मैंने कई बार सुना है कि अक्सर ’हिन्दी साहित्य सत्ता’ के लोग चिंतित स्वरों में प्रश्न उठाते हैं कि ’क्या हिन्दी की दशा और दिशा अंधकारमयी है’। यह चर्चा समय-समय पर इतनी छा जाती है कि एक ’विमर्श’ का रूप लेने की क्षमता रखती है। हो सकता है कि कभी ऐसा हो भी जाए; क्योंकि बुद्धिजीवी सदैव किसी न किसी नए विमर्श की खोज में व्यस्त रहते हैं. . . शायद इस ओर अभी किसी का ध्यान गया नहीं!
अभी तक आपको अनुमान हो गया होगा कि मैं न तो इसके प्रति चिंतित हूँ और न ही मुझे हिन्दी का भविष्य अंधकारमयी दिखाई देता है। वैसे कहा जाए तो ’दिखाई देने’ की क्रिया ही आलोक में संभव है इसलिए अंधकारमयी दिखाई देना ही विरोधाभास है। यह मैं किन्हीं आँकड़ों के आधार पर नहीं कह रहा बल्कि विदेश में हिन्दी की तथाकथित मुख्यधारा से दूर रहते हुए, हिन्दी साहित्य कि वेबसाइट के प्रकाशन/संपादन के अनुभव के आधार पर कहता हूँ।
साहित्य कुंज गत पन्द्रह वर्षों से अंतरराष्ट्रीय मंच पर हिन्दी साहित्य की पहचान और उपस्थिति बनाए रखने का प्रयास है। इस अवधि में मेरा अनुभव यह रहा है कि जैसे-जैसे संचार तकनीकी के वृत्त का विकास महानगरों से आगे बढ़ कर क़स्बों के बाद गाँवों तक फैला है, हिन्दी साहित्य के प्रकाशन और पाठन का वृत्त भी उतना ही विस्तृत हुआ है। यह अवश्य हुआ है कि महानगरों में हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या कम हुई है; इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा को पढ़ने-लिखने वालों की संख्या कम हुई है। दूसरी ओर महानगरों में लेखकों की औसत आयु में वृद्धि देखने को मिल रही है: युवा लेखकों की महानगरों में दर घटी है। सीधा सा अनुपात है - अगर पाठशालाओं में कोई गंभीरता से हिन्दी पढ़ना-लिखना सीखेगा ही नहीं, तो महानगरों में न तो पाठकों की संख्या बढ़ेगी और न ही लेखकों की। दूसरी ओर ग्रामीण अंचल में मोबाइल की उपलब्धि से युवा लोग बाहर की दुनिया के संपर्क में निरन्तर बने रहते हैं। क्योंकि गाँव / क़स्बे में रहने वाला युवा हिन्दी बोलता और पढ़ता है और इससे भी बढ़ कर हिन्दी में ही ’सोचता’ है, इसलिए इन क्षेत्रों हिन्दी साहित्य का विकास होना स्वाभाविक है।
साहित्य कुंज में प्रायः मैं देख रहा हूँ कि नए युवा लेखक इन्हीं क्षेत्रों से आ रहे हैं। इस समय आँकड़ों के अनुसार 70 से 80% लोग मोबाइल पर साहित्य कुंज को पढ़ रहे हैं। केवल पढ़ ही नहीं रहे, वह अपनी रचनाएँ - चाहे किसी भी विधा की हों, मोबाइल पर ही लिख रहे हैं। मैं इस युवा वर्ग के आगे नतमस्तक हूँ - क्योंकि मैं हिन्दी साहित्य को प्रेम करता हूँ और यह लोग हिन्दी साहित्य को पढ़ने और रचने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वह महानगर में लैपटॉप या पीसी के आगे बैठे लेखक के प्रयास से कहीं अधिक है। माना कि अगर कोई लेखक अपनी कविता मोबाइल पर लिखता है वह इतना कठिन नहीं परन्तु अगर कोई कहानी या आलेख भी मोबाइल पर ही लिखे, उसके प्रयास मात्र की भी प्रशंसा होनी ही चाहिए।
इन लेखकों की सोच बहुत सकारात्मक है। यह वर्ग मार्गदर्शन का भूखा है। अगर इन्हें कोई मार्गदर्शक मिलता है, यह उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखते हैं। सही लेखन, सही भाषा में लिखने की पिपासा से अनुरक्त यह लेखक ही हिन्दी साहित्य का भविष्य है।
साहित्य कुंज के प्रकाशन में व्यस्त रहने के कारण अभी तक मैं ’सोशल मीडिया’ से दूर रहा हूँ इसलिए मैं इससे लगभग अनभिज्ञ ही हूँ। परन्तु अब मैं इसकी शक्ति को थोड़ा-थोड़ा समझने लगा हूँ। अब मुझे समझ आने लगा है कि यह मीडिया एक बेलगाम घोडे़ की तरह है। शक्तिशाली तो है परन्तु दिशाहीन है। किसी ’संदेश’ को ’फ़ॉरवर्ड’ कर देना ही सृजन का पर्याय बन रहा है। क्योंकि सृजन भी संपादन विहीन है इसलिए दो पंक्तियाँ लिख देने वाला ही ’लाईक्स’ बटोर रहा है, चाहे जैसी भी हों। अब यह बिना पढ़े ही लाईक करने की रीत साहित्य के लिए बहुत हानिकारक है। दो-पंक्ति के लेखक को अपने श्रेष्ठ लेखन पर गर्व होने लगता है; वह दंभी हो जाता है। अगर वह अपनी रचना किसी सही संपादक को भेज दे तो इस लेखक का दिवास्वप्न भंग हो जाता है। ऐसा लेखक अपनी आलोचना को स्वीकार नहीं करता। संभवतः स्वप्रकाशन की व्यवस्था वाली वेबसाइट्स उसे अपने आग़ोश में ले लेती हैं। और दुःख की बात तो यह है कि वह इन वेबसाइट्स पर भारी मात्रा में घटिया लेखन संजो लेता है। यहाँ पर भी ऐसे साहित्य को उच्चस्तरीय समझने वालों की कोई कमी नहीं होती। लाईक्स और प्रशंसनीय कमेंट्स भी प्रचुर मात्रा में आत्मतुष्टि का साधन बने रहते हैं।
साहित्य कुंज/मैं अपनी उपस्थित फ़ेसबुक पर बढ़ा रहा हूँ, तो नए लेखक साहित्य कुंज से जुड़ने लगे हैं। इन लेखकों के दो वर्ग हैं। पहला तो केवल ’लाईक्स’ बटोरने वाला है। इन्हें तत्क्षण प्रशंसा चाहिए। साहित्य के प्रति अनुराग उथला है। कला को सीखने और उसे निखारने के लिए जो धैर्य और परिश्रम चाहिए, उसकी प्रतीक्षा करना इनके बस की बात नहीं। दूसरा वर्ग वह है, जिन्हें साहित्य कुंज से जुड़ने बाद अनुभव हुआ कि अभी तक वह कितना ग़लत लिखते रहे हैं। इन लेखकों से मेरी हिन्दी साहित्य के उज्ज्वल भविष्य की आशा बँधी है। मुझे अनुभव हो रहा है कि एक ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ पर कुछ सिद्धहस्त, अनुभवी लेखक इन नए लेखकों का निरन्तर मार्गदर्शन करें। इनकी रचनाओं को सुधारें, साहित्य की चर्चा करें ताकि यह युवा लेखक अपनी कला के प्रति गर्वित हो सकें; उसे निखार सकें। इस दिशा में साहित्य कुंज एक प्रयास कर रहा है। भविष्य में साहित्य कुंज में एक ’फ़ोरम’ बनेगा। इस में प्रतिभागी एक दूसरे के साहित्य की चर्चा कर सकेंगे और कला को निखार सकेंगे और उचित मार्गदर्शन पा सकेंगे। बस आप साहित्य कुंज के प्रति अपना अनुराग बनाए रखिए और इसके प्रचार-प्रसार में योगदान करते रहें। हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है! बस आवश्यकता है तो ऐसे सिद्धहस्त लेखकों कि जो युवा लेखकों का मार्गदर्शन कर सकें - साहित्य कुंज को आपके अनुमोदन की प्रतीक्षा है।
- आपका
सुमन कुमार घई
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
2024
2023
- टीवी सीरियलों में गाली-गलौज सामान्य क्यों?
- समीप का इतिहास भी भुला दिया जाए तो दोषी कौन?
- क्या युद्ध मात्र दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का है?
- क्या आदर्शवाद मूर्खता का पर्याय है?
- दर्पण में मेरा अपना चेहरा
- मुर्गी पहले कि अंडा
- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित…
- जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ
- संभावना में ही भविष्य निहित है
- ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही
- प्रवासी लेखक और असमंजस के बादल
- वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित नहीं होंगे!
- कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं बना सकती
- मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है
- मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी सिनेमा
- पेड़ की मृत्यु का तर्पण
- कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की
- कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित ‘साहित्यिक’ मजमेबाज़ी
- गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी में कैसे लिखूँ?
- मेरे पाँच पड़ोसी
- हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ
- गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता
- आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने…
- अरुण बर्मन नहीं रहे
2022
- अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’ कह देने में बुरा ही…
- आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ हैं!
- हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट…
- देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता
- भारत में प्रकाशन अभी पाषाण युग में
- बहस: एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म
- हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी में अनुवाद का महत्त्व
- आपके सपनों की भाषा ही जीवित रहती है
- पेड़ कटने का संताप
- सम्मानित भारत में ही हम सबका सम्मान
- अगर विषय मिल जाता तो न जाने . . .!
- बात शायद दृष्टिकोण की है
- साहित्य और भाषा सुरिक्षित हाथों में है!
- राजनीति और साहित्य
- कितने समान हैं हम!
- ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना के घोडे़
- भारत में एक ईमानदार फ़िल्म क्या बनी . . .!
- कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन
- बसंत अब लौट भी आओ
- अजीब था आज का दिन!
- कैनेडा में सर्दी की एक सुबह
- इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक प्रवासी साहित्य सहयात्री
- नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प
- क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं हैं?
2021
- आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण रचनाओं की
- नींव नहीं बदली जाती
- सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी साहित्य में महत्व
- क्या इसकी आवश्यकता है?
- धैर्य की कसौटी
- दशहरे और दीवाली की यादें
- हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ
- विमर्शों की उलझी राहें
- रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट या सोशल मीडिया के मंच?
- सामान्य के बदलते स्वरूप
- लेखक की स्वतन्त्रता
- साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के साहित्य जगत में एक ख़ालीपन
- मानवीय मूल्यों का निकष आपदा ही होती है
- शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की सीमा
- साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ
- कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों के पीछे जन्मता साहित्य
- समीक्षक और सम्पादक
- आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास की और संगठित होने…
- अगर जीवन संघर्ष है तो उसका अंत सदा त्रासदी में ही…
- राजनीति और साहित्य का दायित्व
- फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य की पुस्तकें क्यों…
- स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि प्रो. हरिशंकर आदेश जी
- सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’ फ़िल्म
2020
- यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं हो सकता
- क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल का सूर्य
- शोषित कौन और शोषक कौन?
- पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण
- साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप समूह आरम्भ
- साहित्य का यक्ष प्रश्न – आदर्श का आदर्श क्या है?
- साहित्य का राजनैतिक दायित्व
- केवल अच्छा विचार और अच्छी अभिव्यक्ति पर्याप्त नहीं
- यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत भी!
- हिन्दी साहित्य को भविष्य में ले जाने वाले सक्षम कंधे
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 2
- पहले मुर्गी या अण्डा?
- कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम सिंड्रम
- अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी शब्दावलि - 1
- लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी और संरक्षक
- यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने की भूख का सकारात्मक पक्ष
- एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा
- अजीब परिस्थितियों में जी रहे हैं हम लोग
- आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा हैं
- हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक
- लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत लौटना
- वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम और गुरु अर्जुन देव जी…
- सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान
- काठ की हाँड़ी केवल एक बार ही चढ़ती है
2019
- नए लेखकों का मार्गदर्शन : सम्पादक का धर्म
- मेरी जीवन यात्रा : तब से अब तक
- फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम या ’छुट्टा साँड़’
- पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम क्यों
- हिन्दी साहित्य की दशा इतनी भी बुरी नहीं है!
- बेताल फिर पेड़ पर जा लटका
- भाषण देने वालों को भाषण देने दें
- कितना मीठा है यह अहसास
- स्वतंत्रता दिवस की बधाई!
- साहित्य कुञ्ज में ’किशोर साहित्य’ और ’अपनी बात’ आरम्भ
- कैनेडा में हिन्दी साहित्य के प्रति आशा की फूटती किरण
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - दूध का जला...
- भारतेत्तर साहित्य सृजन की चुनौतियाँ - उत्तरी अमेरिका के संदर्भ में
- हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द
- साहित्य को विमर्शों में उलझाती साहित्य सत्ता
- एक शब्द – किसी अँचल में प्यार की अभिव्यक्ति तो किसी में गाली
- विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी साहित्य
- साहित्य कुञ्ज एक बार फिर से पाक्षिक
- साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण
- हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और हिन्दी व्याकरण
- चिंता का विषय - सम्मान और उपाधियाँ
2018
2017
2016
- सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम तैयार है
- हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद और पुस्तक बाज़ार.कॉम
- पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए
- साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के विभिन्न माध्यम
- लघुकथा की त्रासदी
- हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक?
- मेरी प्राथमिकतायें
- हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न
- हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने का दायित्व
- अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों होता है?
- भाषा में शिष्टता
- साहित्य का व्यवसाय
- उलझे से विचार