खाने का सब रस ले लियो मोटापा
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी डॉ. उषा रानी बंसल25 Sep 2014
मीना के पेट में असह्नीय दर्द था। वह डाक्टर को दिखाने गई, डाक्टर ने पेट की जाँच पड़ताल करके दवाई लिख दी और कहा कि मोटापा सभी बुराईयों की जड़ है। कैसे भी करके अपना वज़न कम करिये। मीना असह्य दर्द से बेदम थी सोचने लगी कि इस मुए पेट के दर्द की जड़ भी मोटापा निकला।
यूँ तो मीना बहुत मोटी नहीं थी वरन् खाते-पीते घर की स्वस्थ महिला थीं पर जब से होश सम्हाला है तब से किसी ने पतली नहीं कहा। सभी उसे पतले होने की सलाह गाहे-बेगाहे देते रहे। वह जब 23-24 वर्ष आयु में उनका वज़न 45 किलो था तब भी और जब 65 किलो हुआ तब और अब जब 70 किलो के आस-पास है तब भी सलाह वही है। मोटी संज्ञा की लोच कितनी है, वह उनकी समझ से परे था। शायद यह भी व्यक्ति-व्यक्ति के लिये भिन्न भिन्न होती होगी। मोटाई की तासीर तो इससे भी लचीली है। मोटी-मोटी तोंद वाले नेताओं, सिपाहियों, और लालाओं को कोई ऐसा न कह पाता होगा। अथवा उनको मोटापे के कारण कोई रोग ही न होता होगा या उनका मोटापा ही अलग किस्म का होता होगा।
ऐसे विचारों में अचानक उसे अपनी हम उम्र ईना, चीनू, शुभ्रा आदि कई लड़कियों की स्मृति हो आई जो बहुत दुबली-पतली थीं। उन्होंने मोटा होने के लिये क्या कुछ नहीं किया। पूड़ी, परांठा, देसी घी का हलवा, रबड़ी, मालपुए, गुलाबजामुन, समोसा, कचौड़ी आदि जम कर खाती थीं पर क्या मजाल कि एक सूत भर भी चर्बी, हड्डी पर चढ़ जाये। एक दो की शादी पतली होने के कारण नहीं हो रही थी। चीनू बहुत दुबली थी। उसे देखने जो लोग आये उन्हें वह बहुत सुन्दर लगी पर रिश्ता मंजूर नहीं किया। उन्होंने कहा कि बाकी तो सब ठीक है पर लड़की जैसे बांस को सजा कर खड़ा कर दिया हो। मीना को वह दिन आज भी याद है जब चीनू ने रो-रो कर आँखें सुजा ली थीं। और वह सब उसे सांत्वना दे देकर भी चुप न करा पाई थीं। एक के पति ने उसे पतले होने के कारण मायके में छोड़ दिया। पतले होने का भी क्या कम दर्द है? परन्तु प्रयास करने से भी पतले स्त्री-पुरुष क्यों मोटे नहीं हो पाते? क्यों वही खाना या उससे कम–अधिक मात्रा में खाया खाना कुछ को मोटा कर देता है तो कुछ को मोटापे के लिये तरसा देता है।
डाक्टर कहते हैं कि बिना खाये कोई मोटा नहीं होता। परन्तु जो खाकर भी मोटे नहीं होते उसका कारण, राजफाश नहीं करते। मीना तो मोटापे की संज्ञा से इतनी भयभीत है कि बीमार होने पर भी डाक्टर के पास जाने से बचने का प्रयास करती है, जब मजबूरी में जाना पड़ जाये तब बड़े बुझे मन से जाती है, और बीमारी का आकलन मोटापे की तराजू पर करवा कर भारी मन से घर लौटती है। डाक्टर यह सलाह बिना फीस के साथ में दे ड़ालते हैं कि तला- भुना, घी, चावल, मिठाई नमकीन खाना छोड़ दें साग-सब्जी, सलाद खायें।
डाक्टर तो डाक्टर घर–परिवार के लोग, मित्र-बन्धू, हितैषी मिलने पर कुछ भी चर्चा करें घूम-फिर कर बात मोटे और मोटापे पर आकर टिक जाती। कुछ उपहास, कुछ मज़ाक, कुछ सहानुभूति का पुट लिये मोटापे की बातें होतीं। बड़े अदांज़ में लोग कहते कि भाई हम आपके अपने है इसलिये समझा रहे हैं कि अपना वज़न कम करो। मीना क्या सफाई दे उसकी उपस्थिति ही ख़ुद इसका प्रमाण है। उस पर जब मित्र बंधु समोसा, परांठा, रसगुल्ला आदि आवभगत में पेश की गई गरिष्ठ वस्तुओं को खाने का आग्रह करते तो मीना का कलेजा मुँह को आने लगता। आग्रह का ढंग भी बड़ा रुचिकर होता, भई हम मोटापा कम करने की सलाह दे रहे थे इसका अर्थ यह नहीं कि आप हमारे यहाँ ही कुछ न खायें। एक दिन ऐसे ही खाने ओर मोटापे के इज़हार व इसरार में मीना ने पूछ लिया कि बताइये किसके यहाँ न खायें? तो जबाब हाज़िर था कि एक दिन खाने से कोइ मोटा नहीं होता। रोज़-रोज़ तो न आप हमारे यहाँ आते हैं न हम खिलाते हैं। भला हो मोटापे की चर्चा का, हमने मित्रों के यहाँ जाना यह सोच कर कम कर दिया कि एक दिन तो गरिष्ठ भोजन कम होगा। बूँद-बूँद से सागर भरता है तो खाली भी होता होगा।
मोटापे ओर खाने के इस अतरंग संबंध ने भोजन के प्रति एक अपराध बोध मन में जगा दिया। कुछ भी खाते-पीते लगने लगा कि बेकार ही खा रहे हैं। शायद ख़ुद से ज़्यादती कर रहे हैं। किसी के घर स्नेह आग्रह से भोजन के लिये निमन्त्रण हो या कोई विवाह का अवसर, जन्मदिन आदि की पार्टी अथवा किसी से मिलने जाने पर रखा जाने वाला नाश्ता और अपने घर का नियमित भोजन-खाने का सब रस तो मोटापे का अहसास ही लूट लेता। खाना नीरस सा, स्वादरहित उदर पूर्ति या क्षुधा शान्ति का कारण बन गले से नीचे खिसक जाता। हाँ इसमें भी कभी-कभी बड़ी परीक्षा की घड़ी आ जाती जब भोजन या नाश्ता कराने वाला पूछ ले कि अमुक वस्तु कैसी बनी है ? आपको कैसी लगी ? उस समय हालत साँप के मुँह में छुछुदंर सी हो जाती ! अगर कहें कि अच्छी या प्रशंसा कर दें तो तुरंत और लीजिये का आग्रह, चुप रहें तो अभद्रता। क्या कहें कुछ समझ न पाती। उस समय हालत गूँगे के गुड़ सी हो जाती।
इससे भी विषम परिस्थिति तो तब उपस्थित होती जब मोटे को मोटा कहने पर बुरा नहीं मानना चाहिये आदि बातों के साथ मोटापे पर नियन्त्रण पाने के उपायों की विशद चर्चा के बाद कुछ भाग्यशाली लोग लबालब प्लेट भर कर खाते हुए चुटकी लेते हैं कि भई हम तो माँस-मुर्गे के बगैर खा ही नहीं सकते, ऐसा वैसा बीमारों सा खाना देखकर उबकाई आती है। इससे तो न खाना मंजूर, खायेंगें तो अच्छा ही खाना। मीना तब अक्सर अपनी प्लेट में रखी सलाद या थोड़ी सी सब्जी को देख कर सोचती – क्या भोजन का वास्तव में खाने से, स्वाद से या मोटापे से कोई संबंध है?
प्रत्येक चीज़ के दो पहलु होते हैं। इस मोटापे की चर्चा का बड़ा लाभ यह हुआ कि खाने के स्वाद के प्रति मोह छूट गया। सब प्रकार का भोजन समरस लगने लगा। खाना मात्र भोजन हो गया। स्वाद रस मोटापे में समा गया और खाना रस निरपेक्ष तथा स्वाद निरपेक्ष हो गया।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
60 साल का नौजवान
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | समीक्षा तैलंगरामावतर और मैं लगभग एक ही उम्र के थे। मैंने…
(ब)जट : यमला पगला दीवाना
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी | अमित शर्माप्रतिवर्ष संसद में आम बजट पेश किया जाता…
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
सामाजिक आलेख
- कुछ अनुभव कुछ यादें—स्लीप ओवर
- दरिद्रता वरदान या अभिशाप
- पूरब और पश्चिम में शिक्षक का महत्त्व
- भारतीय नारी की सहभागिता का चित्रांकन!
- मीडिया के जन अदालत की ओर बढ़ते क़दम
- वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र में धर्म
- सनातन धर्म शास्त्रों में स्त्री की पहचान का प्रश्न?
- समान नागरिक संहिता (ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में)
कविता
- आई बासंती बयार सखी
- आज के शहर और कल के गाँव
- आशा का सूरज
- इनके बाद
- उम्मीद का सूरज
- उलझनें ही उलझनें
- उसकी हँसी
- ऊँचा उठना
- कृष्ण जन्मोत्सव
- चित्र बनाना मेरा शौक़ है
- जाने समय कब बदलेगा
- प्रिय के प्रति
- बिम्ब
- बे मौसम बरसात
- भारत के लोगों को क्या चाहिये
- मैं और मेरी चाय
- मैसेज और हिन्दी का महल
- राम ही राम
- लहरें
- लुका छिपी पक्षियों के साथ
- वह
- वक़्त
- संतान / बच्चे
- समय का क्या कहिये
- स्वागत
- हादसे के बाद
- होने न होने का अंतर?
- होरी है……
- ज़िंदगी के पड़ाव ऐसे भी
ऐतिहासिक
- 1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय
- 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग
- औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति
- पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन?
- भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का एक दूसरा पक्ष
- शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .
- सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में
- सोलहवीं सदी: इंग्लैंड में नारी
- स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
- इक्कसवीं सदी में कछुए और ख़रगोश की दौड़
- कलिकाल में सावित्री व सत्यवान
- क्या तुम मेरी माँ हो?
- जब मज़ाक़ बन गया अपराध
- तलवार नहीं ढाल चाहिए
- नये ज़माने में लोमड़ी और कौवा
- भेड़िया आया २१वीं सदी में
- मुल्ला नसीरुद्दीन और बेचारा पर्यटक
- राजा प्रताप भानु की रावण बनने की कथा
- रोटी क्या है?: एक क़िस्सा मुल्ला नसीरुद्दीन का
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं