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विश्वविद्यालय में क्लास पढ़ाने का प्रथम दिन 

 

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में 1976 में पीएच. डी. कर लेने के बाद मुझे इतिहास विभाग में टेम्पोरेरी, अस्थायी लेक्चरर की नौकरी मिली। बनारस यूनिवर्सिटी के बहुत से क़िस्से, घटनाएँ रिसर्च के दौरान सुन रखे थे। साइंस, मेडिकल, इन्जिनियरिंग के स्टूडेंट्स को ठीक होते हैं पर ऑर्टस व सोशल साइंस के लड़के तो बहुत उजड्ड होते हैं। बड़े नेता होते हैं। किसी को कुछ नहीं समझते। झगड़ा करना, बात बात में कट्टा चलाना तो आम बात है। कुलपति भी छात्र संघ से घबराता है। ऐसी धारणा के साथ पहले दिन बी.ए. प्रथम वर्ष की कक्षा पढ़ाने जा रही थी। मन दुश्चिंताओं से घिरा था। क्लास में जैसे ही मैंने क़दम रखे क़रीब 40-45 लड़कों ने खड़े होकर अभिवादन किया। कुछ साँस में साँस आई। सबकी अटेंडेंस लेने लगी तो देखा आगे की बैंच पर एक लड़का, पहलवान-सा, गले में लाल गमछा लपेटे, बड़ी-बड़ी लाल आँखों वाला मुझे देखता हुआ बैठा था। उसे देख मुझे उस समय की पिक्चर का विलेन (शेट्टी, जग्गू दादा) याद आ गया। पता नहीं मन में यह लगता रहा कि जाने कब उठ कर वह मुझे मारने लगेगा। इस भय से मैंने पूरी क्लास उसी तरफ़ नज़र गड़ा कर के पढ़ाई। घंटा बजा तो चैन मिला। परन्तु वह ‘पांय लागी’ करता चला गया। (जान बची तो लाखों पाया-सी ख़ुशी हुई) 

पूरा कोर्स पढ़ाने के बाद परीक्षा कार्यक्रम घोषित हो गया। एक दिन रिक्शा से अपने विभाग पहुँचने ही वाली थी की भारत भवन के चौराहे पर उस गमछे वाले लड़के ने रिक्शा का हैंडल आगे से पकड़ कर रिक्शा रोक ली। मेरा मन एक बार भय से काँप गया। उसने चरण स्पर्श कर पूछा कि मैडम जी इम्पोर्टेंट बता दीजिए, मैंने कहा कि इम्पोर्टेंट के अतिरिक्त कुछ पढ़ाने का समय ही कहाँ मिला? फिर उसकी तरफ़ देखा तो वह ठीक है, कह कर चला गया। 

मुझे इसके बाद कभी किसी से डर नहींं लगा। 

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