शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .
आलेख | ऐतिहासिक डॉ. उषा रानी बंसल15 Dec 2023 (अंक: 243, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
शतरंज के खिलाड़ी की रचना प्रेमचन्द ने 1924 में की थी, जिसमें मुंशी प्रेमचंद ने वाजिद अली शाह के शासनकाल की परिस्थितियों का यथार्थ का चित्रण किया है। कहानी में राजा और प्रजा सभी बटेर-तीतर लड़ाने, चौसर और शतरंज खेलने, अफ़ीम तथा गाँजा पीने में व्यस्त दिखाए गए हैं। प्रजा की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। प्रेमचंद ने कहानी में एक स्थान पर लिखा है, “राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन- दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ खिंची चली जाती थी। . . . देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था।” (लखनऊ में कम्पनी रेज़िडेंट का डेरा था) अवध सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक सभी प्रकार से दयनीय स्थिति में था। जैसा कि प्रेमचंद ने लिखा है, “शासन विभाग में, साहित्य क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला कौशल में, उद्योग धंधों में, आहार-विहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही थी।”
संक्षेप में कहानी इस प्रकार है:
इस कहानी में प्रेमचंद ने वाजिदअली शाह के वक़्त के लखनऊ को चित्रित किया है। भोग-विलास में डूबा हुआ यह शहर राजनीतिक-सामाजिक चेतना से शून्य है।
इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं—मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली। दोनों वाजिद अली शाह, कम्पनी सरकार के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं और दोनों ही शतरंज के खिलाड़ी हैं। दोनों की बेगमें हैं, नौकर-चाकर हैं, समय से नाश्ता-खाना, पान-तम्बाकू आदि उपलब्ध होता रहता है।
एक दिन की घटना है—मिर्ज़ा सज्जाद अली की बीवी बीमार हो जाती हैं। वह बार-बार नौकर को भेजती हैं कि मिर्ज़ा हकीम के यहाँ से कोई दवा लायें, किन्तु मिर्ज़ा तो शतरंज में डूबे हुए हैं। हर घड़ी उन्हें लगता है कि बस अगली बाज़ी उनकी है। अंत में तंग आकर मिर्ज़ा की बेगम उन दोनों को खरी-खोटी सुनाती हैं। खेल का सारा ताम-झाम ड्योढ़ी के बाहर फेंक देती है। नतीजा यह निकलता है कि शतरंज की बाज़ी अब मिर्ज़ा के यहाँ से उठकर मीर के दरवाज़े जा बैठती है।
मीर साहब की बीवी शुरू में तो कुछ नहीं कहतीं लेकिन जब बात हद से आगे बढ़ने लगती है तब इन दोनों खिलाड़ियों को मात देने के लिए वह एक नायाब तरकीब निकालती है। जैसा कि हमेशा होता था, दोनों मित्र शतरंज की बाज़ियों में खोये हुए थे कि उसी समय बादशाही फ़ौज का एक अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ खड़ा होता है। उसे देखते ही मीर साहब के होश उड़ गये। वह शाही अफ़सर मीर साहब के नौकरों पर ख़ूब रोब ग़ालिब करता है और मीर के न होने की बात सुनकर अगले दिन आने की बात करता है। इस प्रकार यह तमाशा ख़त्म होता है। दोनों मित्र चिन्तित हैं, इसका क्या समाधान निकाला जाए।
मीर और मिर्ज़ा भी छोटे खिलाड़ी नहीं थे। उन्होंने भी ग़ज़ब की तोड़ निकाला। दोनों मित्रों ने एक बार पुनः स्थान-परिवर्तन करके ही अपना अगला पड़ाव डाला । न होंगे, न मुलाक़ात होगी। नया स्थान था शहर से दूर, गोमती के किनारे एक वीरान मस्जिद। वहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। साथ में ज़रूरी सामान, जैसे हुक्का, चिलम दरी आदि ले लिये। कुछ दिनों ऐसा ही चलता रहा। एक दिन अचानक मीर साहब ने देखा कि अंग्रेज़ी फ़ौज गोमती के किनारे-किनारे चली आ रही है। उन्होंने मिर्ज़ा से हड़बड़ी में यह बात बताई। मिर्ज़ा ने कहा—तुम अपनी चाल बचाओ। अँग्रेज़ आ रहे हैं आने दो। मीर ने कहा साथ में तोपखाना भी है। मिर्ज़ा साहब ने कहा—यह चकमा किसी और को देना। इस प्रकार पुनः दोनों खेल में गुम हो गए।
कुछ समय में नवाब वाजिद अली शाह क़ैद कर लिए गए। उसी रास्ते अंग्रेज़ी सेना विजयी-भाव से लौट रही थी। पूरा शहर बेशर्मी के साथ तमाशा देख रहा था। अवध का इतना बड़ा नवाब चुपचाप सर झुकाए चला जा रहा था। मीर और रौशन दोनों इस नवाब के जागीरदार थे। थोड़ी ही देर बाद खेल की बाज़ी में ये दोनों मित्र उलझ पड़े। बात ख़ानदान और रईसी तक आ पहुँची। गाली-गलौज होने लगी। दोनों कटार और तलवार रखते थे। दोनों ने तलवारें निकालीं और एक दूसरे को दे मारीं। दोनों का अंत हो गया। इससे यही शिक्षा मिलती है कि जुआ नहीं खेलना चाहिए। दूसरी बात काश! यह मौत नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली के पक्ष में और ब्रिटिश सेना से लड़ते हुए होती! तब यह शहादत कहलाती!
इतिहासकार अवध का कुछ दूसरा ही चित्र प्रस्तुत करते हैं।
शतरंज के खिलाड़ी में बिसात क्या है?
अवध सूबा—गंगा, जमुना, सरयू, गोमती आदि से सिंचित एक उपजाऊ सूबा था और है। किसानी के साथ साथ यहाँ उच्च कोटि के उद्योग धंधे थे। यहाँ के कुशल कारीगरों की कारीगरी मध्य एशिया से पश्चिम के देशों तक विख्यात थी। साहित्य, कला अवध की सम्पन्नता में चार चाँद लगाती थी। सभी की ललचाई निगाहें इस सूबे को अपने अधीन करने में लगी रहती थीं। ऐसी बिसात था, अवध का सूबा।
मुग़ल काल में अवध का सूबा मुग़ल बादशाह के अधीन एक सूबा था। जिसका शासन प्रबंध स्वायत्त रूप से सूबेदार का उत्तरदायित्व था। 1775 के प्लासी के युद्ध में बंगाल का नवाब ईस्ट इंडिया कम्पनी से हार गया। मीर कासिम बंगाल का नवाब बना। वह अँग्रेज़ों की चालबाज़ी समझ गया। उसने अँग्रेज़ों के द्वारा चुंगी न चुकाने तथा अन्य व्यापारियों को अपनी सनद दे कर उनसे रुपये उगाहने का पर्दाफ़ाश किया तो कम्पनी के अधिकारी बौखला गये। उन्होंने मीर कासिम को रास्ते से हटाने की साँठ-गाँठ शुरू कर दी। जिसका परिणाम बक्सर का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुग़ल बादशाह ने भी भाग लिया। पर कुछ भेदियों के अँग्रेज़ों से मिल जाने के कारण सम्मिलित सेना यह युद्ध हार गई। तब जो इलाहाबाद की संधि हुई उसके अनुसार बंगाल, बिहार, इलाहाबाद, कडा मानिक पुर का लगान वसूल करने का अधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी को देना पड़ा । इस तरह ईस्ट इंडिया कम्पनी जो अब तक व्यापारिक कम्पनी थी, भारत में ज़मींदार भी बन गयी।
इस संधि का बड़ा दूरगामी प्रभाव पड़ा। अवध के सूबे के कुछ भागों (इलाहाबाद, कडा मानिकपुर) की लगान वसूली कम्पनी के पास चली गई। बताते चलें कि कम्पनी को भारत की लगान व्यवस्था की कोई जानकारी नहीं थी। उन्हें केवल अधिक से अधिक लगान से मतलब था। उन्होंने अधिकतम बोली बोलने वाले को, लगान वसूल करने का ठेका दे दिया। जिससे एक नई क़ौम जल्लाद ठेकेदार जागीरदार पैदा हो गये। जो किसान के प्रति नहीं कम्पनी के ताबेदार थे। परिणाम किसानों ने किसानी करना ही छोड़ दिया। उस दशा का दुखद इतिहास अलग है।
बक्सर की संधि के बाद अँग्रेज़ों का अवध के साथ सीधा सम्बन्ध क़ायम हो गया। इसके बाद अवध के नवाब व कम्पनी के बीच नित नई-नई संधियाँ होने लगी। प्रत्येक संधि के बाद नवाब पर एक के बाद एक प्रतिबंध लगते गये।
आइये इन संधियों पर नज़र डालें:
1765 में बनारस संधि से अवध के नवाब शुजाउद्दौला पर 5 लाख का जुर्माना थोपा गया, जो उसे एक वर्ष में जमा करना होगा। इस संधि से कम्पनी को अवध में व्यापार करने के लिये बहुत सारे विशेषाधिकार प्रदान किये गये। चुंगी पर प्रतिबंध हटा दिया गया। इस तरह लगान व व्यापार पर कम्पनी का एकाधिकार (monopoly) हो गया। मराठों और मुग़लों के साम्राज्य से कम्पनी को बचाये रखने के लिये अवध को बफ़र राज्य बनाये रखना अँग्रेज़ों की बहुत बड़ी आवश्यकता थी।
अवध के तत्कालीन नवाब शुजाउद्दौला ने अँग्रेज़ों से मुग़ल राज्य के हिस्से पुनः ख़रीदने के लिये 1773 में पुनः एक संधि की। कडा व मानिक पुर 50 लाख में ख़रीद लिये। संधि की शर्तों में रोहिल्ला युद्ध में सैनिक देने का प्रस्ताव तथा भाड़े के सैनिकों का ख़र्च उठाना भी स्वीकार कर लिया। 1798 में नई संधि के अनुसार सब्सिडी 70 लाख रुपये कर दी गई। नैपोलियन से इंग्लैंड की लड़ाई में धन का आवश्यकता पूरी करने के लिये लगान की दर बढ़ा दी गई। 1801 की संधि से अवध को रोहिलखंड, निचले दोआब और गोरखपुर का इलाक़ा सब्सिडी न दे पाने के बदले कम्पनी को सौंपने के लिये बाध्य कर दिया। ये सब क्षेत्रों पर कम्पनी के सीधे प्रशासन में चले गये। इस तरह एक व्यापारिक कम्पनी पहले ज़मींदार फिर प्रशासक बन गई।
यूरोपीय में होने वाले इंग्लैंड व फ़्राँस के मध्य युद्धों के कारण अधिक से अधिक धन व सैनिकों की आवश्यकता प्रतिदिन बढ़ रही थी। इसी के साथ कम्पनी का दवाब व धन व सैनिक देने की माँग भी नवाब पर बढ़ती जाती थी। अवध पर नियंत्रण रखने के लिये कम्पनी ने एक अँग्रेज़ रेसीडेंट भी लखनऊ में रख दिया। इस तरह दिन प्रतिदिन के शासन में भी कम्पनी की दख़लंदाज़ी शुरू हो गई।
नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली शाह के नवाब बनने तक कम्पनी ने अवध की ज़मीन, लगान व्यवस्था, उद्योग-धंधों पर अपना प्रभुत्व जमा लिया था। वह इस मौक़े की ताक में थी कब और कैसे अवध को हड़प लें।
अवध की बिसात केवल शतरंज की बिसात न थी वरन् अवध का सूबा था। सूबे, की सम्पन्नता और सेना की भर्ती के लिये जन आपूर्ति और उपजाऊ ज़मीन पर अधिकार करना ही शतरंज की बाज़ी थी।
शतरंज की बिसात पहले बंगाल की धरती पर, फिर बिहार की ज़मीन पर और अंत में गोमती के किनारे रेसीडेंट की रेसीडेंसी में बिछाई गई।
शतरंज के खिलाड़ी या किरदार कौन?
शतरंज के खिलाड़ी अवध के नवाब (मिर्ज़ा) व ईस्ट इंडिया कम्पनी (मीर) हैं। जब अवध का विलय हुआ उस समय अवध का नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली शाह था। शतरंज के शह-मात में कभी जनता, सैनिक, कभी ज़मीन, कभी हर्जाना बिसात पर लुढ़कते रहे। आइये शतरंज की अंतिम बाज़ी पर दृष्टि डालते हैं,
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्ज़ा ने फिर बाज़ी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा—आइए नवाब के मातम में मर्सिया कह डालें। लेकिन मिर्ज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे।
शाम हो गयी। खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना शुरू किया। मिर्ज़ा जी तीन बाज़ियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाज़ी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़निश्चय कर सँभलकर खेलते थे लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी जिससे बाज़ी ख़राब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के ग़ज़लें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गये हों। मिर्ज़ा सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाज़ी कमज़ोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे। ‘जनाब’ मीर आप चाल न बदला कीजिए। यह क्या कि चाल चले और फिर उसे बदल दिया जाए। जो कुछ चलना है एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते हैं। मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज़्यादा लगे उसकी मात समझी जाए। फिर आपने चाल बदली चुपके से? मुहरा वही रख दीजिए।
मीर साहब का फरजी पिटता था। बोले—मैंने चाल चली ही कब थी?
(यहाँ आपको बता दें कि लार्ड डलहौजी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टरस के आदेश में शब्द बदल कर नवाब को फ़र्ज़ी तरीक़े से क़ैद किया था। इसका ख़ुलासा बाद में करते हैं!)
मिर्ज़ा: आप चाल चल चुके है। मुहरा वही रख दीजिए—उसी घर में।
मीर: उसमें क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था?
मिर्ज़ा: मुहरा आप क़यामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फरजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे।
मीर: धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तक़दीर से होती है। धाँधली करने से कोई नहीं जीतता।
मिर्ज़ा: तो इस बाज़ी में आपकी मात हो गयी।
मीर: मुझे क्यों मात होने लगी?
मिर्ज़ा: तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर: वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।
मिर्ज़ा: क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बातें होने लगीं।
मीर: तो यहाँ तुमसे यहाँ दबने वाला कौन?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी ज़माना था। सभी तलवार, कटार रखते थे। दोनों विलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों ने पैंतरे बदले, तलवारें चमकी, छपाछप की आवाज़ें आयीं। दोनों ज़ख़्मी होकर गिरे, दोनों ने वहीं तड़प-तड़प कर जान दे दी। अँधेरा हो चला था। बाज़ी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासन पर बैठे मानों इन वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।
मिर्ज़ा और मीर के मरने से शायद तात्पर्य है कि अवध का सूबा फ़र्ज़ी तरीक़े से हड़प लिया, नवाब को बंदी बना लिया गया। जिससे अवध में 1856 में स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भड़क उठी। इंग्लैंड की रानी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को समाप्त कर दिया। इस तरह मीर और मिर्ज़ा दोनों ही मर गये, अवध का ख़ात्मा हो गया।
नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली शाह:
नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली शाह अवध का 11वाँ नवाब था। वह 13 फरवरी 1847 को अवध का नवाब बना। उसने कुल 9 साल शासन किया। वह जब नवाब बना तब तक कम्पनी अवध को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को, येन-केन हड़पने का मन बना चुकी थी। इतिहासकारों ने लिखा है कि जब अवध का राज्य हड़पा तब अवध पर्याप्त धनी व प्रशासन व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही थी। नवाब मिर्ज़ा वाजिद अली शाह एक योग्य प्रशासक था। उसमें अच्छे शासक के सभी गुण विद्यमान थे। वह दयालु, प्रजावत्सल, ललित कलाओं को प्रोत्साहन व कलाकारों को संरक्षण देने वाला था। उसका लोक परम्परा में गहरा विश्वास था। उसने प्रशासनिक कार्यों में गहरी रुचि दिखाई। उसने न्याय, प्रशासन में रुचि ली तथा अभूतपूर्व सुधार किये। उसने सेना का पुनर्गठन किया। उसे अंग्रेज़ी सेना के समकक्ष बनाने का प्रयास किया। उसने एक बड़े हॉल “ इमामबाड़ा” का निर्माण कराया । जिसके एक तरफ दियासलाई जलाने पर दूसरी तरफ दियासलाई जलाने की रगड़ सुनाई देती है। उसने अँग्रेज़ गवर्नरों को शिकायत का एक भी मौक़ा नहीं दिया। कम्पनी निरंतर उस पर अवध कम्पनी को हस्तगत करने के लिये दवाब डालती रही थी। कम्पनी के अनुचित व्यवहार तथा दवाब से तंग आ कर मैक्लेओड स्टीमर से 6 मई 1856 को कलकत्ता पहुँचा। वह ख़ुद लंदन जा कर महारानी से ईस्ट इंडिया कम्पनी के ख़िलाफ़ अपील करना चाहते थे। पर नवाब बीमार हो जाने के कारण कलकत्ता से आगे नहीं जा सके। अवध के दूतावास की नुमाइंदगी नवाब की माँ कर रही थीं। नवाब वहीं कलकत्ता के पश्चिमी इलाक़े में बँगला नम्बर 11 में रुक गये। इसी बीच में अवध में विद्रोह हो गया। जिसका नेतृत्व बेगम हजरत महल कर रही थीं। इसका दोषारोपण नवाब पर किया गया कि कम्पनी को भारत से निकालने की वह साज़िश रच रहे हैं।
अंतिम बाज़ी:
जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अवध के सोने का अंडा देने वाले सूबे को हड़पने का मन बना लिया था। लेकिन इसकी उन्हें कोई वजह नहीं मिल रही थी। इंग्लिश में एक प्रोवर्ब, कहवत है, Give a dog a bad name and hang it , is an English proverb. Its meaning is that if a person's reputation has been besmirched, then he will suffer difficulty and hardship. ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इसी को अपनाया। लखनऊ में रह रहे ब्रिटिश रेज़िडेंट विलियम स्लीमेन Sleeman। (सिलिमेन) ने एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें अवध में फैली अराजकता, कोई क़ानून न होने और प्रजा में फैले असंतोष तथा जागीर दारों के वैभव, विलासिता, उत्तरदायित्व हीनता का दुखद वर्णन किया। जैसा कि मुंशी प्रेमचंद जी ने कहानी के शुरू में किया है। नवाब को विलासी, ऐयाश, रास रंग में डूबा रहने वाला बताया। और यह गुज़ारिश की यदि तुरंत नवाब को हटाने क़दम नहीं उठाया गया तो कम्पनी को महान क्षति हो सकती है।
. . . Wajid Ali Shah was widely regarded as a debauched and detached ruler, but some of his notoriety seems to have been misplaced. The main cause for condemnation comes from the British Resident of Lucknow, General William Sleeman, who submitted a report highlighting “maladministration” and “lawlessness” he described as prevailing there, although Sleeman himself was strictly opposed to outright annexation for a variety of reasons, including political, financial and ethical ones.
This provided the British with the facade of benevolence they were looking for, and formed the official basis for their annexation. Recent studies have, however, suggested that Oudh was neither as bankrupt nor as lawless as the British had claimed। In fact, Oudh was for all practical purposes under British rule well before the annexation, with the Nawab playing little more than a titular role.
लंदन से आने वाले पत्राचार में लंदन स्थित बोर्ड ऑफ़ डाइरेक्टरस ने ऐसी स्थिति में नवाब को पेंशनर बनाने के लिये लिखा। Make him Pensioner धूर्त लार्ड डलहौजी ने उसे दोबारा टाइप करा कर प्रिज़नर prisoner करा दिया। इस तरह फ़र्ज़ी मोहरे को हाथ में रख कर नवाब को क़ैद कर लिया। जब उस पर लंदन में मुक़दमा चला तो वह उसे टाइपिंग ऐरर (Eerror) कह कर छूट गया। नवाब जनता में बहुत लोकप्रिय था। इस घटना के साथ ही अवध में विद्रोह हो गया। लंदन की महारानी ने ईस्ट इंडिया कम्पनी का चार्टर रद्द कर दिया। इस तरह मिर्ज़ा व मीर दोनों ही मारे जाते हैं।
(मुंशी प्रेमचंद ने लिखा है कि दोनों खिलाड़ी वीर व बहादुर थे। सारा धन लखनऊ चला जाता था। जब की नवाब वाजिद अली शाह ने रेज़िडेंट के दवाब से बचने के लिये अपनी राजधानी अयोध्या से फ़ैज़ाबाद बना ली थी)
विस्तार से जानने के लिये अवध का इतिहास पढ़ें। मैंने भी इस पर एक लेख, Thus Nawab Wajid Ali Shah was check mate! लिखा था और इतिहास के जरनल में प्रकाशित हुआ।
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