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औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति

 

संक्षेप 

पत्रकारिता अपने शुरूआती दौर में राजनीति से जुड़ी नहीं थी। यह इंग्लैंड में मनोरंजन के साधनों में से एक था। अपनी ‘गटर प्रेस’ विशेषताओं के कारण, इसे देश में राजनीतिक और सामाजिक विचारों के विकास में सम्मानित स्थान नहीं मिला। 1740 ई. में प्लासी की लड़ाई के बाद औपनिवेशिक शासन की स्थापना के साथ पत्रकारिता ने भारत के दरवाज़े खटखटाए। पहली पत्रिका 1767 ई. में बोल्ट द्वारा शुरू की गई थी। अख़बार का उद्देश्य पूरी तरह से व्यावसायिक था। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में सनसनीखेज़ ख़बरें फैलाईं। ईस्ट इंडिया कंपनी शुरू से ही पत्रकारों और पत्रिकाओं की प्रकृति और उद्देश्यों को लेकर आशंकित थी। इसने उन्हें बदमाश माना और बोल्ट और हिक्की जैसे प्रथम दो पत्रकारों को निर्वासित कर दिया। इस तरह समाचारपत्रों को उनके शुरूआत में ही क़त्ल कर दिया। 

कंपनी की कार्रवाई ने भारत और विदेशों में एंग्लो-इंडियन समुदाय में भारी हंगामा और उत्तेजना पैदा की। ‘प्रेस की स्वतंत्रता’ और ‘नागरिक स्वतंत्रता और समाचारों का ग़लत उपयोग’, गर्म बहस का विषय बन गए। इसने अकल्पनीय आयाम ग्रहण कर लिए। प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के लिए कई क़ानून बनाए गए। पत्रकारिता एक सड़क छाप मनोरंजन और बौद्धिक अभ्यास का मंच बन गई। प्रस्तुत पेपर में भारत में पत्रकारिता के जन्म, इसके उद्देश्य, प्रेस के प्रति औपनिवेशिक सरकार के रवैये और अन्य संबंधित मुद्दों पर चर्चा की जाएगी। 

पत्रकारिता का विकास 

पत्रकारिता अपने शुरूआती दौर में राजनीति से जुड़ी नहीं थी। यह इंग्लैंड में मनोरंजन के साधनों में से एक था। अपनी ‘गटर प्रेस’ विशेषताओं के कारण, इसे देश में राजनीतिक और सामाजिक विचारों के विकास में कोई सम्मानित स्थान नहीं मिला। 

1740 ई. में प्लासी की लड़ाई के बाद औपनिवेशिक शासन की स्थापना के साथ पत्रकारिता ने भारत के दरवाज़े खटखटाए। इस दिशा में पहली पत्रिका 1767 ई. में बोल्ट द्वारा शुरू की गई थी। अख़बार का उद्देश्य पूरी तरह से व्यावसायिक था। उन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी में व्याप्त भ्रष्टाचार के बारे में सनसनीखेज़ ख़बरें फैलाईं। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों को अख़बार पसंद नहीं आया और कम्पनी सरकार अख़बार वालों को सरकार का आलोचक व सरकारी नियमों की अवमानना करने वाले मानने लगी। कंपनी ने पहले अख़बार को नष्ट कर दिया और अख़बार के लेखक ‘बोल्ट्स’ को निर्वासित कर दिया। जेम्स ऑगस्टस हिक्की ने 29जनवरी 1780 को कलकत्ता में एक अख़बार शुरू करने का साहस किया। अख़बार शुरू करने से पहले उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी कम्पनी से इसकी मंज़ूरी ली। उन्होंने अपने अख़बार का नाम बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइज़र रखा। इसमें 14 3/5 x 20 आकार के 4 पृष्ठ थे जिन पर मोटे अक्षरों में लिखा था, “एक साप्ताहिक राजनीतिक और वाणिज्यिक पत्र जो सभी दलों के लिए खुला है लेकिन किसी से प्रभावित नहीं है।” यह “हिक्कीज़” बंगाल गजट के नाम से लोकप्रिय हुआ। बंगाल गजट ने अपने निर्भीक और निडर लेखन में ईस्ट इंडिया कंपनी की राजनीतिक और वाणिज्यिक नीतियों की आलोचना की। वह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स और मुख्य न्यायाधीश सर एलिज़ा इम्पे के उग्र और कटु आलोचक थे। उन्होंने पादरी वर्ग को भी नहीं बख़्शा। उन्होंने कलकत्ता के पहले एंग्लिकन बिशप जॉन जकारिया की, उनके लालचपूर्ण कार्यों की कटु आलोचना की। ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रेस को अपनी निजी संपत्ति-भारतीय क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने वाला और अतिचारी माना। कंपनी के साथ उनकी कई गंभीर मुठभेड़ें हुईं। बंगाल गजट पर निजी अभियोग लगा कर उसे उसका प्रकाशन बंद करने के लिए मजबूर कर दिया। इस प्रकार, मार्च 1782 में, दूसरे अख़बार को शुरूआत में ही ख़त्म कर दिया गया था, “newspaper was nipped in the bud”। यह उल्लेखनीय है कि पहले दो पत्रिकाएँ अँग्रेज़ों द्वारा बनाई गई थीं। वे अंग्रेज़ी में लिखे गए थे और अँग्रेज़ों द्वारा और भारत और विदेशों में अंग्रेज़ी समुदाय के लिए संपादित किए गए थे। इस प्रकार, भारत में प्रेस को उसके शुरूआती दौर में ही दफ़न कर दिया गया। 

प्रेस के इस असामयिक मौत ने “प्रेस की स्वतंत्रता” का एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया। हिक्की ने अकेले ही प्रेस की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। हिक्की ने ज़ोर देकर कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता एक अंग्रेज़ और स्वतंत्र राजपत्र/गजट के अस्तित्व के लिए आवश्यक थी। उसने कहा कि, “जनता को अपने सिद्धांतों और विचारों को घोषित करने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिए, और प्रत्येक कार्य जो उस स्वतंत्रता का दमन करता है, वह अत्याचारी है, और समाज के लिए हानिकारक है।” हालाँकि, हिक्की को दोषी ठहराया गया और उनका अख़बार बंद कर दिया गया लेकिन उन्होंने भारत में एक स्वतंत्र  फ़्री प्रेस की नींव रखी। 1780 से 1793 तक कलकत्ता में छह पत्र शुरू हुए; 1784 में कलकत्ता गजट, 1785 में बंगाल जर्नल, 1785 में कलकत्ता की ओरिएंटल मैरी टाइम, 1786 में कलकत्ता क्रॉनिकल, 1788 में मद्रास कूरियर, 1787 में बॉम्बे हेराल्ड। तीन पत्र और 1785 से 1795 तक मद्रास में साप्ताहिक समाचार पत्रों की शुरूआत हुई। 1789 से 1792 तक बंबई में तीन साप्ताहिक पत्र और पत्र प्रचलन में आये। 

इन समाचार पत्रों की विशेषताएँ समान थीं। सबसे पहले, उन्होंने ख़ुद को सरकार, उसके अधिकारियों और नीतियों की आलोचना से दूर रखा। संपादकीय मुख्य रूप से राजनीतिक और सैन्य मामलों पर होते थे, सामान्य तौर पर जनसाधारण/पब्लिक को उनमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे मुख्यतः सरकार के आदेश प्रकाशित करते थे, जैसे भारतीय समाचार, संपादकों के नाम पत्र; फ़ैशन पर नोट्स और ब्रिटिश अख़बारों के उद्धरण। बोल्ट और हिक्की से सबक़ लेते हुए इन पत्रों ने ग़ैर-विवादास्पद और ग़ैर-राजनीतिक चरित्र रखने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप अधिकारी उनसे आशंकित नहीं थे वरन्‌ कुछ पत्रों को सरकार का समर्थन भी प्राप्त था। इन सबक़े बावजूद सरकार अख़बारों को लेकर बहुत सतर्क थी और जब भी सरकार की कोई ख़बर या आलोचना प्रकाशित होती थी तो वह उनके ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई करती थी। अधिकारियों द्वारा बॉम्बे गजट को प्रकाशन से पहले प्रत्येक अंक को सेंसरशिप/अभिवेचन के लिए प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था। ये समाचार पत्र अंग्रेज़ी में थे इसलिए इनका प्रसार अंग्रेज़ी बोलने वाले एंग्लो-इंडियन और ब्रिटिश समुदाय तक ही सीमित था। 

पत्रकारिता ने 1818 में एक और महत्त्वपूर्ण क़दम उठाया जब पहला बंगाली मासिक पत्र दिग्दर्शन (रास्ते का संकेतक) जे.सी. मार्शमैन के संपादन में शुरू किया गया था। मार्शमैन सेरामपुर के एक मिशनरी थे, वह इसके नाममात्र के संपादक थे। यह समाचारपत्र वास्तव में बंगाली पंडितों द्वारा संचालित किया गया था, यह अख़बार स्थानीय हित के विभिन्न विषयों पर उदार विचारों और उपयोगी जानकारी का प्रसार कर रहा था। लगभग उसी समय कलकत्ता से एक साप्ताहिक पत्र बंगाल गेजेट (बंगाल गजट) प्रकाशित हुआ, इसके संपादकों का नाम पता नहीं है। इस अख़बार की कोई फ़ाइल उपलब्ध नहीं है लेकिन इसे पहला स्थानीय भाषा का अख़बार माना जाता है। संभवतः इसका संपादन राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित आत्मीय सभा के सदस्य हर-चंद रे द्वारा किया गया था जो आत्मीय सभा के सदस्य भी थे। इस प्रकार, स्थानीय प्रेस ने साँस लेना शुरू कर दिया। 4 दिसंबर 1821 को एक और पत्र ‘संबाद-कौमुदी’ प्रकाशित हुआ, यह एक साप्ताहिक पत्र था। इसके अतिरिक्त फ़ारसी में ‘जर्नल मिरातुल अख़बार’, तथा कलकत्ता की एक अंग्रेज़ी व्यापारिक फ़र्म ने एक उर्दू साप्ताहिक 28 मार्च 1822 को ‘जाम-ए-जहाँ’ नाम से शुरू किया। यह जल्द ही द्विभाषी (फ़ारसी, उर्दू) समाचारपत्र बन गया। 

बंग-दत्ता (बंगाल हेराल्ड) चार भाषाओं (अंग्रेज़ी, बंगाली, फ़ारसी, हिन्दी) में एक साप्ताहिक राजा राममोहन राय और द्वारका नाथ टैगोर द्वारा कलकत्ता के कुछ अन्य प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ मिल कर प्रकाशित किया गया था। इसका संपादन मोंटगोमरी मार्टिन ने किया था। गुजराती बॉम्बे समाचार की शुरूआत 1822 में दिल्ली से हुई थी। 1837 में ‘सैयद उल अख़बार’, 1838 में ‘दिल्ली अख़बार’ के नाम से दिल्ली में इसके अतिरिक्त कई उर्दू पत्र प्रकाशित हुए। 1838 में एक महत्त्वपूर्ण अंग्रेज़ी पत्रिका ‘बॉम्बे टाइम्स’ की स्थापना हुई, जिसे बाद में ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के नाम से जाना गया। उसी वर्ष ‘बॉम्बे कूरियर’ की शुरूआत हुई. 1818 से 1839 तक कलकत्ता में 26 यूरोपीय समाचार पत्र और 9 भारतीय समाचार पत्र थे; बम्बई में 10 यूरोपीय और 4 भारतीय पत्रिकाएँ थीं; मद्रास में 9 यूरोपीय पत्रिकाएँ थीं; लुधियाना, दिल्ली, आगरा और सेरामपुर, प्रत्येक में एक-एक समाचार पत्र था। सदासुख लाल ने कलकत्ता में एक उर्दू अख़बार ‘जाम-ए-जहाँ नामा’ लॉन्च किया। 1823 में मणिराम ठाकुर ने ‘समसुल’ अख़बार निकाला, जो केवल 5 वर्षों तक ही जीवित रहा। इसके बंद होने पर संपादक ने लिखा, “इससे मुझे हताशा और निराशा के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ, भले ही आलसी और अज्ञानी कुछ भी दावा करें।” उन्होंने भारतीय प्रेस के प्रति ईस्ट इंडिया कंपनी के दमनकारी रवैये को इस तरह प्रकट किया। इन सबके बावजूद भारतीय पत्रकारिता ने अपनी स्थापना के बाद से ही अपना विकास जारी रखा। सबसे पहला प्रामाणिक रिकॉर्ड 26 समाचार पत्रों का है, जिनमें 19 उर्दू में, 3 हिंदी और फ़ारसी में, एक बंगाली में और दो पत्रिकाएँ भी उत्तर पश्चिम प्रांतों से हैं। 1852 में हिंदुस्तानी पत्रिकाओं की संख्या बढ़कर 34 हो गई, आगरा में 7 पत्र प्रकाशित हुए, दिल्ली में 6, मेरठ 2, लाहौर 2, बनारस 7, सरधना 1, बरेली 1, कानपुर 1, मिर्ज़ापुर 1, इंदौर 1, लुधियाना 2, भरतपुर 1, अमृतसर, मुल्तान 1 आते हैं। भारत भूमि के लोगों ने समाचारपत्रों को अच्छी तरह से स्वीकार किया। तब से समाचार पत्र भारतीय जीवन का अभिन्न अंग बन गये। 

यह जानना वाक़ई दिलचस्प है कि भारत का ‘वर्नाक्युलर प्रेस’(प्रचलित भाषा की पत्रकारिता) अपने पूर्वजों (बोल्ट और हिक्की) से बिल्कुल अलग था। प्रारंभ से ही स्थानीय प्रेस का उद्देश्य लोगों को शिक्षित और निर्देशित करने की दृष्टि से उपयोगी ज्ञान, जानकारी का प्रसार करना और भारतीय हित की समस्याओं पर चर्चा करना था। यह एक विशिष्ट उच्च विचारधारा पर आधारित था। 1822 में मिरातुल-अखबार में प्रकाशित राजा राम मोहन राय के संपादकीय ने आदर्श स्थापित किया उसमें उन्होंने भारत में छपने वाली पत्रकारिता का उद्देश्य और कार्य दिशा स्पष्ट की थी। उन्होंने व्यक्त किया कि, “मेरा एकमात्र उद्देश्य यह है कि मैं जनता के सामने बुद्धिमत्ता के ऐसे लेख रख सकूँ जो उनके अनुभव को बढ़ा सकें, और उनके सामाजिक सुधार की ओर अग्रसर हों; और अपने पत्रों के माध्यम से मैं शासकों को बता सकूँ कि अपनी प्रजा की वास्तविक स्थिति को जानना उनका कर्त्तव्य है। और प्रजा को अपने शासकों के स्थापित क़ानूनों और रीति-रिवाज़ों से परिचित हो। जिससे सरकार जनता को सुरक्षा, सहायता व सुरक्षा की गांरटी दे सके।” 

इस तरह वर्नाकुलर प्रेस (प्रचलित भाषा की पत्रकारिता) एक शिक्षक, समाज सुधारक तथा उपदेश बन गई। अंग्रेज़ी प्रेस से एक दम भिन्न नया कलेवर लेकर वर्नाकुलर प्रेस (प्रचलित भाषा की पत्रकारिता) सामने आई। अंग्रेज़ी प्रेस का उद्देश्य मनोरंजन व मज़ाक़ बनाना था परन्तु भारतीय प्रेस का उद्देश्य जनता तथा सरकार को जानकारी उपलब्ध कराना था। प्रेस के इन दो भिन्न उद्देश्यों ने समाचार-पत्रों को शीघ्र ही दो भागों में बाँट दिया, 1-इंडियन इंग्लिश प्रेस 2-वर्नाकुलर प्रेस (प्रचलित भाषा की पत्रकारिता)। इस तरह प्रेस का दो ख़ेमों में बँटवारा हो गया परन्तु उनका दायरा दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। 

प्रेस की स्वतंत्रता पर विवाद

भारतीय पत्रकारिता के विकास ने कई अँग्रेज़ों के मन में चिंता पैदा कर दी। उन्होंने गंभीर आशंका व्यक्त की कि भारत में स्वतंत्र और अप्रतिबंधित प्रेस से भारत पर इंग्लैंड की संप्रभुता ख़तरे में पड़ जाएगी। बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल के अध्यक्ष डंडास, एलीफिंस्टन, मुनरो, विलियम सी. बेंटिक आदि ब्रिटिश अधिकारियों की राय थी कि अप्रतिबंधित प्रेस सरकार की नींव तक हिला सकती है। मुनरो की आशंका प्रेस के चरित्र के विश्लेषण पर आधारित थी। उन्होंने कहा, कि “स्वतंत्र प्रेस और अजनबियों का प्रभुत्व दो चीज़ें हैं, जो असंगत हैं और जो लंबे समय तक एक साथ मौजूद नहीं रह सकती हैं। प्रेस का पहला कर्त्तव्य देश को विदेशी जुए से मुक्ति दिलाना होगा और इस एक महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हर सम्भव त्याग के लिया प्रेरित करना होगा।”

इंग्लैण्ड में एक और विचारधारा थी। इस स्कूल ने स्वतंत्र प्रेस की वकालत की। लीसेस्टर स्टैनहोप, फ्रांसिस होम्स आदि ऐसे ब्रितानी थे जिन्होंने तर्क दिया कि “एक स्वतंत्र प्रेस अच्छी सरकार का सबसे सच्चा दोस्त, राजद्रोह और क्रांति के ख़िलाफ़ सबसे अच्छा संरक्षण था, और भारत के लिए विशेष रूप से आवश्यक था क्योंकि उसके लोगों के पास अपनी शिकायतें लाने का कोई अन्य तरीक़ा नहीं था; विशाल विवेकाधीन शक्तियों वाली सरकार के ध्यान में।” भारत में चार्ल्स मेटकाफ़ ने स्वतंत्र प्रेस के सिद्धांत का समर्थन किया। इस प्रकार, पत्रकारिता अपने प्रारंभिक काल में विभिन्न सिद्धांतों और मतों से घिर गई थी। इन दो सिद्धांतों के बीच रस्साकशी शुरू हो गई। 

औपनिवेशिक सरकार का प्रेस के प्रति व्यवहार

 ईस्ट इंडिया कंपनी, हालाँकि प्रेस से आशंकित थी, लेकिन समाचार पत्रों और साप्ताहिकों आदि के सम्बन्ध में कोई सामान्य नीति नहीं अपना सकी। शुरूआत में कंपनी ने सैन्य ख़ुफ़िया जानकारी और देशद्रोही प्रकृति की टिप्पणियों के प्रकाशन को रोकने के लिए कुछ प्रतिबंधात्मक क़दम उठाए। हालाँकि ऐसे लेख कम थे लेकिन लॉर्ड वेलेज़ली समाचार पत्रों में किसी भी आलोचना के प्रति असहिष्णु थे। वे समाचार पत्रों के संपादकों की पूरी जमात से नाराज़ थे। प्रेस को नियंत्रित करने के लिए लॉर्ड वेलेज़ली ने 1799 में नियम बनाए; जिसके अनुसार समाचार पत्रों को किसी भी पांडुलिपि, विज्ञापन सहित प्रूफ़ शीट के प्रकाशन से पहले सरकार की मंज़ूरी लेनी और दिखानी होती थी। इन नियमों का उल्लंघन करने पर संपादक को यूरोप निर्वासित करने का दंड दिया जा सकेगा। लॉर्ड मिंटो ने इन नियमों को धार्मिक पुस्तकों तक बढ़ा दिया। लेकिन, आश्चर्य की बात यह है कि यह जुर्माना अंग्रेज़ी प्रेस पर केवल इसलिए लगाया गया क्योंकि वे केवल ईस्ट इंडिया कंपनी के कार्यों और नीतियों की आलोचना कर रहे थे। वर्नाक्यूलर प्रेस (प्रचलित भाषा की पत्रकारिता) इन विनियमों के दायरे में नहीं था। 

मार्केस ऑफ़ हेस्टिंग्स का ध्यान उपर्युक्त नियमों की ओर आकर्षित हुआ। उन्होंने प्रेस विनियमों की विसंगतियों को दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने प्री-सेंसरशिप प्रेस विनियमन को समाप्त कर दिया और ख़तरनाक और आपत्तिजनक विषयों पर चर्चा को रोकने के उद्देश्य से समाचार पत्रों के मार्गदर्शन के लिए 1818 में नियमों का एक नया सेट तैयार किया गया। इस मसौदे को क़ानूनी तरीक़े से एक विनियमन में पारित नहीं किया गया था। क्योंकि इसके पास इसे क़ानून बनाने का का कोई अधिकार नहीं था। 

मार्केस ऑफ़ हेस्टिंग्स की कार्रवाई का भारत और मद्रास में ख़ुशी के साथ स्वागत किया गया। मद्रास के यूरोपीय निवासियों ने एक सार्वजनिक बैठक में लॉर्ड हेस्टिंग्स को एक सम्मान पत्र प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। यह सम्मान पत्र उन्हें कलकत्ता में प्रस्तुत किया गया था। इस सम्मान पत्र के उत्तर में लार्ड हेस्टिंग्स ने प्रेस की स्वतंत्रता के पक्ष में एक उल्लेखनीय भाषण दिया। उन्होंने कहा, “उनकी दृष्टि में प्रकाशन की स्वतंत्रता प्रजा का प्राकृतिक व मौलिक अधिकार है। यह सर्वोच्च प्राधिकरण के लिए तब ही हितकारी हो सकती है जब उसके इरादे सबसे नेक व शुद्ध हों। इससे सार्वजनिक जाँच व छानबीन पर नियंत्रण रखने में सहायता मिल सकेगी। वह इसके प्रति सचेत थे। यह सत्य है कि सामान्य टिप्पणियों से कंपनी का अधिकार प्रभावित नहीं होगा। इसके विपरीत उसे शासन करने में सक्षम ही बनायेगा।” 

लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्य उनके विचारों के अनुरूप थे। कलकत्ता जनरल के सम्पादक, बकिंघम ने बिशप के कार्यों और गवर्नर के दायित्वों पर एक टिप्पणी कर दी। उनकी इस आलोचनापूर्ण टिप्पणी ने जल्द ही आधिकारिक हलके में हंगामा मचा दिया। लॉर्ड हेस्टिंग्स सरकार ने बकिंघम से स्पष्टीकरण माँगा। उन्होंने बहुत ही उत्साहपूर्ण उत्तर दिया कि सरकार के फ़ैसले से प्रेस की स्वतंत्रता के मित्रों को काफ़ी पीड़ा होगी, क्योंकि यह वास्तव में राय/opinion की स्वतंत्रता को सेंसरशिप की तुलना में अधिक ख़तरनाक और अनिश्चित स्थिति में पहुँचा देगा। मुख्य सचिव डब्ल्यू.बी. काउंसिल के सदस्य बेली और एडम बकिंघम के विरोधी थे और उनकी काउंसिल 13 जनवरी 1823 तक जारी रही। लॉर्ड हेस्टिंग्स के बाद, जब एडम्स कार्यवाहक गवर्नर जनरल बने, तो उन्होंने तुरंत प्रतिशोध लिया। एडम और उनकी काउंसिल ने अधिक कुशल तरीक़े से कार्य करने का निर्णय लिया। प्रेस पर नियंत्रण का निर्णय लिया गया। उन्होंने प्रेस के सम्बन्ध में सख़्त नीति तैयार करने के लिए कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स से संपर्क किया। डब्ल्यू.बी. बेली द्वारा दर्ज परिषद के मिनट्स बहुत आँखें खोलने वाले हैं। इसमें दर्ज किया गया कि प्रेस की स्वतंत्रता, हालाँकि स्वतंत्र राज्य की प्रकृति के लिए आवश्यक है, मेरे विचार से, यह इस देश में हमारी संस्थाओं के चरित्र या भारत में हमारे प्रभुत्व की असाधारण प्रकृति के अनुरूप नहीं है। 1818 के प्रेस विनियमन को बदलने के लिए कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स को नियंत्रण बोर्ड से मंज़ूरी नहीं मिली। मद्रास में सेंसरशिप/अभिवेचन जारी रही। बंगाल और बम्बई सरकार ने प्रेस को स्वतंत्रता प्रदान की। परिणामस्वरूप, स्वतंत्र प्रेस पर चर्चा से कई अन्य मुद्दे भी सामने आए। इसने भारत और इंग्लैंड में राजनीति के दर्शन/philosophy of polity को रेखांकित किया। इसके बाद कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स ने एक नया प्रेस अधिनियम पारित करने के लिए ब्रिटिश मंत्रालय से संपर्क किया। इसके लिए क़ानून पारित करने के बजाय, सरकार ने सुझाव दिया कि स्थानीय अधिकारियों को प्रिंटिंग प्रेस के लाइसेंस देने या वापस लेने का अधिकार दिया जाए। इस पर कार्यवाहक गवर्नर जनरल एडम ने व्यावहारिक रूप से पुराने प्रतिबंधों को कठोरता से लागू किया। 14 मार्च, 1823 को उन्होंने प्रेस अध्यादेश जारी किया। नए अध्यादेशों के अनुसार किसी को भी काउंसिल में गवर्नर जनरल से हलफ़नामा दाख़िल कर लाइसेंस प्राप्त किए बिना समाचार पत्र या पत्रिका प्रकाशित नहीं करनी चाहिए। क़ानून के तहत, प्रत्येक विधायी/ क़ानूनी विषयक बात को न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना होगा। नए प्रेस अध्यादेश को 15 मार्च 1823 को पंजीकरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना था। प्रेस अध्यादेश के ख़िलाफ़ ज़ोरदार विरोध किया गया। भारतीय नेताओं ने भी इसके ख़िलाफ़ संवैधानिक तरीक़े से आंदोलन किया। राजा राम मोहन राय ने कलकत्ता के पाँच प्रतिष्ठित नागरिकों के साथ प्रेस अध्यादेश के विरुद्ध आपत्तियों की सुनवाई के लिए सर्वोच्च न्यायालय को एक ज्ञापन प्रस्तुत किया। मिस कोलेट, एक अँग्रेज़ महिला ने इस ज्ञापन को “एरियोपैगिटिका-ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री” कहा। मैकनाटेन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे; उन्होंने इसकी सुनवाई थी परन्तु वह राजा राम मोहन राय को कोई राहत नहीं दे सके। राजा राम मोहन राय ने Appeal to King in Council परिषद से एक अपील की। इस ज्ञापन को बहुत प्रतिष्ठित माना जाता था क्योंकि इसमें किसी विशेष भारतीय अधिकार की माँग नहीं की गई थी, बल्कि सभी लोगों के मौलिक तथा प्राकृतिक अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश की गई थी। मनुष्य के बिना किसी के हस्तक्षेप के ज्ञान प्राप्त करने पर स्वतंत्रता की बात कही। अर्थात्‌ मनुष्य को ज्ञान व सलाह, किसी भी प्राधिकारी के हस्तक्षेप के मुफ़्त पहुँच सके, उनके लिए क्या अच्छा है, क्या नहीं वह स्वयं तय कर सकें। अपने पाँच सहयोगियों के साथ राजा राम मोहन राय की इस गतिविधि ने एक नई प्रकार की राजनीतिक गतिविधि की शुरूआत की, जो लगभग एक शताब्दी तक भारत की विशेष विशेषता बन रही। डॉ. आर.सी. दत्ता ने कहा कि “यह राजनीतिक अधिकारों के लिए संवैधानिक आंदोलन की उस प्रणाली की शुरूआत थी, उनके देशवासियों इसके मूल्य आज की परिस्थितियों में समझना व सीखना होगा।” राजा राम मोहन राय ने इसके विरोध में अपने पत्र मिरात उल अख़बार के प्रकाशन को बंद कर दिया। 

कंपनी के गवर्नर जनरल लॉर्ड एमहर्स्ट को उनके आक़ाओं ने इंडियन प्रेस के ख़िलाफ़ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया था। इसलिए उन्होंने जहाँ तक सम्भव हो सके प्रेस की स्वतंत्रता को कम करने की कोशिश की। उन्होंने एक परिपत्र जारी किया कि ईस्ट इंडिया कंपनी के नौकरों को किसी भी तरह से सार्वजनिक प्रेस से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। लॉर्ड एमहर्स्ट ने 1827 में ‘कलकत्ता क्रॉनिकल’ को दबाने का प्रयास किया। लॉर्ड विलियम बेंटिक को एक उदार गवर्नर जनरल माना जाता था। परन्तु वह भी प्रेस की स्वतंत्रता के विचार के विरोधी थे। उनके अनुसार भारत में प्रेस को अत्यंत कठोर नियंत्रण में रखा जाना चाहिए। अतः उन्होंने प्रेस क़ानूनों में कोई बदलाव नहीं किया और न ही किसी प्रेस के विरुद्ध कोई कार्यवाही ही की। 

 प्रेस ने सर चार्ल्स मेटकाफ़ के संक्षिप्त प्रशासन में अपने सुनहरे दिन देखे, उन्होंने अध्यादेशों को फिर से लागू किया और भारत में पत्रिकाओं और प्रेस पर सभी प्रतिबंध हटा दिए। प्रसिद्ध प्रेस क़ानून 3 अगस्त 1835 को पारित किया गया था। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा था कि सभी भारतीयों और उदार अँग्रेज़ों के एक वर्ग ने इसकी लगभग उन्मादी सराहना की थी, लेकिन तब भी भारत और इंग्लैंड दोनों में प्रतिष्ठित और उदार विचारधारा वाले अँग्रेज़ों द्वारा भी प्रेस की स्वतंत्रता की निंदा की। 

एक अस्थायी गवर्नर जनरल द्वारा प्रेस क़ानून पारित करने से यह विवाद खड़ा हो गया कि क़ानून पारित करने की ऐसी क्या जल्दी थी। प्रेस की स्वतंत्रता के सामान्य मुद्दे पर सर मेटकाफ़ ने कहा कि भाषण और ज्ञान की स्वतंत्रता के बुनियादी सिद्धांतों पर अपनी कार्रवाई को उचित ठहराया और अपना पक्ष स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि पब्लिक चर्चा की स्वतंत्रता ज़ोर से बोलने की स्वतंत्रता से अधिक कुछ नहीं है। अपनी बात कहने तथा रखना लोगों का अधिकार था, जिसे रोकने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं था। थॉर्नटन ने तर्क दिया कि ज्ञान का प्रसार या राजनीतिक मामलों पर राय की अभिव्यक्ति दो अलग-अलग मुद्दे हैं। प्रेस क़ानून बाद वाले के लिए थे, पहले वाले के लिए नहीं। उदारवादी सोच वाले मुनरो और एलफिंस्टन भी थॉर्नटन की भ्रांतिपूर्ण धारणा को जान गये। 1832 में एलफिंस्टन ने कहा कि स्वतंत्र प्रेस के अपरिहार्य प्रभाव के रूप में यह सम्भव हो सकता है कि एक विदेशी सरकार, जो स्पष्ट रूप से तलवार के बल पर क़ायम है, ऐसी परिस्थितियों में लंबे समय तक टिकी नहीं रह सकती है। इस तरह एक छिपा हुआ संदेह सामने आ गया कि स्वतंत्र प्रेस लोगों को कंपनी सरकार के ख़िलाफ़ कर देगी। हालाँकि, चार्ल्स मेटकाफ़ ने इस तर्क को यह कह कर समाप्त कर दिया कि भारत में ज्ञान की वृद्धि से ब्रिटिश साम्राज्य मज़बूत होगा, वह नष्ट नहीं होगा। इसके अलावा, भविष्य में क्या होगा, यह कोई नहीं जानता, लेकिन ज्ञान को बढ़ावा देना, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता सबसे प्रभावी साधनों में से एक है, स्पष्ट रूप से सरकार का एक अनिवार्य हिस्सा था। उनके शब्दों में, “हम निस्संदेह उच्च उद्देश्यों के लिए यहाँ आए हैं, जिनमें से एक यूरोप के प्रबुद्ध ज्ञान और सभ्यता, कला और विज्ञान को भारत भूमि में प्रसारित करना है, और इससे यहाँ के लोगों की स्थिति में सुधार लाना है। निश्चित रूप से, प्रेस की स्वतंत्रता की तुलना में इन उद्देश्यों को पूरा करने की अधिक आवश्यक है।”

चार्ल्स मेटकाफ़ के तर्क था कि एशिया को अंधकार से मुक्ति दिलाना उनका प्रथम उद्देश्य था। इस प्रकार, प्रेस की स्वतंत्रता का विवाद भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा और संरक्षा के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया था। अधिकारी ख़तरे में पड़ने की रत्ती-भर भी सम्भावना बरदाश्त नहीं कर सकते थे, यहाँ तक कि छोटी से छोटी सम्भावना की अनदेखी नहीं कर सकते थे। हालाँकि स्वतंत्र प्रेस के समर्थक अपने दृष्टिकोण में काफ़ी स्पष्ट और ठोस थे, लेकिन भारत और इंग्लैंड में वे अल्पमत में थे। इसका दंड मेटकाफ़ को भुगतना पड़ा। उन्हें सरकार ने स्थायी गवर्नर-जनरलशिप को मंज़ूरी नहीं दी। उन्होंने कंपनी की सेवाओं से इस्तीफ़ा देना पड़ा। भारत सरकार ने 1835 से 1857 तक अगले 20 वर्षों में कोई प्रेस क़ानून पारित नहीं किया। नागरिक स्वतंत्रता का प्रश्न जारी रहा। 

निष्कर्ष

प्रेस की स्वतंत्रता पर विवाद के बीच भारतीय प्रेस रेंगती रही। झुँझलाहट, निराशा और अख़बारों के बंद होने के बावजूद, भारतीय प्रेस का धीरे-धीरे प्रसार हुआ। 1835 में उनका संख्या केवल 17 थी लेकिन 1853 में यह बढ़कर 37 हो गई। कुछ समाचार पत्र परिसंचरण, प्रसार में उनके पास 259 ग्राहक थे। भारतीय समाज के विभिन्न क्षेत्रों व राजनीति में प्रेस के प्रभाव का आकलन करना कठिन है। 

समाचारपत्रों का प्रचलन दिनों-दिन बढ़ता गया। 19वीं शताब्दी के मध्य में भारतीय समाचार पत्रों के प्रसार पर एक विश्वसनीय अनुमान से पता चलता है कि कलकत्ता के 8 बंगाली समाचार पत्रों के लगभग 1,300 ग्राहक थे। 200 प्रतियाँ कलकत्ता में खपत होती थीं और 151 कलकत्ता के बाहर डाक द्वारा भेजी जाती थीं। रेव जेम्स लॉन्ग मुद्रित बंगाली पुस्तकों की बढ़ती संख्या पर दिलचस्प प्रकाश डालते हैं। उनके अनुसार 1853 में बंगाली पुस्तकों की संख्या 300,000 थी जो 1857 में दोगुनी हो गई। कुछ बंगाली समाचार पत्र पंजाब तक व्यापक रूप से प्रसारित किए गए थे। 

अंग्रेज़ी अख़बारों की सदस्यता अधिकतर यूरोपीय लोगों द्वारा ली जाती थी। 1843 में कलकत्ता के अंग्रेज़ी पत्रों की 4,000 प्रतियाँ प्रचलन में थीं, जिनमें से केवल 125 की भारतीय थे। यह बहुत बड़ी संख्या थी, इससे पता चलता है कि अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे भारतीयों ने भी अंग्रेज़ी अख़बारों में रुचि दिखाई थी। भारतीय व्यक्तियों द्वारा अपने देश के हित की वकालत करने और उन सामाजिक, राजनीतिक बुराइयों को निष्पक्ष रूप से उजागर करने के लिए कुछ अंग्रेज़ी पत्र शुरू किए गए जिनसे वह पीड़ित थे। इस तरह भारत में प्रेस लाखों भारतीयों की समस्या निवारण के एकमात्र साधन/विकल्प के रूप में उभर कर सामने आया। 

भारत में समाचार पत्रों को समूहों में ऊँची आवाज़ में पढ़ा जाता था, इसके बाद आमतौर पर महत्त्वपूर्ण समाचारों पर चर्चा और प्रवचन होते थे। इस प्रकार यह समाचार दूर-दूर तक फैल जाते थे। समाचारपत्र पश्चिमी ज्ञान, विचार, संस्कृति, विचारधारा और राजनीतिक सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाने का साधन बन गए। पत्रों के सम्पादकीय उन्नत एवं उदार थे। उन्होंने सामाजिक-धार्मिक बुराइयों के पक्ष में जनमत जुटाया और भारत सरकार से अमानवीय प्रथाओं के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने का अनुरोध किया। 1823 का सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम इसका प्रत्यक्ष परिणाम था। भारतीय प्रेस ने चुपचाप लोगों को शोषण, भेदभाव, लालच, भाई-भतीजावाद, अन्याय आदि के बारे में जागरूक किया। औपनिवेशिक अत्याचारों को भारत के भीतर और बाहर, शिक्षित लोगों तक पहुँचाया गया। हालाँकि, इसने कभी नेतृत्व नहीं सँभाला लेकिन नागरिक स्वतंत्रता के प्रश्न को सतह पर लाने में अग्रणीय भूमिका निभाई. प्रेस के मूक और अगोचर धर्मयुद्ध ने भारत में कंपनी के शासन को विलुप्त कराने में सुदृह नींव तैयार करने का महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। 

डॉ. उषा रानी बंसल
प्रोफ़ेसर इतिहास विभाग
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
वाराणसी-221005

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