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अचला दीप्ति कुमार, व्यक्तित्व तथा कृतित्व

टोरोंटो के हिंदी समाज में जिनका नाम अत्यंत श्रद्धा तथा प्यार के साथ लिया जाता है, वह नाम है श्रीमती अचला दीप्ति कुमार का। वे भारतवर्ष के इलाहाबाद शहर के एक अत्यंत साहित्यिक समृद्ध परिवार से हैं। उनकी मौसी श्रीमती महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य की सर्वाधिक प्रसिद्ध कवयित्री रही हैं। उनके पिता श्री बाबूराम सक्सेना जी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफ़ेसर थे। उनके ससुर जी श्री धीरेंद्र वर्मा हिंदी साहित्य के एक श्रेष्ठ भाषा विशेषज्ञ थे। इतने महत्त्वपूर्ण साहित्यिक लोगों के बीच अचला जी लालन-पालन हुआ इसलिए आरम्भ से उनको हिंदी का एक साहित्यिक वातावरण मिला और ज्ञान भी। 

अचला जी की शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद में हुई और इतिहास को लेकर उन्होंने एम.ए. किया। विवाह के बाद कैनेडा आने पर हिंदी समाज से युक्त होने के पश्चात् उन्होंने कविताएँ लिखना आरम्भ किया। उसी समय एक मासिक हिंदी गोष्ठी में मेरा उनसे परिचय हुआ। 1985 में जब काव्य लेखन में उनकी रुचि हुई तो उनका लेखन आरम्भ से ही इतना समृद्ध था कि सभी प्रभावित होने लगे। उनकी लेखनी द्रुत गति से आगे बढ़ी। यहाँ के हिंदी समाज ने पाया कि उनकी रचनाएँ भाव, भाषा, छंद सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट कोटि की थीं। 

सर्वप्रथम मैं उनके व्यक्तित्व और उसके उपरांत उनके साहित्य के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करना चाहूँगी। अचला जी से जब मेरा परिचय साहित्यिक गोष्ठी में हुआ, कई वर्षों तक हम हर महीने उसी हिंदी गोष्ठी में मिलते रहे और मैंने जाना कि जितनी सुंदर उनकी कविताएँ हैं उतना ही सुंदर उनका स्वभाव भी है। हमारी मैत्री क्रमशः बढ़ती ही गई। जब हिंदी साहित्य सभा का निर्माण हुआ तो उस संस्था में हम दोनों ही संस्थापक सदस्य बने और संस्था में सदैव अत्यंत सक्रिय रहे। 

हम कुछ न कुछ नया करने का प्रयत्न किया करते थे। हम लोग कार्यक्रम की रूपरेखा बनाते, कवि सम्मलेन आयोजित करते। हमने मिलकर नाटक लिखे और अभिनय भी किया। 

इस छायाचित्र में प्रसिद्ध गीतकार नीरज जी के साथ राज कश्यप, डॉक्टर शैलजा सक्सेना, आशा बर्मन, अचला दीप्ति कुमार तथा शरण जी

इसके साथ ही मित्रों के जन्मदिन पर कई शुभकामनाओं के गीत हमने साथ लिखे। सभी मित्रों के जन्मदिन पर सबको प्रसन्न करने के लिए सबकी रुचि के अनुसार अचला जी बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती थीं। बहुत अच्छा समय हम लोग का साथ बीता। उनके पति अशोकदा मेरे पति अरुण जी घनिष्ठ मित्र बन गए। हम लोग चारों कई देशों में भ्रमण के लिए गए। 

उनके साथ हम चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, एंटीगा, फ़्लोरिडा, हवाई इत्यादि अनेक देशों में भ्रमण के लिए गये और वहाँ बिताये हमारे कई कई दिन बहुत आनंद से बीते। हम लोग उनके साथ कई क्रूज़ में भी गए। इतना समय साथ बिताने पर मैंने अचला जी को बहुत अधिक निकटता से जाना। अचला जी उन लोगों में से हैं कि जिनको जितना अधिक जाना उनके उतने ही गुणों से परिचय होता गया। विश्वास ही नहीं होता कि ऐसे भी लोग दुनिया में होते हैं। अचला जी उन विरल व्यक्तियों में से हैं, वे जैसा सोचती हैं, उसी के अनुरूप ही उनका साहित्य है। उनके व्यक्तित्व को जाने बिना उनकी रचनाओं को हम समझ नहीं सकते। उनके सम्बन्ध में मुझे बस यही कहना है कि उनके स्वभाव में जितनी सहजता है, मधुरता है, आत्मीयता है, अपनापन है, उनकी वे ही सारी भावनाएँ उनके लेखन में तरल होकर बिखर गई हैं। उनके सम्बन्ध में कई बातों का उल्लेख करना चाहती हूँ। 

अचला जी के पास हिंदी पुस्तकों का बहुत अच्छा संग्रह सदा से रहा है और वे हमेशा हम लोगों को अपनी किताब पढ़ने दे देती थीं। विदेश में अच्छी किताबों का इस प्रकार मिलना हम लोगों के लिए बहुत सुखद था। 

आशा बर्मन, अरुण बर्मन, अशोक कुमार, अचलाजी तथा अरुणा जी, जापान यात्रा का छायाचित्र

सहज ही लोगों को अपना बना लेना और सबकी हर प्रकार से सहायता करना, यह उनका एक और बहुत बड़ा गुण आजीवन रहा है। रामचरितमानस में एक अच्छे मित्र के सम्बन्ध में संत कवि तुलसीदास जी का कथन है, 

 

“निज दुख गिरि सम रज करी जाना, मित्रक दुख रज मेंरु समाना” 

 

अर्थात् एक अच्छा मित्र वही है जो अपने पर्वत समान दुख को रजकण समझे और मित्र के छोटे दुख को बड़ा समझे और उसकी सहायता करे। अचला जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा हुआ था। किसी भी मित्र के अस्वस्थ होने पर वे अपना काम छोड़कर उसको खाना देने चली जाती थीं और उनके लिए कुछ करो तो उनको बड़ा ही संकोच होता था, ऐसे मित्र का होना सौभाग्य की बात है। 

मैं उन भाग्यशाली लोगों में से हूँ जो मैं उन्हें निकटता से जान सकी, समझ सकी। पहले मुझे लगता था कि उनका मेरे प्रति अत्यधिक अपनापन है और वे मुझे बहुत स्नेह करती हैं। पर कुछ ही समय बाद मुझे यह भी लगने लगा कि उनके और भी कई दूसरे भी मित्र हैं जिनके भी वे बहुत निकट हैं और वे भी यही समझते हैं कि वे उन्हें बहुत प्यार करती हैं। सबके प्रति अपरिमित प्रेम लुटाने के लिए इतना उदारमना होना कठिन है। 

अचलाजी, आशा बर्मन, अरुण बर्मन, अशोक कुमार, लूरे कैवर्न का छायाचित्र

इनकी कविताओं के कुछ उदाहरण में आपके सामने प्रस्तुत करना चाहती हूँ। उनकी आत्मीयता से भरी कविताएँ अधिकतर मानवीय सम्बन्धों को लेकर हैं। 
छोटे–बड़े सुख नामक कविता की पंक्तियाँ हैं: 

"बेटे का मुँह भर माँ कहना, 
बेटी का दो पल संग रहना, 
मेरे सुख की छाँह यही है, 
इसके आगे चाह नहीं है। 
 
बहुत बढ़ गया मानव आगे, 
चाँद नाप आया पाँवों से। 
मेरी परिधि बहुत ही सीमित, 
बाँधे हूँ मैं दो बाँहों से।" 

अपने देश के सम्बन्ध में वे लिखती हैं:

“नहीं भूला, नहीं भूला, नहीं भूला मुझे पल भर, 
कि है यह सच अभी तक मुझे, अपने देश का आँगन नहीं भूला।"

प्रकृति चित्रण भी बहुत सुंदर है उदाहरण:

“बीते ऐसे दिन बहुतेरे। 
गुमसुम सूरज, 
हवा अनमनी, 
ठिठकी राहें, 
धूप गुनगुनी। 

सहमे बरगद पात घनेरे, 
बीते ऐसे दिन बहुतेरे।“

अचलाजी के स्वभाव का एक और गुण है उनकी विनम्रता, अपनी रचनाओं के लिए उनके भाव इस प्रकार हैं: 

“क्यों लिखूँ, किसके लिये? 
यह प्रश्न मन को बींधता है। 
लेख में मेरे जगत की
कौन सी उपलब्धि संचित? 
अनलिखा रह जाय तो
होगा भला कब, कौन वंचित? 
कौन तपता मन मरुस्थल
काव्य मेरा सींचता है? 
क्यों लिखूँ, किसके लिये? 
यह प्रश्न मन को बींधता है।“

"मेरी सीमा 
मेरे विषय बहुत ही सीमित
नहीं परिष्कृत मेरी भाषा, 
फिर भी काग़ज़ काले करती, 
लिए कौन सी मन में आशा?" 

दिन सिमटने की बेला में अचला जी का जीवन दर्शन इन पंक्तियों में व्यक्त होता है: 

"कट गई है आयु काफ़ी
नाचते विधि की धुनों पर, 
आ लगी है नाव जीवन-
सरित के नीरव तटों पर। 
समय आया, डाँड़ छोड़ें, 
धार से अब ध्यान मोड़ें। 
किन्तु फिर-फिर मन हठी यह, 
थामता पतवार क्यों है? 
दिन सिमटने के मगर
मन माँगता विस्तार क्यों है?” 

जीवन के प्रति अचलाजी की सकारात्मक सोच का उदाहरण है:

"खोया कितना भी हो, उससे
पाने का पलड़ा भारी है। 
और शायद इसीलिये अपनी, 
धीरे धीरे आती-जाती, 
उठती-गिरती, चलती-रुकती, 
साँसों का क्रम भी जारी है। 
आभार मानती अपनों का, 
पर याद सभी को करती हूँ। 
और बादल सा हल्का मन ले, 
यह बही बन्द कर रखती हूँ।"

एक बार जब मैंने उनकी एक कविता को स्वरबद्ध कर उनको सुनाया तो प्रसन्न होकर उन्होंने लिखा: 

"शब्द मेरे, स्वर तुम्हारा, 
गीत हमने मिल सँवारा। 

 

अक्षरों का बोझ ढोते, 
शब्द अस्फुट फिर रहे थे। 
थी न कोई किरण नभ में, 
घन अँधेरे घिर रहे थे। 
आ गये तुम साथ ले कर, 
सत-सुरों की जोत उज्जवल, 
डगमगाते से पगों को, 
मिल गया स्नेहिल सहारा। 

शब्द मेरे, स्वर तुम्हारा . . .॥"

अचला जी का गद्य भी उनकी कविताओं की भाँति ही अत्यंत सशक्त है। उनकी पुस्तक ‘अनेक रंग’ में कई संस्मरण भी संकलित हैं। अचला जी ने अपने अध्यापन काल में हुए अनुभवों से सम्बंधित संस्मरण लिखे हैं। उन्होंने प्राथमिक कक्षा के एक छात्र, डेविड को याद किया है। एक टूटे हुए परिवार का उपेक्षित बच्चा डेविड अपना अस्तित्व जताने के लिए तोड़-फोड़ और अभद्र भाषा का प्रयोग करता है। अचला जी ने उसके व्यवहार का मनोविश्लेषण ही नहीं किया, उसको स्नेह, आत्मीयता और सुरक्षा की भावना देकर उसमें सुधार भी लाईं। 

इसी प्रकार हमारी मैत्री लगभग चार दशकों से अबाध गति से पनपती रही। आज भी हम अत्यंत निकट हैं। अचला जी का मेरे प्रति स्नेह मेरे जीवन की एक अमूल्य निधि है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वे उन्हें दीर्घायु करें। 

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