ख़ामोशी की चहारदीवारी
काव्य साहित्य | कविता डॉ. आरती स्मित15 Jun 2020
तुम्हारी ख़ामोशी की चहारदीवारी
अक़्सर बरजा करती है
उसके भीतर से लहकती
ज्वाला की लपटें
बेतरह झुलसा जाती हैं
हरियाली मन की!
तुम खोल क्यों नहीं देते
कोई एक सिरा?
यों आपस में जुड़े रहने की
विवशता तो न होगी
उन अभेद्य दीवारों को
जिन्हें तुमने ही खड़ा किया है
...
क्या तुम्हें भय था
चुप्पी के बिखरने का
जो उसे क़ैद कर दिया?
क्या तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रही
बरजने की कठोर ध्वनि
मानो ढहाकर ही मानेगी
सबकुछ तितर-बितर होने से
बचाने की तुम्हारी कोशिश
क्या कहूँ, कितनी नाकाम रही है!
काश!
तुमने क़ैद न किया होता उसे
बह जाने दिया होता
तो बच जाती हरियाली
बच जाते तुम
अपनी ही ज्वाला की झुलसन से!
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