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राजा प्रताप भानु की रावण बनने की कथा 

 

(रामचरितमानस के आधार पर) 

 

आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि आज कल बड़ी चर्चा है कि रावण बहुत बुद्धिमान था। शास्त्रों का ज्ञाता था, शिव भक्त था, बलशाली था, तब भी हर बार दशहरे के दिन उसको जला देते है क्यों? एक बुद्धिमान व्यक्ति को इस तरह जलाना, क्या उचित है? कवि साहित्यकार आदि आज कल रावण को बहुत अधिक महिमा मंडित कर रहे हैं। शायद यह युग दुराचारी, खलनायकों आदि का है! रावण कौन था? कैसे बना? रामायण सीरियल इतनी बार प्रसारित होने के बाद भी बहुत से व्यक्तियों को इसके बारे में पता है? अतः आइये जानते हैं रावण के रावण बनने की कथा। 

भगवान शंकर गिरिजा को एक पुरानी कथा सुनाते हुए कहते हैं कि कैकय देश में सत्यकेतु नाम का एक धर्म धुरंधर नीति निपुण राजा था। जो बहुत शीलवान, प्रतापशाली तथा बलवान था। उसके दो जुड़वाँ पुत्र थे। दोनों ही गुणवान और रणवीर थे। बड़े पुत्र का नाम प्रताप भानु तथा छोटे का नाम अरिमर्दन था। दोनों भाइयों में बहुत प्रेम था दोनों ही वीर अपराजेय थे। सत्यकेतु ने संन्यास लेने से पहले बड़े पुत्र प्रताप भानु को अपना उत्तराधिकारी, राजा बना दिया। प्रताप भानु एक प्रजा वत्सल राजा था। उसकी धर्म में विशेष रुचि थी। उसका राज्य सम्पन्न, धन, धान से परिपूर्ण था। प्रजा सुखी थी। सर्वत्र शान्ति तथा अभय था। वह गुरु, सुर, संत, पितरों और महादेव की सदैव सेवा करता था। उसने राज्य में कुएँ खुदवाये, तालाब, सरोवर बनवाये, बग़ीचे लगवाये। सुमन वाटिकाएँ लगवाईं। उसका सचिव धर्मरुचि था। जो सदैव नेक, धर्म के अनुसार कार्य करने की सलाह देता था। वेद पुराण में जितने भी यज्ञ कहे गये हैं, राजा ने प्रेम सहित वह हज़ार-हज़ार बार किये। राजा के हृदय में यज्ञ करते हुए किसी प्रकार की कामना नहीं थी। अपने कर्मों को भगवान वासुदेव को अर्पित कर देता था। उसने अपने भाई के साथ मिलकर अपने राज्य का अतिशय विस्तार किया। वह पराजित राजा से राज्यकर लेकर (आधीनता स्वीकार करने वाले को) उसका राज्य उसे ही सौंप देता था। परन्तु कुछ पराजित राजा आधीनता न मान कर, उचित अवसर की ताक में वनों में जा छिपे। 

एक दिन प्रताप भानु राजा आखेट खेलने गया। एक जंगली सूअर का पीछा करते-करते हुए वह अपने सैनिकों, साथियों से बिछड़ गया। उसने सूअर को निशाना बना कर तक तक के बहुत से तीर चलाये पर वह मायावी सूअर कभी इस झाड़ी के पीछे नदारद हो जाता, फिर पास में ही दिखने लगता। ऐसे शिकार का पीछा करते-करते राजा को बहुत प्यास लगने लगी। बेचैन होकर वह पानी की खोज करने लगा। तब उसे एक आश्रम दिखाई दिया। वहाँ पहुँचने पर उसे एक मुनि भी आँखें मूँदे तप करता हुआ दिखाई दिया। राजा ने जैसे ही उसके आश्रम में प्रवेश किया वह महामुनि, बने कपटी राजा ने उसे पहचान लिया, परन्तु प्रताप भानु ने जो प्यास से बेहाल था, उसका वेष, आश्रम देख कर उसे महामुनि समझ लिया। वह उस पराजित किये हुए राजा को नहीं पहचान सका। उस कपटी मुनि ने राजा को प्यासा देख कर उसे सरोवर दिखाया। जहाँ राजा ने मज्जन कर जल पिया। मुनि ने राजा का परिचय पूछा तो उसने स्वयं को प्रताप भानु का मंत्री बताया। मुनि ने कहा कि अब तो रात होने को आई, रात्रि में रास्ता भी नहीं सुझाई देगा, आपका राज्य सत्तर कोस है। मैं अपने दिव्य चक्षुओं से उसे देख रहा हूँ। आज रात इसी आश्रम में विश्राम करें, भोर होने पर चले जाइयेगा। 

राजा उसकी बातों में आ गया। उसने अपना घोड़ा पेड़ से बाँध दिया। अब कपटी मुनि राजा को उसका भूत भविष्य बताने लगा, क्योंकि वह सब कुछ पहले से जानता था। धीरे-धीरे राजा को उस पर विश्वास होता गया। कपटी ने राजा को अपने त्रिकालदर्शी होने का भी उसे यक़ीन दिला दिया। स्वयं को एकतनु बताया कि जब सृष्टि बनी उसके बाद उसका जन्म हुआ। तब से वह उसी तन, शरीर में है। उसने ख़ुद को बहुत सिद्ध, पहुँचा हुआ संन्यासी बताया। राजा जो सरल हृदय था उससे प्रभावित होता चला गया। तुलसी दास जी ने लिखा है कि जैसा भविष्य में होने वाला होता है वैसी ही स्थितियाँ बन जाती हैं, “होनी हो कर रहती है”। उसने राजा से कहा कि राजा जो चाहें माँग ले वह उसे प्राप्त करवा सकता है। बस आप अपनी इच्छा बतायें। तब राजा ने उसे अपना वास्तविक परिचय दिया और उस कपटी के पैर पकड़ कर क्षमा माँगी। जिस राजा के मन में कोई कामना नहीं थी, कपटी की संगत से लालसा पैदा हो गई। वह कपटी मुनि के चरणों को पकड़ कर बोला कि आप ही मेरे हितैषी हैं। (कपटी मुनि व राजा का वार्तालाप क़रीब १५८-१७५ दोहों में बालकांड, रामचरितमानस से पढ़ सकते हैं) रावण को जानने के लिये पढ़ना चाहिए। संक्षेप में राजा को जब मुनि पर पूरा भरोसा हो गया, वह बोला, “मुनि! आपका दर्शन करने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों फल मेरे हाथ में आ गये, तो भी आपको प्रसन्न कृपा पूर्ण देख कर ये दुर्लभ वर माँग कर शोक रहित होना चाहता हूँ।” मुनि ने उसके मन की बात जान कर कहा—तात कोई भी वर माँग लो। तब राजा ने उसने अपनी अभिलाषा इस प्रकार बताई: 

दोहा। 
“जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ। 
एक छत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥” (बाल कांड, १६४) 

उस कपटी तापस ने कहा कि राजा ऐसा ही होगा पर इसमें एक कठिनाई है। 

तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं, उनके क्रोध से कोई रक्षा नहीं कर सकता। हे! नरपति यदि आप ब्राह्मणों को वश में कर लो तो ब्रह्मा, विष्णु महेश भी आपके अधीन हो जायेंगे। दोनों भुजाओं को उठा कर कहता हूँ कि विप्रों के प्रसन्न होने पर आपको कोई भी परास्त नहीं कर सकेगा। उसने कहा कि तप में बड़ा बल होता है। सृष्टि की रचना ब्रह्मा जी ने तप के बल से की। इस तरह उसने यज्ञ तथा तप का बहुत गुणगान कर राजा के मन पर अधिकार कर लिया। राजा ने उससे ब्राह्मणों को ख़ुश करने का उपाय पूछा। तब वह कपटी बोला, “एक साल तक प्रतिदिन सत सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प कर लीजिये। वह ब्राह्मण जप, यज्ञ आदि करेंगे आप उनका सत्कार, पूजा करना। जो ब्राह्मण आपका अन्न प्राप्त करेंगे वह सब आपको आशीर्वाद देंगे, यह अटल सत्य है। आपको इसमें कष्ट नहीं होगा। मैं सब रसोई बनाने का उत्तरदायित्व लेता हूँ परन्तु किसी के सामने नहीं आऊँगा। आपके सचिव को ले आऊँगा, उसके साथ मिल कर आप ब्राह्मणों का स्वागत करना, ब्राह्मणों को भोजन परोसना। 

“इसमें एक कठिनाई है कि मैं जब से पैदा हुआ हूँ सदैव छुप कर ही वन में रहता हूँ; कभी किसी नगर में नहीं गया। पर रसोई की सामग्रियों को एकत्रित करने के लिये जाना होगा।”

तब सरल स्वभाव धर्मनिष्ठ राजा ने कहा, “आप जैसे महामुनि तो दूसरों के उपकार के लिये कष्ट सहते हैं। आप यह जेवनार कराने के लिये राज्य में चले जायें।”

तब कपटी ने कहा कि मैं आज से तीन दिन बाद मिलूँगा परन्तु तब मैं भेष बदल कर आऊँगा। मैं आपको ख़ुद ही अपनी पहचान बता दूँगा। आपके उपरोहित को लेकर आऊँगा। ऐसा कह कर वह कुटी से चला गया। 

कपटी राजा का साथी कालकेतु, जिसने सूअर बन कर राजा को छकाया था, वहाँ आया। कालकेतु के सौ पुत्र व दस भाई थे। सबने मिल कर प्रताप भानु के विनाश का षड्यंत्र रचा। राजा के उपरोहित का अपहरण कर उसे गुफा में बंद कर दिया। मायावी को उपरोहित बना कर कुटी में ले आया। कपटी ने कुटी में छप्पन प्रकार के व्यंजन बनाये परन्तु उसमें जानवरों का मांस भी राँध दिया। 

तीसरे दिन से ब्राह्मणों का आगमन शुरू हुआ, राजा ने सबका स्वागत किया, चरण धुलवाये, पूजा की। यज्ञ इत्यादि के बाद जब राजा ने ब्राह्मणों को भोजन परोसा तो तभी आकाशवाणी हुई कि, “यह भोजन अपवित्र है, मांसाहारी है।” चकित राजा भोजनालय की ओर दौड़ा परन्तु वहाँ न मुनि था न भोजन। जो काम राजा को पहले करना चाहिए था वह उसने बाद में किया। बुरा वक़्त आने तथा कामना की पूर्ति में बस कर, अंधा हो जाने के कारण राजा ने ऐसा नहीं किया। जिसके दण्ड स्वरूप उसे ब्राह्मणों का श्राप सहना पड़ा। सब ब्राह्मण खड़े हो गये। ऐसे नीचता का कुकर्म व पापाचार, ब्राह्मणों का अपमान करने के लिये राजा को ब्राह्मणों ने श्राप दे दिया, “तुम परिवार सहित राक्षस हो जाओ, तेरे सम्पूर्ण कुल का नाश हो।” राजा, जिसने भोजन परोसने से पहले भोजन की जाँच नहीं की थी, कपटी पर अंधविश्वास किया था, घबरा गया। ब्राह्मणों से अनुनय विनय करने लगा, क्षमा माँगने लगा। उनके चरणों में गिर गया। पर ब्राह्मण बहुत क्रोधित थे। तभी देवताओं ने नभ वाणी की कि इसमें प्रताप भानु का कोई दोष नहीं है। तुलसीदास जी ने लिखा है: 

“भूपति भावी मिटई नहिं जदपि न दूषन तोर। 
किएँ अन्यथा होई नहिं बिप्र श्राप अति घोर॥” (बालकाण्ड दोहा १७४) 

राजा का विनाश रचने वाले कपटी राजा ने सभी पराजित राजाओं को सूचना भिजवा दी कि यह प्रताप भानु के अंत का समय आ गया है, आओ! सब मिल कर उस पर उस पर आक्रमण करें। सबने प्रताप भानु के राज्य पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया। दोनों भाई युद्ध गति को प्राप्त हुए। इस तरह सत्यकेतु के कुल का नाश हो गया। 

रावण का जन्म और जीवन 

कुछ काल बाद प्रताप भानु का पूरा परिवार राक्षस बन कर जन्म लेता है। तुलसीदास जी ने उसके जन्म के बारे में लिखा है कि पूर्व जन्म में धर्मनिष्ठ होने के कारण उसका जन्म: 

“उपजे जबकी पुलस्त्य कुल पावन अमल अनूप। 
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥” (बालकाण्ड १७६) 

प्रताप भानु, रावण बना जिसके दस सिर व बीस भुजाएँ थीं (उसमें दस व्यक्तियों/कम्प्यूटर का दिमाग़ तथा बीस व्यक्तियों जितना अकेले ही बल था) अरिमर्दन, उसका भाई कुंभकर्ण बना। सचिव सौतेला भाई विभीषण बना। तीनों ही बहुत बलशाली थे। तीनों ने ही घोर जप-तप किये, और विष्णु, शिव आदि देवी देवताओं से बहुत से वरदान प्राप्त कर लिये। रावण ने ये वर माँगा कि मैं मनुज तथा बानर को छोड़ कर किसी के द्वारा नहीं मारा जाऊँगा! कुंभकर्ण को 6 मास सोने का वरदान मिला। विभीषण ने भक्ति का वर माँगा। बाक़ी सबने शक्ति, अजर, अमर रहने और भोग-विलास आदि माँग लिया। इस तरह वरदान पा कर, एक बार रावण ने अपना बल नापने के लिये कैलाश पर्वत ही उठा लिया। 

मय दानव की बिटिया परम सुंदरी थी। उसका नाम मंदोदरी था। मय दानव ने मंदोदरी का विवाह रावण से कर दिया। मय दानव समझ गया था यही आने वाले समय में राक्षसों का राजा होगा। समुद्र के बीच त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बड़ा भारी क़िला था, जिसके कारीगर कुशल व मायावी थे। मय दानव ने त्रिकूट को सजा दिया। मणियों से जड़ित उसमें अनगिनत महल थे। यह क़िला पाताल लोक की भोगावती पुरी, स्वर्गलोक की अमरावती पुरी से भी सुंदर था। जगत में उसका नाम लंका जाना गया। भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावण) होगा। वह बड़ा योद्धा शूरवीर, प्रतापी, अतुलित बलवान होगा, अपने परिवार तथा सेना के साथ वहाँ बसेगा। पहले वहाँ राक्षस रहते थे। जो योद्धा थे। देवताओं ने उन्हें युद्ध में हरा कर मार दिया। इन्द्र की प्रेरणा से कुबेर वहाँ एक करोड़ यक्षों, रक्षकों के साथ रहने लगा। रावण को जब इसकी सूचना मिली तो उसने त्रिकूट पर आक्रमण पर दिया। यक्ष जान बचा कर भाग गये। तब रावण ने घूम-घूम कर सारा क़िला देखा और वहीं रहने का निर्णय किया। इससे उसके निवास स्थान की रही सही चिंता समाप्त हो गई। उसने लंका को अपने अधीन कर लिया। राक्षस परिवार के साथ रावण वहाँ रहने लगा। 

एक बार इन्द्र पर आक्रमण कर उसका पुष्पक विमान छीन लिया। 

सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना जय, प्रताप बल, बुद्धि, और बड़ाई—ये सब उसके ऐसे ही बढ़ते जाते थे जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे। उनमें दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठ कर रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा। उन सबको देख कर रावण क्रोध व अभिमान से बोला, “समस्त राक्षस सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं, वे सामने आकर युद्ध नहीं करते पर बलवान को देख कर भाग जाते हैं। उनको एक ही प्रकार से मारा जा सकता है। सब बहुत ध्यान से सुनो। ब्राह्मणों को भोजन-यज्ञ, हवन और श्राद्ध पूजा आदि से उन्हें बल मिलता है। इन सब में जाकर तुम बाधा डालो जब देवता बलहीन होकर मेरे पास आयेंगे, तो उन्हें पराधीन कर छोड़ दूँगा।” अपने पुत्र मेघनाद को भी ऐसा करने की आज्ञा दी। सब राक्षस व मेघनाद रावण की आज्ञा का पालन करने लगे। देवता सुमेरु पर्वत की गुफाओं में छिप गये। दिक्पालों के सारे लोक रावण को सूने मिले। तब वह बार-बार गरजने लगा। देवताओं को गालियाँ देने लगा। रण में मदमस्त हो कर वह सबको युद्ध के लिये ललकारता घूमने लगा। उसने चंद्रमा, कुबेर, अग्नि, काल, यम और जल को अपना दास बना लिया। किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग सभी के पीछे पड़ गया। ब्रह्मा जी की सृष्टि में जितने भी शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे सब रावण के अधीन हो गये। तुलसीदास जी ने लिखा है: 

“भुजबल विस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र। 
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥” (बालकाण्ड १८२) 

उसने देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत सी सुंदर नारियों से अपनी शक्ति के बल से विवाह कर लिया। रावण की आज्ञा से मेघनाद तथा सभी राक्षस मायावी शरीर धारण कर धर्म को निर्मूल करने का काम करने लगे। 

गाय, ब्राह्मणों को जहाँ-जहाँ पाते वहाँ आग लगा देते। भक्ति ज्ञान, यज्ञ, तप, वेद पुराणों का पठन-पाठन सब बंद हो गया। 

तुलसीदास जी ने लिखा है: निशाचरों ने घोर उत्पात मचाया। लंपट, चोर, जुआरी, दूसरे के धन को हथिया लेने वाले, माता-पिता की बात न माने वाले, साधु-संन्यासियों से सेवा करवाने वाले, व्यक्तियों को नाना प्रकार के कष्ट देने वाले आततायी बढ़ने लगे। सब जगह भय, हिंसा, चोरी डकैती, अपहरण (जैसे वर्तमान में दिखाई दे रहा है) यौनाचार का बोल बोला हो गया। रावण अपने अभिमान में इतना अंधा हो गया कि सच झूठ की जाँच पड़ताल, परीक्षण करना भी बंद कर दिया। शूर्पणखा की नमक मिर्च लगा कर कही बात को, बिना जाने कि शूर्पणखा ने क्या किया? सच्चाई का पता लगाये बिना सीता हरण की योजना बना ली। अपने मामा मारीच के समझाने के बाद भी वह नहीं माना और उसने कंचन मृग बन कर सीता (जो कनक भवन त्याग कर वन में चली आई थी) के मन में, सोने के हिरन के लिये, माया से लालसा पैदा करवा दी। फिर धोखे से सीता का अपहरण कर लिया। 

ऐसा था रावण की जीवन चरित्र। 

नोट: पिछले ३० सालों से हिंसा, बलात्कार, चोरी, शराब, डकैती, आतंकवादी, अराजकतावादी, लंपट, खलनायकों को महिमा मंडित किया जा रहा है। सीधे सरल, न्यायप्रिय, मेहनत से धन कमाने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है। जिनके पास धन है उनसे लूट कर ग़रीबों को पक्ष में करने के लिये सहायता राशि दे कर पापाचार को न केवल बढ़ावा दिया जा रहा वरन्‌ महिमा मंडित भी किया जा रहा है। बहुत से कवि साहित्यकार इसी तर्ज़ पर रावण का गुणगान कर रहे हैं। यह सब करने से पहले उनसे निवेदन है कि एक बार तुलसीदास लिखित रामचरितमानस में वर्णित रावण का युग पढ़ें और अन्य ग्रंथों से भी इस विषय का ज्ञानार्जन करें। सही बात हर युग में सही होती है। असत्य का प्रचार, प्रसार हो सकता है पर सत्य सत ही रहता है। हिरन के लिये, माया से लालसा पैदा करवा दी। फिर धोखे से सीता का अपहरण कर लिया। 

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