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नयी ’कोरोनाखड़ी’

कहते हैं कि एक व्यक्ति को अपनी रुचि के व्यवसाय या नौकरी में जाना चाहिये तो उसका कार्य बोझ न होकर एक खेल की तरह रोचक हो जाता है। कोरोना की दो लहरें देखने के बाद हमने भी अब सोचा कि नौकरी मिलना तो बहुत दूर की बात है; ये समय तो उलटा नौकरी जाने का चल रहा है। जो इस आपदा की भयंकर भँवर में अपनी नौकरी रूपी हिचकोले खाती किश्ती को डूबने से बचा ले, वो सबसे बड़ा भाग्यशाली है। भाग्यशाली वो भी रहा जिसे मौत के बाद अपने क्रियाकर्म के लिये लाईन में न लगना पड़ा हो। वो तो अति भाग्यशाली रहा जिसके रिश्ते-नाते के चार लोग, उसके बोल जाने के समय में, राम नाम सत्य बोलने आ गये। नहीं तो क्या इलाज चला, कित्ती आक्सीजन लगी कि नहीं लगी। रेमडेसिविर असली रहा कि नक़ली, कब साँसें उखड़ गयीं और कब पालीथीन में पैक होकर विश्राम घाट की ओर ठेले में ही ठेल दिये गये . . . कोई नहीं जानता। भाग्यशाली तो वो परिजन भी रहे जिनको कोरोना द्वारा ज़िंदगी से ही सदैव के लिये ठगे गये सगे की अस्थियाँ सही-सलामत मिल गयी हों। 

आजकल सारे श्रमजीवी सब्ज़ी-भाजी, फल-फूल का, तो सारे बुद्विजीवी आनलाईन कुछ न कुछ ज्ञानोपदेश का कारोबार कर रहे हैं। हम ठहरे बुद्विजीवी तो ये ज्ञानोपदेश देने का काम रुचिकर लगा। हमने एक निजी स्कूल खोल लिया। कारण यहाँ स्वतंत्रता के साथ भरपूर स्वछंदता होती है। जैसे कि फ़ीस अपनी मन मर्ज़ी से चाहे जित्ती बढ़ा-चढ़ा कर रखो। वहीं दूसरी ओर स्टाफ़ को घटा-झुका कर न्यूनतम वेतन दो। चहेती पुस्तक दुकान विशेष से ही महँगी पुस्तकें क्रय करने अभिभावकों को मजबूर करना। यूनिफ़ॉर्म भी अपनी मन की तय कर दो। ज़रूरत पडे़ तो अपने ख़ास कटपीस वाले के यहाँ जो कोई थान कई सालों से न बिक रहा हो उसका भाग्योदय कर देना। यानि कि शिक्षा के व्यवसाय में स्वछंदता कटहल के पेड़ में लटके कटहल की तरह स्कूल में हर जगह लटकी हुई मिलती है। स्कूल की छोटी से छोटी एक्टीविटी में इसका स्कोप होता है। नान रिफ़ंडेबल फ़ंड विकास फ़ंड के नाम से चाहे जितनी राशि एडमीशन के समय पेरेन्टस् के जेब से निकलवा लो। कोई उफ़्फ़ नहीं कर सकता। जब स्कूल न लगे तब की भी बस फ़ीस परंपरागत फ़ॉर्मूला के तहत अप्रैल में एक सप्ताह, जून में पाँच दिन का स्कूल मात्र और तीन महीने का भरपूर बस चार्ज ले लो। पेट्रोल का दाम बढे़ तो इसे बिंदास बढ़ा दो और जब घटे तो बिंदास कुछ मत करो। अब आप बताओ कि पग-पग नोट छापने की इतनी स्वछंदता कहाँ मिल सकती है! थोड़ी बहुत अख़बारखबाज़ी हर साल होती है पर आज तक हमारी स्वतंत्रता व स्वछंदता के अधिकार को कोई ख़त्म नहीं कर पाया है। 

इसी स्वछंदता को आगे बढ़ाते हुये हमने सोचा है कि हम अपने नये स्कूल में अब नयी कोरोनाखड़ी के नाम से बच्चों को नयी बारहखड़ी पढ़ायेंगे। वैसे भी बच्चे पीढ़ी दर पीढ़ी ए फ़ॉर एपल, बी फ़ॉर ब्वाय, सी फ़ॉर कैट से जमकर बोर हो गये हैं। ये किताब अलग से छपवा कर अनिवार्य की जायेगी। पहले अंग्रेज़ी वाली आपके सामने, आपके कमेंटस् हेतु है। 

ए फ़ॉर एम्फेटेरीसिन बी, बी फ़ॉर ब्लैक फंगस, सी फ़ॉर कोवैक्सीन, डी फ़ॉर डेल्टा वेरिऐंट, ई फ़ॉर इम्यूनिटी, एफ फ़ॉर फ़ीवर क्लीनिक, जी फ़ॉर गेम चेंजर वैक्सीन, एच फ़ॉर होम आईसोलेशन, आई फ़ॉर आईवरमेक्टिन, जे फ़ॉर जेके हास्पिटल नक़ली रेमडेसिविर स्कैम, के फ़ॉर किल टू कोरोना केम्पेन, एल फ़ॉर लाक डाऊन,एम फ़ॉर मोरबिडिटी, एन फ़ॉर एन 99 मास्क, ओ फ़ॉर आक्सीजन बेड, पी फ़ॉर पीपीई, क्यू फ़ॉर क्वेरेंटीन, आर फ़ॉर आरटीपीसीआर, एस फ़ॉर स्पूतनिक, टी फ़ॉर टोटल लॉक डाऊन, यू फ़ॉर अनलॉक, वी फ़ॉर वेरिऐंट ऑफ़फ कन्सर्न, डब्ल्यू फ़ॉर वुहान, एक्स फ़ॉर एक्स कोरोना पेशेन्ट, वाई फ़ॉर यैलो फंगस, जेड फ़ॉर जिंकोविट। ये कोरोनाखडी़ बच्चों को बहुत सरल व रोचक लगेगी और कोरोना के बारे में उनका ज्ञान भी बढे़गा।

अगली बार नयी कोरोना हिन्दी वर्णमाला आपके सामने प्रस्तुत की जायेगी। वैसे भी अंग्रेज़ी का आगे रहना ज़रूरी है नहीं तो हमारे नौनिहाल जीवन की रेस में पिछड़ जायेंगे। हिन्दी की बात तो वैसे भी हम हिन्दी दिवस में साल में एक बार जमकर कर कर ही लेते हैं। ग्रामीण माँ-बाप भी अपने लाड़लों को टाई लगाकर स्कूल वैन में कान्वेंट स्कूल जिसकी स्पेलिंग भी बोर्ड में ठीक से न लिखी हो और जो अगले चैराहे पर हो, में ही भेजना पसंद करते हैं। मेरा स्कूल ख़ूब दौडे़गा मन में है यह विश्वास हम इसी सत्र हो जायेंगे कामयाब। 

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टिप्पणियाँ

राजनन्दन सिंह 2021/07/15 08:10 PM

शानदार व्यंग्य। कहने को भारत में शिक्षा मुफ़्त है। पर वास्तव में बहुत महंगी है।

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