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संतान / बच्चे 

 

राजा, सुल्तान, बादशाह, 
विजय पताका की धुन में, 
(हरम, रनिवास बनाते थे) 
पर-निःसंतान रह जाते थे! 
आज के अमीर धन दौलत 
कमाने के चक्कर में 
इतने मसरूफ़ रहते हैं 
कि बच्चों की ज़िम्मेदारी उठाने से डरते हैं, 
संतान पैदा न कर जानवर पाल लेते हैं। 
 
ग़रीब की धन-दौलत बच्चे होते हैं, 
कमाने वाले हाथ होते हैं साब! 
उसके अमीर बनने का सपना, 
उसका अपना कल सँवारने का सपना, 
उसके बच्चे होते हैं! 
वो संतान नहीं, कर्मकार पैदा करता है। 
 
विषमता देखिये—
जिनके पास दस-पन्द्रह बच्चों को पालने, 
पढ़ाने लिखाने को अकूत दौलत है, 
वो निःसंतान हैं, 
या फिर एक ही बच्चे से परेशान हैं, 
उनमें से कुछ घरों में कोख सूनी है, 
बच्चों की किलकारी सुनने को तरस रहे हैं। 
 
जहाँ कंगाली है, 
वहाँ उनके बच्चे भूखे नंगे हैं, 
न पेट भर रोटी है खिलाने को, 
न पर्याप्त धन है शिक्षा दिलाने को। 
परिणाम—
बेरोज़गार, बेरोज़गारी 
ग़रीब-ग़रीबी दिन दूनी, 
रात चौगुनी बढ़ती जाती है 
दौलत चंद घरानों में सिमटती जाती है! 
एक प्रश्न छोड़ जाती है? 

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