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गीता में कुरुक्षेत्र में होने वाले युद्ध का वर्णन 

 

गीता परिवार से जुड़ कर मैंने भगवद्गीता के श्लोकों का संस्कृत में उच्चारण सीखना प्रारंभ किया, तब गीता के प्रथम अध्याय के प्रथम श्लोक में ही युद्ध के कारण स्पष्ट लिखे दिखाई दिये। प्रथम श्लोक है, 

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। 
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥

इस श्लोक में बताया है कि धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं कि संजय मेरे और पांडू के पुत्र क्या कर रहे हैं। पहले ही वाक्य में मैं, मेरे और उसके, तेरे का भेद हो गया। अब युद्ध के लिय दो पक्ष बन गये। जब यह भेद दृष्टि पैदा हो जाती है, तो जीवन का रस सूख जाता है। फिर एकाधिकार की मनोवृत्ति का जन्म हो जाता है। यह एकाधिकार ही आपसी लड़ाई, चाहे दो व्यक्तियों में हो, अथवा सम्प्रदायों में, समाज में, देशों में युद्ध को जन्म देती हैं। तुलसीदास जी ने इसे परमब्रह्म तथा माया के परिप्रेक्ष्य में समझाया है—‘मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहि बस कींहें जीव निकाया।’

जब विश्व अपने और परायों में बँट जाता है तो आपाधापी, लड़ाई-झगड़ा शुरू हो जाता है। धृतराष्ट्र भी इसी मैं और मोर के मोह से मोहित हो गये हैं। उनमें अपने और अपने भाई की संतान के मध्य भेद दृष्टि पैदा हो गई है। राज पद की महत्वाकांक्षाओं के चक्र में फँस कर धर्म और अधर्म में अंतर नहीं कर पाते हैं और अधर्म के पक्ष में युद्ध करने के लिये खडे़ हो गये हैं। 

महारानी अहिल्याबाई को एक बार भगवद्गीता पढ़ने थी इच्छा हुई। एक विद्वान गीता विशारद उन्हें गीता पढ़ाने, समझाने के लिए आये। जैसे ही उन्होंने गीता के प्रथम अध्याय का प्रथम श्लोक पढ़ा, उन्होंने कहा कि उन्हें गीता का सार समझ में आ गया। उन्होंने प्रथम श्लोक को इस तरह पढ़ा, ‘धर्म कुरु, क्षेत्रे क्षेत्रे’ अर्थात्‌ आप जिस क्षेत्र में कार्यरत हैं, स्थान, पद, अवस्था, आश्रम में, अपना काम धर्म के अनुसार करें। अंग्रेज़ी में कहते हैं, “Follow it Religiously” मन लगा कर करें। 

अधर्म, बेइमानी, आराम तलबी, उपेक्षा, मजबूरी समझ कर नहीं करें। विद्यार्थी जीवन में मन लगा कर निष्ठा से ज्ञान प्राप्त करें। श्री कृष्ण अवसाद ग्रस्त अर्जुन को अठारह अध्यायों में यही समझाते हैं कि जब युद्ध मैदान में युद्ध करने आये हो तो युद्ध करो। 

सामान्यतः यह प्रश्न मन में आता है, बहुत से व्यक्तियों के मन में जिज्ञासा भी हुई कि जब दोनों सेनायें आमने सामने खड़ी हो गईं, युद्ध भेरी भी बज गई, दोनों पक्षों ने शंखनाद कर लिया फिर अर्जुन ने युद्ध करने से मना क्यों किया? उसे तो युद्ध क्षेत्र में आने से पहले ही पता था कि वह युद्ध करने जा रहा था। युद्ध का कारण भी पता था। युद्ध में उसके सामने कौन-कौन होंगे? तब उसका यह कहना कि स्वजनों को मार कर वह राज्य नहीं प्राप्त करना चाहता? इसका अर्थ अलग-अलग तरह से लगाया गया है। जब विपक्ष के सब मर जायेंगे तो क्या संबंधियों की अन्त्येष्टि करने के लिए वह विजयी होना चाहता है? वह राज्य किन पर करेगा? मेरे विचार से किसी युद्ध करने के बारे में सोचना, युद्ध में उपस्थित सगे सम्बन्धियों को देखने में बहुत बड़ा अंतर है। अर्जुन जो प्रतिपक्ष से स्नेह रखता था, धर्म बुद्धि था, स्वजनों, पितामह भीष्म, गुरु जनों, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भाई बंधु, विशाल सेना से युद्ध होने पर युद्ध की भयावहता, भयानक दृश्य देखने लगा। और सुकृत करने वाला अर्जुन दुख से, करुणा रूपी मोह से आवृत्त हो गया। यही मोह रूपी करुणा उसके विषाद का कारण बनी। जिसे तुलसीदास जी ने कहा है, “मैं अरु मोर, मोर तोर तैं माया”, का पर्दा हट गया और वह अपनों पर ही शस्त्र चलाने की कल्पना से भयभीत हो गया। 

उसी युद्ध क्षेत्र में धृतराष्ट्र, दुर्योधन आदि को विषाद नहीं हुआ वरन् यह देख कर ख़ुश थे कि उनके पास विशालकाय नारायणी सेना है। कौरव जिन्होंने मोह का, अभिमान का, दर्प का चश्मा पहना हुआ था वह प्रतिपक्ष में उनके स्वजन हैं इसका अनुभव नहीं कर सके। अर्जुन के विषाद का कारण इस तरह स्पष्ट हो गया। मोह, महत्वाकांक्षा तथा स्वार्थ एक तरफ़ था, नीति, न्याय, धर्म दूसरी तरफ़। तभी इसे धर्म धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे कहा गया। 

अर्जुन ने फिर अपने युद्ध न करने के बहुत से तर्क प्रस्तुत किए, अपने निर्णय को न्यायसंगत ठहराने का प्रयास किया। अवसाद में ऐसा ही होता है। बच्चे असफल होने या आलस्य करने पर कहते हैं, मैं किसी काम का नहीं हूँ . . . (। am good for nothing . . .) ख़ुद को दोष दे कर अपनी अकर्ममण्यता को ढँकने का प्रयास करते हैं। 

(रूस और युक्रेन का युद्ध वर्तमान में इसकी एक झलकी है। दोनों तरफ़ मूलतः रूसी ही हैं, कुछ यूक्रेनी हैं) 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से अवसाद का बहुत ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। विषाद के कारण, और अवसाद से निकलने का मार्ग सुझाया है। गीता एक मानव के मनोविज्ञान की पुस्तक है। 

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