव वालों को था, उससे ज़्यादा स्नेह कृष्ण रूपी संतान से था। विकल्प चुनने में भय से स्नेह जीत गया था। नंगा बड़ा परमेशवर से था। क्या करेगा कंस? अंततः आततायी का सामना करने का रास्ता प्रजा ने अपना लिया। कंस के भय की चादर में जहाँ छेद हुआ उसे तार-तार होते देख आतंक के बादल एक एक कर छँटने लगे। मुक्ति का ये मार्ग समय स्थान के बंधन से परे होता है। स्पेन के नासूर ने नैपोलियन का अंत कर दिया था। यह नासूर जनविरोध का था। रूस तथा ईजिप्ट में विजयी होने के बाद भी नैपोलियन को जन असहयोग की ज्वाला से प्राण की रक्षा हेतु छुप कर भागना पड़ा था। सिकंदर की विजय सेना भारत की पहाड़ी जातियों द्वारा इस मार्ग का अनुसरण किए जाने के कारण अनेक बार युद्ध क्षेत्र में जीतने के बाद भी पराजित हुई। वितस्ता के युद्ध में सिकंदर की सेना जीत जाने के बाद भी जीवित स्वदेश लौटने के लिए आतुर हो गई थी। उसके पीछे भी यही जन विद्रोह था। अपार जनसमूह जब समर्पण के स्थान पर संहार पर उतारू हो जाए तो जीत भी पराजय में बदल जाती है। कृष्ण ने असहाय, भयभीत जनता के हाथ में यही अस्त्र थमाया था कि न खाएँगे, न खाने देंगे। ब्रज के लोक गीतों में कृष्ण ने इसी रूप का विस्तृत वर्णन है।
“अरे मथुरा से तनक पारे में।
दादी लूटि लियौ दगर में।”
दूध दही को लूटना सभी लोक गीतों का मुख्य विषय है। कृष्ण मथुरा जाने वाले दूध, दही, मक्खन को क्यों गिरा देते थे या बच्चों को खिला देते थे, यह विचारणीय है। कृष्ण लुटेरे थे? या उद्दंड बालक या कुंठाग्रसित? मानसिक रूप से विक्षिप्त थे? या उनका उदर इतना बड़ा था कि समस्त ब्रजमंडल का दूध, दही, मक्खन, उदरस्थ कर सकते थे? नहीं। अत्याचारों के विरोध का यह एक उपाय मात्र था। इन लोग गीतों में यह भाव कितने मधुर शब्दों में मिलता है:
गोपियाँ: इकली वन में घेरी आय श्याम तैनी कैसी ठानी रे,
श्याम मोय वृन्दावन जानौ, लौटकर बरसाने आनौ।
मेरी कर जोरे की मानौ।
कृष्ण: ग्वालिन मैं समझाऊँ तोय, दान तूं दधिका दे जा मोय, तभी जाने दूँ तोय।
गोपियाँ: कंस राजा पर करूँ पुकार, पकर बंधवाय लगाए मार, तोरी सब ठुकराई देय निकार।
कृष्ण: कंस कहा खसम लगे तेरौ, मारकै कर दौगौ केरौ, बाई कूं जनम भयौ मेरौ।
कंस करूँ विध्वंस मेंट दऊँ निशानी रे।
इस प्रकार कृष्ण ने कभी एक और कभी गोपियों के समूह को मथुरा जाने से रोका था। विद्रोह का स्वरूप समझाकर वैचारिक तथा मानसिक परिवर्तन लाने का सतत् प्रयास किया था। उनसे तर्क किया। एक लोकगीत में इस तर्क वितर्क का चित्रण है। गोपियों ने कहा कि दूध दही का विक्रय ही उनके आजीविका थी। इस पर कृष्ण ने दूध दही ख़रीद लेने की पेशकश की:
ग्वालिन करि दै मोल दही को, मोकू माखन तनिक चखाय।
कंस के भय से ग्वालिन जब इसके लिए तैयार नहीं हुई तो कृष्ण ने कहा:
सांच समझलै नाहै, धोखौ जा दिन मेरौ लग जाय, दही तेरी बिकवाय दऊं चोखौ।
अर्थात्- तुम दही मुझे बेच दो, नहीं तो सब गिरा दूँगा, फिर शिकायत न करना। कृष्ण जानते थे कि जनता रूपी गोपी ख़ुद को असहाय मानकर इतनी निष्क्रिय, निश्चेष्ठ हो गयीं थीं कि कंस की दहशत से मान-सम्मान तथा आत्मविश्वास तक खो बैठी थी।
कृष्ण ने एक लोकनायक की तरह जनता में व्याप्त इस भय को ही समाप्त नहीं किया था वरन् आत्मविश्वास भी जगाया था। अन्याय को समझने तथा अन्याय को अन्याय कहने के सामर्थ्य दी थी। उपेक्षावादी संवेदनहीनता के चंगुल से मुक्त कराया था।
गाँधी जी ने कृष्ण प्रणीत मार्ग का अनुसरण अफ़्रीका में किया। भारत में अँग्रेज़ों के विरुद्ध। 1920 के असहयोग आंदोलन में इसका प्रयोग किया था तथा असहयोग आंदोलन की सफलता पर गाँधी जी ने स्वीकार किया था कि शायद हम (भारत के लोग) इसके लिए तैयार नहीं थे। इसके बाद उन्होंने जनजागरण और वैचारिक परिवर्तन लाने के प्रयास में समय लगाया था। इसका उद्देश्य समाज में फैली निष्क्रियता और लाचारी दूर कर भय के प्रताप से लड़ने के लिए सामूहिक मानस परिवर्तन की महत्ता को बताना था।
कृष्ण का रूप ब्रज मंडल के कथानकों में निडर, निर्भय, निष्पक्ष व्यक्ति का है। उनके लिए आग, पानी, साँप, रस्सी तथा राजा और रंक समान थे। कृष्ण ने बचपन के सुनहरे सात वर्ष ब्रज में बिताए थे। उन्हें जीवन, जरा, मृत्यु आदि के गूढ़ प्रश्नों का ज्ञान न था। जात-पांत, ऊँच-नीच,नर-नारी जैसा कोई भेदभाव नहीं था। उनके लिए हानि-लाभ, यश-अपयश तथा जय-पराजय अर्थहीन थे। इस सहज जीवन के बाधक तत्त्व कंस के विरुद्ध प्रतिबद्ध थे जो न खाने देते थे न खेलने। इस प्रकार कंस जनजीवन के बालसुलभ मन का राक्षस था, जिसकी जान समुद्र की गहराई में छिपे किसी पिंजड़े के बंद तोते भी थी। उसको मारकर कंस का वध कृष्ण का सुखद स्वप्न था। इस प्रकार कंस के वध का साहस कोई कूटनीतिज्ञ या योगी कर सकता था। कृष्ण के लिए अन्याय के अंत के मार्ग में संबंधों का कोई मूल्य न था। इसलिए अपने मामा के मोह से मुक्त थे।
कंस का अंत करने के लिए कृष्ण ने पहले वैचारिक क्रान्ति की थी। जब जनसमुदाय सचेत हो गया तो संगठित असहयोग के अस्त्र स कंस का अंत मात्र केश पकड़कर करवा दिया था। वर्तमान दशक में चाउसेस्की की हत्या ऐसी ही कहानी है। पूतना वध से कंस वध तक कृष्ण ने किसी अस्त्र का प्रयोग नहीं किया था। क्यों? क्या सुदर्शन चक्कर दिखाने के लिए था या उनकी उँगली का आभूषण? नहीं, कृष्ण जानते थे कि सुदर्शन चक्र से कंस व उसकी आसुरी शक्तियाँ का वध कर अगर सुख सुरक्षा का राज्य जनता को सौंप देंगे तो वह उसको सम्भाल कर नहीं रख पाएगी। उसको कालेधन की तरह ख़र्च कर देगी और फिर कंगाल के कंगाल हो जाएगी। व जनता को उसके अधिकार से ज़्यादा उसके दायित्व का अहसास कराना चाहते थे। इसीलिए कृष्ण ने सुदर्शन चक्र का प्रयोग को पूतना वध से कंस वध तक नहीं किया था। वरन् जनता को अपने लड़ाई लड़ने के लिए तैयार किया था। इस लड़ाई की आग में निहित स्वार्थ कर्मण्यता तथा उदासीनता के सुख स्वाह हो गए। कर्म के कठोर मार्ग पर चलने का उपक्रम शुरू हुआ और इस तरह कृष्ण की आस्था के संबल से महान क्रांति हुई। मानव मूल्यों की ही प्रतिस्थापना हुए।
नैराश्य और अकर्मण्यता तथा निहित स्वार्थ के सागर में डूबी आज के भारतीय जनता को भी शायद ये कैसे कृष्ण की तलाश है जो पतवार बन सके?
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