प्रिय मित्रो,
साहित्य कुंज के इस अंक को देखते हुए मैं बहुत उत्साहित हूँ, जिसके कई कारण हैं। पहला तो यह कि बहुत देर के बाद आत्मविश्वास होने लगा है कि साहित्य कुंज नियमित हो रहा है। लेखकों का सहयोग और पाठकों का उत्साह निरंतर बना हुआ है। डॉ. शैलजा सक्सेना की आलेख शृंखला "इसी बहाने से" की प्रतिक्रिया में आई एक ई-मेल ने एक नई ऊर्जा प्रदान की। ई-मेल लेखक ने पिछले अंक में प्रकाशित आलेख की चर्चा तो नहीं की थी परन्तु शैलजा के फोल्डर में जैनेन्द्र के आलेख के बारे में लिखा। मेरे उत्साह का कारण था कि पाठक साहित्य कुंज के मुख-पृष्ठ से आगे निकल कर आंतरिक स्तर तक पहुँचा और उसने पूर्व-प्रकाशित आलेख पढ़ा। मुझे लगा कि मेरा उद्देश्य पूरा हो गया। साहित्य कुंज एक ऐसी वेबसाइट बनती जा रही है, जो ऐसे साहित्यिक आलेखों का कोश होगी जिन्हें पाठक बार-बार पढ़ना चाहेंगे।
इस अंक में डॉ. शैलजा सक्सेना द्वारा लिखित "कविता, तुम कहाँ, कहाँ रहती हो?" आने वाले आलेखों की भूमिका है। तथाकथित प्रवासी साहित्य की गहरायी से चर्चा "प्रवासी" ही करे तो वह अधिक सार्थक होगी। इस अंक में रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु" जी ने "भाषा एक संस्कार" में महत्वपूर्ण पथ-प्रदर्शन किया है। दैनिक भाषा में दिन-ब-दिन बढ़ती अश्लीलता, बौद्धिक दिवालियेपन का द्योतक है। पश्चिमी साहित्य तो इस गर्त में समा ही रहा है, भारतीय "आधुनिक समाज" की दैनिक भाषा में विदेशी गालियाँ इस तरह से घर कर रही हैं कि उनके बिना वाक्य पूरा होता ही नहीं। इस बात पर मुझे एक पुराना अनुभव याद आ रहा है, जिसकी चर्चा यहाँ पर उपयुक्त लग रही है।
बात सन् १९७७ की ग्रीष्म ऋतु की है। उस समय मैं फ़ेयर फ़ील्ड, न्यू जर्सी, यू.एस.ए. में प्रशिक्षण के लिए तीन महीने के लिए गया हुआ था। दोपहर के समय टी.आर.डबल्यू डैटा कॉर्पो. के कैफ़ेटेरिया में इकट्ठे भोजन करने वालों के ग्रुप बने हुए थे। हमारे ग्रुप में एक सेक्रेटरी डोर्थी भी होती थीं। उम्र यही पचास से थोड़ा ऊपर रही होगी। हम सब लोग अभी तीस से नीचे के ही थे। वह हमेशा हम लोगों के साथ वात्सल्य भाव से बात करतीं। मेरे सिवाय बाकी के पाँच लोग यू.एस.ए. के विभिन्न राज्यों से थे। मैं कैनेडा से गया था। एक दिन चर्चा भाषा में अश्लीलता की चल पड़ी। डोर्थी को आपत्ति अमेरिका के उत्तरी राज्यों से अधिक थी। क्योंकि दक्षिणी राज्यों में भाषा की शिष्टता संस्कार की तरह बचपन से सिखाई जाती है। शिष्टता तो उत्तरी राज्यों में भी है परन्तु जो मिठास और विनम्रता दक्षिणी राज्यों में है वह उत्तर में नहीं। डोर्थी ने बातों बातों में बताया कि पहली बार फ़िल्म स्क्रीन पर "डैम (Damn)" शब्द "गॉन विद द विंड" के आख़िरी सीन में सुनने को मिला था, जब रेह्ट बटलर (क्लार्क गेबल) नायिका स्कार्लेट हो’हारा (विवियन ली) से कहता है, "फ़्रैंक्ली, माई डियर, आई डों’ट गिव ए डैम"। डोर्थी के अनुसार, "दर्शकों के लिए यह इतना बड़ा झटका था कि वह सकते में आ गये, लोग साँस तक लेना भूल गए। मुँह खुले के खुले रह गए"। क्योंकि इस फ़िल्म के कथानक के अनुसार रेह्ट बटलर को दक्षिणी यू.एस. वासी दर्शाया गया था। उससे ऐसी भाषा की उम्मीद नहीं थी। अगर देखा जाए "डैम" कोई सामाजिक गाली न होकर "धार्मिक" श्राप अधिक है। फिर भी उस समय समाज को यह शब्द सार्वजनिक स्थल पर स्वीकार्य नहीं था।
हॉलीवुड की आज की फ़िल्मों को देखें तो गालियों के बिना कोई बात पूरी होती ही नहीं, जो कि समाज की आम बोल-चाल की भाषा का प्रतिबिम्ब है। दो पीढ़ियों में समाज में भाषा का पतन कहाँ से कहाँ तक हो गया। दुःख की बात तो यह है कि भारतीय शिष्ट समाज इस अशिष्टता को आधुनिकता की आड़ में अपना रहा है। फ़िल्मों में तो इसका प्रभाव दिखने लगा है, डर तो यह है कि कहीं साहित्य भी इसकी चपेट में न आ जाए। हिमांशु जी ने अपने आलेख में इस दायित्व के प्रति शिक्षकों और अभिभावकों को सचेत किया है। इस अंक में छपी कविता मैंने कुछ गालियाँ सीखी हैं (डॉ. मनीषकुमार सी. मिश्रा) भी इसी रुझान पर कटाक्ष करती है।
तीसरी चर्चा मैं डॉ. रश्मि शील शुक्ला द्वारा लिखित लोककथा बहेलिया और कबूतरी की अवश्य करूँगा। लोककथा तो पुरानी है परन्तु उसमें नयापन लाने का श्रेय डॉ. रश्मि शील को जाता है। आधुनिक परिप्रेक्ष्य को भूतकाल से मिश्रित करके उन्होंने इस लोककथा में व्यंग्य और हास्य का हल्का सा पुट भर दिया है जो कि अनायास होंठों पर मुस्कुराहट बिखेर देता है।
आशा है कि अंक आपको रुचिकर लगेगा।
- सस्नेह
सुमन कुमार घई
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