चिड़ियों ने बाज़ार लगाया
बाल साहित्य | बाल साहित्य कविता डॉ. उषा रानी बंसल1 Aug 2014
चिड़ियों ने बाज़ार लगाया
एक कुंज को ख़ूब सजाया
तितली लाई सुंदर पत्ते,
मकड़ी लाई कपड़े-लत्ते
बुलबुल लाई फूल रँगीले,
रंग -बिरंगे पीले-नीले
तोता तूत और झरबेरी,
भर कर लाया कई चँगेरी
पंख सजीले लाया मोर,
अंडे लाया अंडे चोर
गौरैया ले आई दाने,
बत्तख सजाए ताल-मखाने
कोयल और कबूतर कौआ,
ले कर अपना झोला झउआ
करने को निकले बाज़ार,
ठेले पर बिक रहे अनार
कोयल ने कुछ आम खरीदे,
कौए ने बादाम खरीदे,
गौरैया से ले कर दाने,
गुटर कबूतर बैठा खाने .
करे सभी जन अपना काम,
करते सौदा, देते दाम
कौए को कुछ और न धंधा,
उसने देखा दिन का अंधा,
बैठा है अंडे रख आगे,
तब उसके औगुन झट जागे
उसने सबकी नज़र बचा कर,
उसके अंडे चुरा-चुरा कर
कोयल की जाली में जा कर,
डाल दिये चुपचाप छिपा कर
फिर वह उल्लू से यों बोला,
'क्या बैठ रख खाली झोला'
उल्लू ने जब यह सुन पाया
'चोर-चोर' कह के चिल्लाया
हल्ला गुल्ला मचा वहाँ तो,
किससे पूछें बता सके जो
कौन ले गया मेरे अंडे,
पीटो उसको ले कर डंडे
बोला ले लो नंगा-झोरी,
अभी निकल आयेगी चोरी
सब लाइन से चलते आए,
लेकिन कुछ भी हाथ न आये
जब कोयल की जाली आई,
उसमें अंडे पड़े दिखाई
सब के आगे वह बेचारी,
क्या बोले आफ़त की मारी
'हाय, करूँ क्या?' कोयल रोई,
किन्तु वहाँ क्या करता कोई
आँखों मे आँसू लटकाए,
बड़े हितू बन फिर बढ़ आए
बोले, 'बहिन तुम्हारी निंदा,
सुन मैं हुआ बहुत शर्मिंदा’
राज-हंस की लगी कचहरी,
छान-बीन होती थी गहरी
सोच विचार कर रहे सारे,
न्यायधीश ने बचन उचारे -
'जो अपना ही सेती नहीं
दूसरे का वह लेगी कहीं!
आओ कोई आगे आओ,
देखा हो तो सच बतलाओ
रहे दूध, पानी हो पानी,
बने न्याय की एक कहानी'
गौरैया तब आगे आई,
उसने सच्ची बात बताई
कौए की सब कारस्तानी आँ
खों देखी कही ज़ुबानी
मन का भी यह कौआ काला,
उसे सभा से गया निकाला
गिद्ध-सिपाही बढ़ कर आया,
कौए का सिर गया मुँड़ाया
राजहंस की बुद्धि सयानी,
तब से सब ने जानी मानी!
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