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पूरब और पश्चिम में शिक्षक का महत्त्व

भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी बड़ा माना जाता है। कबीरदास जी ने लिखा है:

गुरु गोविंद दोऊ खड़े का के लागूँ पाँय। 
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय॥

तुलसी दास जी ने गुरु के महत्त्व के बारे में कहा है:

श्रीगुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्य दृष्टि हियें होती॥
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिअ दृग दोष बिभंजन॥

कथा सरित सागर में एक कहानी है जिसका अभिप्राय है कि जन्म-जन्मांतर के पुण्य कर्मों का संचित शुभ फल जीव के गुरु बनने में फलित होता है। अतः गुरु अत्यंत पावन तथा पूजनीय है। 

यह कहानी श्रीमद्भागवत्गीता के उस श्लोक पर आधारित है जिसमें गुरु की महत्ता और कर्म का वर्णन किया गया है। गुरु ही ज्ञान प्रदान कर सत्त मार्ग पर चलाने वाला है। “गुरु बिन ग्यान कहाँ ते पाऊँ . . . ” गुरु के बिना ज्ञान-विज्ञान का भेद जानना अत्यंत कठिन है। 

तुलसी दास जी ने रामचरित मानस के अरण्य काण्ड में गुरु के महत्त्व का वर्णन इस प्रकार किया है:

गुरु बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं विरंचि संकर सम होई॥

इस्लाम में भी गुरु को अत्यंत आदर और सत्मार्ग पर ले जाने वाला बताया है। डॉ. खालिक अहमद निजामी ने लिखा है कि लोग इन्हें आदर की दृष्टि से देखते थे। उलेमा-ए-अखरात शेख़ जलालुद्दीन तबरीजी ने एक बार बदायूं के काजी से कहा था कि उलेमा की सबसे बड़ी इच्छा मुतव्वली (अध्यापक) बनने की होती है। 

वर्ष 1992 में मैं किसी सेमिनार के सिलसिले में जापान गई। भारत लौटने की हवाई जहाज़ की उड़ान भोर में थी। जहाँ हम ठहरे थे वहाँ से भोर में हवाई अड्डे पहुँचना सम्भव न था। अतः हम रात में ही हवाई अड्डे पहुँच गये। प्रतीक्षा कक्ष में एक बेंच पर मेरे पति सो गये और मैं पास में बैठी थी। एक एयरपोर्ट अधिकारी मेरे पास आया और उसे टूटी-फूटी अँग्रेज़ी भाषा में बताया कि जिनकी उड़ान रात में नहीं थी वह हवाई अड्डे पर नहीं रुक सकते। उसने मेरा पासपोर्ट देखा। मेरे पति के बारे में पूछा तथा हम भारत में क्या काम करते हैं? जब मैंने उसे बताया कि हम वहाँ एक विश्वविद्यालय में शिक्षक (टीचर) हैं तो वह बहुत ही आदर से बोला कि “आप मुझे क्षमा करें, आप यहाँ ठहर सकते हैं।” उसने कई बार झुक-झुक कर हमारा अभिवादन किया। मुझे एक बार फिर अपने टीचर होने पर गर्व अनुभव हुआ। मुझे लगा कि सम्पूर्ण विश्व में शिक्षक सम्माननीय है। 

विभिन्न उपन्यास, लेख, धर्मग्रन्थों के अध्ययन से एक विचारधारा सी बनी थी कि भारत से ज़्यादा यूरोप तथा अमेरिका में शिक्षक का सम्मान है। अमेरिका की एक रिपोर्ट में लिखा था कि हाईस्कूल के शिक्षक का वेतन चालीस से पचास हज़ार डॉलर प्रतिवर्ष होता है। रुपयों में बदलने पर 18 लाख से 23 लाख यह संख्या आती है। इसलिए ऐसा माना गया कि अमेरिका में शिक्षा व शिक्षक का बहुत मूल्य है। वहाँ के शिक्षक भारतीय शिक्षकों की तरह ग़रीब तथा फटेहाल नहीं हैं। अमेरिकन शिक्षकों को भौतिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएँ उपलब्ध है। 

हमारी बेटी-दामाद अमेरिका के सेंट लुइस शहर में नौकरी करने चले गये। मैं सन् 1997 में उनसे मिलने गयी। उनके अपार्टमेंट के ऊपरी तल पर अमेरिकन महिला रहती थी। उससे परिचय होने पर पता चला कि किसी प्राइमरी स्कूल में पढ़ाती थीं। उसने पचास साल की उम्र में अवकाश ले लिया था। उसे नींद न आने की बीमारी हो गई। वह रात-भर अपने फ़्लैट में चलती रहती थी। उसने बातचीत में बताया कि पढ़ाना सबसे कठिन काम था। बच्चों में इतनी हिंसा व्याप्त थी तथा व्यवहार इतना अनियंत्रित था कि टीचर का क्लास में पढ़ाना मुश्किल हो जाता था। जो समस्यायें हमारे यहाँ कॉलेज व विश्वविद्यालयों में होती हैं वह उनके यहाँ प्राइमरी व मिडिल स्कूल में थीं। मैं उनकी बात सुनकर हैरान हो गई। अमेरिका के शिक्षकों की सुनहरी तस्वीर देखने का यह पहला अनुभव था। इसने मुझे असलियत जानने के लिये प्रेरित किया। मैंने अख़बार में छपने वाले लेख व समाचार पढ़ने शुरू किये। जिससे मैं सिर्फ़ इतना ही समझ पाई कि वहाँ हाईस्कूल तक शिक्षा निःशुल्क व अनिवार्य है। छात्र मिडिल तक ही पढ़ना चाहते हैं। मिडिल स्कूल के बाद उनके यहाँ ड्रॉप आउट की संख्या समस्या मूलक है। सभी अमेरिकी नागरिक माँ-बाप के नियंत्रण से मुक्त हो स्वतंत्र जीवन निर्वाह करना चाहते हैं तथा डॉलर कमाने के इच्छुक होते हैं। न्यूयार्क टाइम्स में एक व्यक्ति की तस्वीर छापी जिसने पचपन वर्ष की उम्र में हाई स्कूल की परीक्षा पास की। वह व्यक्ति बचपन से ही शर्मीला तथा शांत स्वभाव था। वह नियमित स्कूल जाता था। वह वहाँ पढ़ना-लिखना नहीं सीख पाया। स्कूल वाले उसे प्रतिवर्ष प्रोन्नत कर देते थे। इस तरह उसने मिडिल पास कर लिया। मिडिल स्कूल के बाद उसने ड्रावरी की नौकरी कर ली। फिर उसने बिज़नेस कर लिया। उसकी शादी हो गई। उसके बिज़नेस की लिखाई-पढ़ाई का काम उसकी पत्नी देख लेती थी। इसी तरह ज़िन्दगी चलती रही। किसी को यह गुमान भी न था कि उसको पढ़ना-लिखना नहीं आता। जब एक दिन उसकी पोती एक कहानी की किताब लेकर अपने दादा के पास गई और उनसे कहानी सुनाने की ज़िद करने लगी तब यह भेद खुला कि वह निरक्षर है। उन्होंने अपनी पोती के माध्यम से अपनी सच्चाई जग-ज़ाहिर की और पचपन वर्ष की उम्र में पढ़ना-लिखना सीखा। इस पूरे प्रकरण में स्कूल में जिनके यहाँ का शिक्षा मॉडल भारत में श्रेष्ठ माना जाता है और जिसका निरंतर गुणगान होता है, उनका प्रतिवर्ष बिना पढ़े-लिखे किसी को प्रोन्नत करना मुझे बहुत ही आश्चर्यजनक लगा। मेरी रुचि वहाँ की शिक्षा की वास्तविक स्थिति जानने के लिये बढ़ने लगी। 

दो वर्ष बाद मुझे अमेरिका के कई राज्यों में जाने और विश्वविद्यालय से स्कूल तक के शिक्षकों से मिलने का अवसर मिला। शिक्षक की स्थिति वहाँ की शान-शौकत की स्पर्द्धात्मक ज़िन्दगी में काफ़ी नीचे पायदान पर है। उनका वेतन, काम के घंटों पर आधारित है, वहाँ बौद्धिक योग्यता का न तो अतिरिक्त सम्मान था न एशिया के संस्कार “गुरु ब्रह्मा” जैसा उनके प्रति भाव। वह भी अन्य कर्मियों की तरह कर्मचारी थे। उनका वेतन उत्पादक क्षमता (Productivity) पर आधारित था। प्रोफेसरों को रिसर्च ग्रांट के लिए निरंतर प्रयासरत रहना पड़ता था। उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा के प्रति छात्रों में कोई ललक न थी। जीवन के दूसरे पड़ाव पर कुछ अमेरिकी उच्च शिक्षा की ओर उन्मुख होते हैं। बाक़ी छात्र थर्ड वर्ल्ड के अथवा वहाँ बसने वाले चीनी, फिलीपीन्स, टर्की, पाकिस्तान आदि देशों के लोग हैं। जो मात्र 800 डॉलर प्रतिमाह से 1200 डॉलर प्रतिमाह की छात्रवृत्ति पर गुजर-बसर कर (विदेशों में) एडवांस शिक्षा प्राप्त करते हैं। एक मिडिल स्कूल की एक शिक्षिका के घर जाने का अवसर मिला। उन्होंने बताया कि वह Teacher on Call हैं। अर्थात् स्थानापन्न शिक्षिका हैं। जब कभी कोई टीचर को छुट्टी पर जाना होता है तो स्कूल वाले उनसे सम्पर्क करते हैं। तब वह कुछ ख़ास विषय पढ़ाने जाती हैं। हमने उनसे जब पढ़ाने में तारतम्य और अनुशासन की बात की तो उन्होंने कुछ चौंकाने वाली बातें बताईं जैसे अमेरिका में छात्र नहाने की बात तो दूर मंजन कर मुँह धोकर भी नहीं आते। 

ज़्यादातर छात्र भूखे घर से कुछ खाकर नहीं आते और भूखे होते हैं। वह टीचर से कहते थे कि भूख के कारण कुछ समझ में नहीं आ रहा था। टीचर भूखे बच्चों को नहीं पढ़ा सकती थी क्योंकि वहाँ की सभ्यता में यह अन्याय होगा। बच्चे कैंटिन चले जाते थे। भारत की अनुशासित कक्षा प्रणाली के बाद अमेरिका में एडजस्ट करना उन्हें कठिन लगा था परन्तु अब वह भी उस साँचे में ढल गई थीं। उनके लिए यह एक ऐसी ही नौकरी हो गई जैसे किसी स्टोर पर जाकर कुछ घंटे सामान बेचना, होटल या फ़ास्ट फ़ूड सेंटर इत्यादि में काम करना। शायद इसलिए शिक्षक और छात्र का कोई विशेष अर्थ पूर्ण सम्बन्ध अमेरिकन समाज में नहीं बन पाता। उपभोक्तावादी भौतिक संस्कृति के छात्र व शिक्षक दो घटक है। इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाई की स्थिति और भी आश्चर्यजनक है। कुछ शिक्षकों ने बताया कि इंजीनियरिंग में बी.टेक., एम.टेक., पीएच.डी. में अमेरिकन छात्र बहुत कम संख्या में थे। बाहर के देशों के छात्रों को भाषा तथा ज्ञान की समस्या रहती थी। अधिकांश छात्र सामान्य सा प्रश्न पत्र भी ठीक से नहीं कर पाते। वहाँ पाठ्यक्रम में प्रायोगिक शिक्षा (हाथ से काम करने) पर विशेष ध्यान दिया जाता है। The show must go on की तरह छात्र तो चाहिए ही, नहीं तो दुकान बैठ जायेगी। इसलिए बाहर के देशों के छात्रों को प्रवेश देना अमेरिका की मजबूरी है। उन्हीं के बल पर यह व्यवसाय फलता-फूलता है। टर्की, चीन, फिलीपीन्स, भारत, कोरिया आदि देशों के छात्र स्नातकोत्तर कक्षाओं में अमेरिका में बहुतायत में होते हैं। 

शिक्षा की इस नई तस्वीर को देख हम हतप्रभ थे। अमेरिका में टीवी में शिक्षा पर बड़ी ज़ोरदार बहस चल रही थी। बहस का विषय था कि जो छात्र मिडिल में फ़ेल हो गये हैं उनको गर्मी की छुट्टी में अलग से पढ़ाया जाये या नहीं। इसके लिए सरकार ने कई मिलियन डॉलर का अनुदान दिया था। टीवी के कार्यक्रम में एक मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ का कहना था कि जो छात्र पास हो गये थे वह Summer job कर डॉलर कमा रहे थे, समुद्र के किनारे, व अन्य जगह पिकनिक आदि में आनंद मना रहे थे, अगर ऐसे समय फ़ेल होने वाले विद्यार्थियों को पढ़ाया जायेगा तो वह मौज-मस्ती नहीं कर पायेंगे और हीनभावना से ग्रस्त हो जायेंगे जिसका उन पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। अतः उन्हें जनरल प्रमोशन दे दिया जाये। इस तरह गर्मी की छुट्टी भर यह वाद-विवाद टीवी चैनलों पर गर्मजोशी के साथ चलता रहा। 

मार्च 1998 में ओहायो के शिक्षा विभाग ने एक सर्वे कराया जिसमें ओहायो फ़ोर्थ ग्रेड प्रोफ़ीशिएंसी टेस्ट परिणामों को दर्शाया। जिनमें उत्तीर्ण होने का प्रतिशत 28 से 60 प्रतिशत था। साधारण वर्ग के स्कूलों से धनाढ्य कालोनी के स्कूलों का परिणाम अच्छा था। इस तरह शिक्षा की स्थिति अमेरिका जैसे विकसित देश में अच्छी नहीं है। अर्थ प्रधान अमेरिकी संस्कृति में डॉलर सामाजिक प्रतिष्ठा का मानदण्ड है। वहाँ शिक्षक का न तो ऐसा कोई विशेष वर्ग है और न उसके प्रति कोई विशेष आदर या सम्मान का भाव। अमेरिका की कंपनियाँ जैसे विभिन्न उद्योगों के लिये भारत से मानव संसाधन जुटाती हैं वैसे ही वह अध्यापकों का चयन कर रही हैं। किसी भी व्यक्ति (जैसे अम्बाला की गरिमा महरोत्रा) को यूरोप या अमेरिका के किसी स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिलती है तो वह मात्र एक वृहत अर्थव्यवस्था का अंग है जिसके पीछे उनके यहाँ मानव संसाधन की कमी मुख्य घटक है। शिक्षक के प्रति आदर या सम्मान जैसी कोई बात वहाँ नहीं है। 

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टिप्पणियाँ

Sarojini Pandey 2022/07/13 03:34 PM

विचारोत्तेजक तुलनात्मक अध्ययन बधाइयां

shaily 2022/07/13 11:48 AM

भारतीय मानस की सबसे बड़ी कमी यह है कि अपनी परम्परा और संस्कारों को हीन समझते हैं। युगों तक चली पराधीनता इसका कारण है। गुरुकुल की प्रणाली आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दी। क्लर्क बनाने वाली मैकाले की शिक्षा ने पीढ़ियों तक विद्यार्थियों दिमाग बंद कर दिये। हम मात्र किताबों के अक्षर रटते रहे, अच्छे अंकों को योग्यता समझते रहे। वास्तविक शिक्षा का फलतः व्यक्तित्व का विकास नहीं हुआ। आज भी हम पाश्चात्य सभ्यता को ही महान मानते हैं, अतः अनुशासन हीनता और शिक्षकों की निष्ठा, कर्तव्य हीनता बढ़ती जा रही है। दुनिया की दृष्टि में अतिउन्नत अमेरिकन शिक्षा की वास्तविक स्थिति दिखाने के लिए आभार। बहुत अच्छा लेख।बधाई और धन्यवाद

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