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मिथ्याभिमान के प्रतीक रक्षा के बलिष्ठ प्रहरी दुर्ग 

साम्राज्यों की सुरक्षा के निमित्त बनाये जाने वाले दुर्गों का उल्लेख पौराणिक युग से मिलता है। द्वापर में बलिष्ठ राजा कंस का क़िला भव्यता और ऐश्वर्य में अनोखा था। झरनों, झीलों, तड़ागों, एवम् नानाविध कृत्रिम प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण था। रामायण के खलनायक सर्वशक्तिमान अजेय दशानन का क़िला तो अनिवर्चनीय था। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के सुन्दरकांड में उसका वर्णन इस प्रकार किया है—

गिरी पर चढ़ि लंका तेहि देखी। 
कहि न जाई अति दुर्ग विसेषी॥

ऐसे अद्भुत क़िले की रक्षा बलिष्ठ प्रहरी करते थे, जो अग्नि, जल, वायु, मायवी शस्त्रों, दैविक मन्त्रों से सिद्ध अस्त्र-शस्त्र व आयुध धारण किये हुए थे। स्वयं विश्वकर्मा ने उसकी रचना की थी। सर्वशक्तिमान काल को बाँध कर रखने वाला दसकंधर उसका स्वामी था। भालू, बंदर, मानुष राम से लंका की, कोट की, रावण की व लंकावासियों की कोई भी रक्षा न कर सका। काल एक ही ग्रास में सबको हज़म कर गया। न दुर्ग बचा न दुर्गपति। स्वर्णमण्डित कोट के अवशेष भी गौरव गाने के लिये नहीं बचे। शेष रही दसकंधर के मिथ्याभिमान, अन्याय, अत्याचार तथा लालसा की दंत-कथा। 

ऐतिहासिक दुर्गों के प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सभ्यता के अवशेषों से मिलते हैं। क़िलों के निर्माण की अनवरत शृंखला में अनेक प्रकार के दुर्गों का निर्माण किया गया। युग के साथ बदलते विकास के नये प्रतिमानों से निर्मित अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई। इस अनवरत दुर्ग निर्माण मेखला में मिट्टी के अभेद्य दुर्गों में भरतपुर का क़िला, प्राकृतिक पहाड़ी को काट कर बनाये गये चितौड़, ग्वालियर, अहमगनगर, आमेर, गोलकुंडा, बीजापुर, पन्हाला, चुनार आदि के क़िले तथा ईंट-पत्थर को जोड़कर समतल ज़मीन पर बनाये गये दिल्ली, आगरा, कन्नौज इत्यादि के क़िलों का निर्माण हुआ। ये स्थापत्य कला के बेजोड़ उदाहरण तथा कला व भव्यता के अनूठे प्रतीक हैं। कई-कई युगों को अपने में समेटे चुपचाप खड़े हैं। 

कला, निर्माण शैली, समय, युग का अंतर होते हुए भी इन क़िलों के निर्माण का उद्देश्य एक सा ही था। राज्य की रक्षा के लिये सुरक्षा प्रहरी की व्यवस्था करना। शत्रु को भयाक्रांत करने के लिये अपनी शक्ति व ऐश्वर्य का प्रर्दशन। जितना शक्तिशाली राजा, जितना बड़ा साम्राज्य उतना ही बड़ा अजेय, अभेद, सुविधा सम्पन्न दुर्ग। उसी के अनुरूप साज-शृंगार, भोग-विलास व ऐश्वर्य से सम्पन्न दुर्ग बना। जिसे बड़ी-बड़ी प्राचीरों, चौड़ी–चौड़ी खाइयों से घेर दिया गया। मार्ग इतना दुर्गम बनाया गया कि कोई जल्दी जाने का साहस ही न कर सके। और परिदों को भी पर मारते समय भय हो। 

क्षणभंगुर से नश्वर प्राणी, चार दिन की चाँदनी से प्रहरी दुर्गों को नानाविध अलंकृत कर स्वयं काल कवलित हो गये। आज भी अनेक राजाओं, नवाबों, सम्राटों के दम्भ, अभिमान, ताक़त के मद तथा महत्वकांक्षाओं के गढ़, झूठी शान-शौकत तथा अलंकरण की ज़ंजीर खनखनाते समय की चुनौती को अंक में छिपाये मूक, स्तब्ध व ठगे से खड़े हैं। इनके दामन में घमासान लड़ाइयाँ, क़त्ले-आम के चंद ख़ूनी कतरे एवम् विश्वासघात और बलिदान की खट्टी-मीठी गोलियाँ हैं। इनके प्राचीरों पर विगत इतिहास कालजयी स्याही से खुदा हुआ है। वक़्त की धूल का आवरण सत्य की कड़वाहट को आवृत किये हुए है। 

मशीनी युग की तेज रफ़्तार से क़दम मिलाने की कोशिश में भागते दौड़ते मानव की दम भर के लिये जब नज़र इन दुर्गों पर जाती है तो वह रोमांचित हो जाता है। क़िलों की भव्यता व कला से अभिभूत होकर अपनी सुध-बुध खो बैठता है। दाँतों तले अंगुली दबाये इनके यौवन की, बहार की कल्पना में खो जाता है। इनके सौंदर्य को छाया चित्रों में क़ैद कर करते हुए वक़्त के सैलाब में खो जाता है, पर दुर्ग . . .? वह वक़्त की आँधियाँ समेटे शक्ति और सम्पन्नता की अंधी दौड़ में अंधाधुंध दौड़ते मनुष्य के पैरों से लगकर कुछ कहने का प्रयास करता है। जैसे इतिहास की आह की दबी घुटी साँस सुनाना चाहता हो! पर शायद कोई हम दम किसी दुर्ग को नहीं मिला और भारी-भरकम प्राचीरों, खाइयों, बुलंद दरवाज़ों की क़ैद में उसकी आत्मा रोती कलपती रही। प्राचीरें, बुर्ज, मीनारें अत्याधुनिक तकनीक से बने साज-सामान से सजती सँवरती रहीं। दुर्ग सुरंगों, बारूदों, क्षेप्यास्त्रों, नापाम बमों, रसायन, अणु, परमाणु, जैविक, बमों से परिपूर्ण हो अतुलित बलशाली बनते गये। सुरक्षा के प्रहरी दुर्ग रक्षा के गुरुतर भार से दबते-दबते रसातल (बंकर) में समा गये। नये-नये परिधान पहिन रक्षा कवचों से अभिसिक्त हो शक्ति के प्रतिस्पर्धी आमने-सामने आ गये। दंभी का दंभ देख कर काल ठठाकर हँसा और वादी-प्रतिवादी समय की थाली पर बैंगन की तरह लुढ़कने लगे। मानव की शस्त्रों से रक्षा के इस अनूठे प्रयास पर काल मदमस्त हो थिरकने लगा। खाड़ी युद्ध में मौत के सामान से ज़िन्दगी की सुरक्षा का अद्भुत खेल प्रारंभ हो गया। जो निरंतर चल रहा है। एक के बाद एक देश तबाह किये जा रहे हैं। 

गगन चुम्बी इमारतें, पुल, खाई, बंकर, सभी भग्नावशेष रूप में शेष हो गये। धवल भवनों की कालिमा सर्वत्र व्याप्त हो गई। विकास का सुन्दर स्वर्ग शस्त्रों के व्यापार की भीषण ज्वाला के नरक में दहकने लगा। अमरत्व स्याह घने आकाश के तले काल का ग्रास बन गया। मौत के नग्न नृत्य की थाप व काल के अट्टहास से दिशायें काँपने लगीं। सुरक्षा के प्रहरी दुर्ग, बंकर, कोट, खाई, इतिहास की पगड़ी थामे अंगद की तरह अडिग से खड़े ही रह गये। 

निर्जन रास्ते, टूटी पगडंडियाँ, उजड़े आँगन, दुर्गों की निस्सारता का राग अलापते रहे। मानव स्वार्थ के मद में चूर हो आपसी संबंधों की दीवारों को बारूदी सुरंगों से पाट नफ़रत का पलीता बिछा कर सुरक्षा का स्वाँग भरने लगा। मानवीयता बेमानी हो गयी। मनुष्य, मनुष्य से डरने लगा। उसका ख़ुद पर से विश्वास समाप्त होने लगा। ताक़त, (अस्त्र-शस्त्र) धन-वैभव, उर्जा व विकास का हिसाब-किताब युद्ध की शतरंज पर प्रारंभ हो गया। मानव तो मात्र मोहरा था और गवाह थे गढ़। इतिहास के प्रत्यावर्तन पर कोट, खाई, गढ़, दुर्ग, अजेय, कालजयी और अभेद जैसी संज्ञाओं की निस्सारता आँसू बहाने लगे। छलनी दिल के घाव नासूर बन रिसने लगे। असह्य दुर्गंध में साँस लेना दूभर हो गया। क़िले चीत्कार कर उठे कि घमंड़, ताक़त, धनलिप्सा, स्वार्थ, भेदभाव के ये गढ़ मानवता पर कंलक हैं। इन्हें धूल-धूसरित कर नये सृजन के लिये ज़मीन तैयार करो वरना शस्त्रों के व्यापारियों का स्वार्थ और अंह नये-नये रूप धर, दुर्गनुमा मिसाइलों पर चढ़ कर शक्ति के चाबुक से मनुष्यता को लहुलुहान करता रहेगा। असमानता के प्रतीक कोट, क़िले, दुर्ग और बंकरों में क़ैद समानता की रूह को आज़ाद कर दो और नव प्रभात का कोई गीत गाओ। 

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