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कैनेडा निवासी राधेश्याम त्रिपाठी से डॉ. नूतन पाण्डेय की बातचीत 

डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपका जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव में हुआ, कृपया बताएँ आपका बचपन किस परिवेश में बीता, आस पास का वातावरण कैसा था? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
बहुत बहुत धन्यवाद नूतन जी। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव जेवाँ में हुआ था। जब मैं एक या दो साल का था, मेरे पिता जी की अकाल मृत्यु हो गई थी। मेरी माता ने किस प्रकार मुझे और मेरी छोटी बहन को सँभाला और पाला, मुझे कुछ पता नहीं। इसके बाद मैं गाँव के प्राइमरी स्कूल में जाने लगा और उसके बाद दूसरे क़स्बे पुवायां में मिडिल स्कूल तक पढ़ाई की। इसके बाद वहीं के दयानन्द हाईस्कूल में ग्रेड 8 में पढ़ रहा था और वहीं पर ही मैंने अँग्रेज़ी पढ़ना शुरू किया। आठवीं कक्षा में मेरे एक मित्र ने मुझे सलाह दी कि हम लोग प्राइवेट हाईस्कूल की परीक्षा दे सकते हैं। मैंने माता जी से कहा तो वे बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने मुझसे कहा कि घर में किसी को न बताना। तुम चुपचाप घर पर अपनी पढ़ाई करो। जो भी किताबें या नोट्स चाहिए हों तुम शहर से ले आओ। चूँकि मैं सारे दिन घर पर ही रहता था, फूफा ने मुझे खेती करने और जानवरों के लिए चारा आदि लाने के सारे काम मुझे सौंप दिए। इसलिए जब भी काम से समय मिलता था और विशेषकर रात को जब सब सो जाते थे तो मैं अपनी पढ़ाई की तैयारी कर लेता था। अब समय आ गया परीक्षा का। इसके लिए मुझे शाहजहाँपुर जाना था। मेरी माँ ने बहाना बनाकर घर वालों को बता दिया कि बरेली में मेरे नाना जी की तबियत ख़राब है और मुझे बरेली जाना होगा। इस प्रकार मैंने चोरी-चोरी हाईस्कूल की परीक्षा दी। अंत में जब रिज़ल्ट आया तो पता लगा कि मैं तीसरी श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया हूँ। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपने बताया कि जब आप बहुत छोटे थे, आपके पिताजी का निधन हो गया था, आपने किस तरह ख़ुद को सँभाला और भविष्य के लिए तैयार किया? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
नूतन जी, जहाँ तक मुझे याद है मेरा बचपन अत्यंत संकटमय और दुखमय रहा। घर में एक ओर मेरी छोटी बहन और विधवा माँ थी तो दूसरी ओर मेरे फूफा और उनके तीन लड़के और मेरी बुआ थी। ये सभी एक होकर मेरी माँ को तंग करते थे और उनसे किसी तरह ज़मीन के काग़ज़ों पर हस्ताक्षर करवाने के लिए अवसर ढूँढ़ते थे। ये सब सोते-जागते मेरी माँ को परेशान करते थे। जब मैं कुछ बड़ा हुआ तो यह मेरी माँ और मेरी छोटी बहन ने चुपके से मुझे बताया था। माता जी हमेशा हम दोनों का बहुत ध्यान रखती थी कि कहीं फूफा के परिवार वाले हमारा कुछ ग़लत न कर दें। पास-पड़ोस के लोग मेरी माता जी के बारे में सब कुछ जानते थे, उनकी मदद भी करना चाहते थे लेकिन वे कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। जब मैं बड़ा हुआ तो मुझसे फूफा जी ने खेती का हर काम करवाया। हल चलवाना, फ़सल कटवाना, खलिहान में अनाज निकलवाना, गाय-भैंस चरवाना और जानवरों का गोबर उठाकर बाहर गड्ढे में फेंकना आदि। वे मुझे स्कूल जाने नहीं देते थे। बचपन में मुझे जो यातनाएँ सहन करनी पड़ीं मैं ही जानता हूँ। जिन लोगों ने मेरी सहायता और मार्गदर्शन किया वे उनमें सबसे पहले मेरी माता जी का नाम आता है फिर गाँव के एक अध्यापक पंडित रामचरन, जो मेरे पिता जी के सहपाठी थे, उन्होंने भी मेरी बहुत मदद की। इसके अतिरिक्त मेरे मौसा जी हरीदत्त शुक्ला, मेरे बड़े मौसा जी पंडित ठाकुरप्रसाद, मेरे सहपाठी शांतिस्वरूप मिश्रा और बरेली कॉलेज के तत्कालीन अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर डॉ. रामासरे मिश्रा जी, जय नरायन मुद्रा जी, श्री विमल प्रकाश गोयल जी और श्री देवी चंद महरा जिनके बच्चों की मैं ट्यूशन करता था, ने हर क़दम पर मेरी सहायता की। इसके अतिरिक्त श्री श्याम दत्त महंत, डाइरेक्टर मार्टिन हैरिस, श्री देवराज वर्मा जिन्होंने मुझे एक पुत्र की तरह माना और हर क़दम पर मुझे धैर्य बँधाया, उन को भी मैं कभी भूल नहीं सकता। जिन लोगों ने मुझे जो-जो सहयोग दिया यदि मैं प्रत्येक के लिए लिखूँ तो एक पुस्तक भी काफ़ी नहीं होगी। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
भारत के एक छोटे से गाँव से इंग्लैंड, गयाना, सूरीनाम, त्रिनिदाद और फिर कैनेडा, विश्व के विभिन्न देशों का ये लंबा सफ़र। विस्तार में बताएँ, इस सफ़र की कुछ अनूठी घटनाएँ, कैसा रहा ये सफ़र? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
मुझे स्वयं विश्वास नहीं होता अपने ऊपर कि मैं किस प्रकार एक छोटे से गाँव से निकलकर विश्व के अनेकों देशों का चक्कर लगा सका। यहाँ मुझे हरिऔध जी की “एक बूँद” कविता की एक पंक्ति याद आती है। “ज्यों निकलकर बादलों की गोद से एक बूँद थी कुछ आगे बढ़ी।” जो मेरे जीवन में पूरी तरह लागू होती है। शायद जैसे दिन के बाद रात-दुःख के बाद सुख आता है ठीक उसी प्रकार मेरा समय भी बदला और मुझे अमेरिकन दूतावास में हिंदी पढ़ाने का अवसर प्राप्त हुआ। मुझे एकदम इतने पैसे वेतन में मिलने लगे कि मुझे समझ ही नहीं आता था कि मैं किस प्रकार इतने पैसे ख़र्च करूँगा। अचानक मेरे ऑफ़िसर का तबादला हो गया और उसने मुझे बताया कि अब मेरी नौकरी भी समाप्त हो गई। लेकिन उसने मुझसे पूछा कि क्या आप इंग्लैंड जाना चाहेंगे? मैंने तुरंत हाँ कर दी और मैं इंग्लैण्ड पहुँच गया। इसी बीच इंग्लैण्ड में मुझे शिक्षक की नौकरी मिल गई। वहाँ मुझे अनेक स्कूलों में पढ़ाने का अवसर मिला। यह अनुभव मेरे लिए अमूल्य था। मुझे शिक्षा के विषय में अनेक नये-नये अनुभव हुए। ब्रिटिश अँग्रेज़ी का उच्चारण एव विद्यार्थियों को पढ़ाने के नये तरीक़े सीखने को मिले। अँग्रेज़ों का व्यवहार, पक्षपात-और डिसक्रीममेशन-और असम्वेदनशीलता का व्यवहार देखकर मन को बहुत ठेस लगती थी। लेकिन एक शिक्षक होने के नाते मैंने विद्यार्थियों के साथ जो सम्बन्ध बनाया और उनसे मुझे जो सम्मान मिला, वह अविस्मरणीय है। दस वर्ष इतने अच्छे बीते जो वाणी का विषय नहीं है। वहीं मेरी शादी एक कीनिया की हिन्दू ब्राह्मण कन्या से हो गई जो वहीं पढ़ी लिखी और एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका रहीं। इसके बाद जीवन में हम एक से दो हो गये। 
गयाना, सूरीनाम, त्रिनिडाड जाने के अवसर मिले, मुझे गयाना निवासी जो एक उद्योगपति भारतीय थे। उनका नाम स्वर्णकुमार पुरी था। उन्हीं के छोटे भाई प्रेम कुमार पुरी से मेरी मित्रता थी। वे मुझे उनके बारे में मुझे बताया करते थे। प्रेम ने अपने भाई को मेरे विषय में लिखा कि मैं इंग्लैंड में हूँ और मेरा पता भी उन्हें भेज दिया। क्रिसमस की छुट्टियाँ थीं और स्वर्ण कुमार पुरी लन्दन किसी व्यापार के सिलसिले में आये थे। वे हमेशा मार्वल आर्च 'कम्बरलैंड' होटल में ठहरते थे। पुरी साहब का मुझे फ़ोन आया और मैं उनसे मिलने उनके होटल में पहुँच गया। पुरी साहब से मिलकर बहुत ख़ुशी हुई। वह भी मुझसे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने मुझे गयाना जाने की मेरी सीट अपने साथ ही प्लेन से बुक कर दी। उस समय मैं एकाकी था और इंग्लैण्ड के वातावरण से कुछ ऊब सा गया था। मेरी क्रिसमस की छुट्टियाँ थीं और वहाँ चला गया। वहाँ जाकर पुरी साहब के व्यापार और उनके रहन सहन को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ। वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य  और सागर की लहरों और कोकोनट, धान के खेतों की हरियाली और गन्ने के खेतों को देखकर मुझे भारत याद आ गया। वहाँ के रहने वाल्रे पुराने भारतीयों-अफ्रीकी-चीनी और अम्रेंडियन जो मूल निवासी थे और श्वेत वर्ण के लोगों को जिन्होंने विश्व पर शासन किया था जो देश के स्वतंत्र होने के बाद भी बैंक्स-और व्यापार आदि में लगे हुए थे देखा। वहाँ के समाज में न तो जाति-पांति का और न ही-धर्म सम्बन्धी कोई भेदभाव दिखा। हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी आपस में मिल जुलकर प्रेम से रहते हैं। यहाँ तक कि एक दूसरी जाति और धर्म वालों के साथ विवाह सम्बन्ध भी करते हैं। जो भारतीय 40-50 वर्षों से वहाँ गये हैं वे अधिकतर किसी न किसी व्यापार में लगे हुए हैं। वहाँ का रहन-सहन वेषभूषा-पश्चिमी देशों की तरह से हैं। अफरीकन लोग अधिकतर नौकरी करते हैं या पुलिस की सेवा। यह देश अधिकतर बाहरी देशों से माल का आयात करता है। शराब-चीनी-चावल-कोकोनट और केले का निर्यात भी करता है। यहाँ हीरे-सोने और बाक्साईट जैसी धातुएँ भी पाई जाती हैं। कुछ लोग बहुत धनी हैं और कुछ भारत की तरह बहुत ग़रीब हैं। वहाँ पर केचुर फाल है, जहाँ पर्यटक बड़ी मात्रा में जाते हैं। सूरीनाम एक डच कालोनी है जो अब स्वतंत्र है। वहाँ के लोग हिंदी (भोजपुरी) और डच बोलते हैं। भारतीयों का बड़ा बोलबाला है। उनके धार्मिक स्थल और भारतीय संस्कृति-रीति-रिवाज़ अभी तक भारत जैसे हैं। ये लोग अधिकतर कृषक हैं और गेहूँ-चना-दालें-सब्जियाँ और गन्ने की खेती करते हैं। भूमि बड़ी उपजाऊ है। गयाना के लोगों के साथ सम्बन्ध अच्छे हैं। इन देशों में मदिरापान वहन की संस्कृति का अंग है। सिगरेट-शराब स्त्री-पुरुष सभी प्रयोग करते हैं। क्रिसमस-होली-दीवाली बड़े धूमधाम से मनाते हैं। अधिकांश लोग मांस और मछली पर निर्भर हैं। यह यात्रा बहुत ही सफल रही क्योंकि मुझे वहाँ के जन जीवन, रहन-सहन एवं आचार-विचार से बहुत कुछ सीखने को मिला। विशेष बात वहाँ के लोगों के मुँह से इंग्लिश बोलने की शैली, जो अपने ही क़िस्म की और अलग सी है, सीखने को मिली। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—        
आपने अँग्रेज़ी में एम. ए. किया है, दिल्ली विश्वविद्यालय में अँग्रेज़ी शिक्षक के रूप में भी कार्य किया है? अँग्रेज़ी अध्यापन के साथ हिंदी पठन-पाठन, लेखन के प्रति आपकी अभिरुचि कैसे जागृत हुई? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
इंसान जिस देश में जन्म लेता है उसे वहाँ की भाषा में रुचि अवश्य होती है। उत्तरप्रदेश में बरेली जैसे नगर में जहाँ पर बहुत से लोग कवि और साहित्यकार हुए हैं। हर साल कॉलेज में एक विराट कवि सम्मेलन होता था, जिसमें भारत के महान कवियों को सुनने का अवसर मिलता था और मैं समय-समय पर कॉलेज की यूनियन के कार्यक्रमों में हमेशा कवि गोष्ठी में भाग लेता था। वर्ष के अंत में विद्यार्थी मिलकर एक मैगज़ीन निकालते थे। उसमें मैं भी कुछ न कुछ अवश्य लिखा करता था। कविता से सदा प्रेम था हर विषय पर तुकबन्दी करने में आनन्द आता था। कई बार परीक्षाओं में हिंदी भाषा के पद्य के अर्थ कविता में ही लिखने का प्रयोग करता था। कई बार शिक्षकों से अच्छे कमेंट्स भी मिलते थे। हिंदी-अँग्रेज़ी दोनों भाषाओं में काव्य के प्रति रुचि बनी रही। कैनेडा में जब प्रवेश किया तो महाकवि आदेश जी की संगति ने लिखने के लिए प्रेरित किया। मुझे कवि गोष्ठियों का संचालन करने का सुअवसर मिला और मैंने कवियों के परिचय कविता के माध्यम से देना प्रारम्भ किया। इसी प्रकार लेखनी ने मुझे रुकने नहीं दिया। आपकी जानकारी के लिए मैंने टोरोंटो में सर्व प्रथम कवि सम्मेलन का संचालन 1984 में किया था और वहीं मंच पर पहली बार महाकवि आदेश जी से भेंट हुई थी। इसके अतिरिक्त यहाँ पर हिंदी की पहली संस्था 'हिंदी परिषद' का अध्यक्ष भी रह चुका हूँ। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपने विदेश स्थित विभिन्न उच्चायोगों और संस्थाओं में हिंदी अध्यापक के रूप में भी कार्य किया है। भारत और भारत से बाहर हिंदी अधिगम-शिक्षण में आप क्या विशेष अंतर पाते हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
एक शिक्षक की हैसियत से मुझे विभिन्न देशों और वहाँ की शिक्षा सम्बन्धी संस्थाओं के साथ काम करने का जो अवसर मिला। उसमें मैंने भारत और विदेश की शिक्षण पद्धति में बहुत अंतर देखा। भारत में शिक्षक लेक्चर देता है और विद्यार्थी उसे ध्यान से सुनता है। किन्तु सुनने की एक सीमा होती है। अमेरिका-इंग्लैण्ड और विशेषकर कैनेडा में जहाँ मैंने शिक्षक और उसके संचालन विभाग में काम किया है, वहाँ मैंने देखा कि यहाँ अध्यापक उस विषय पर प्रश्न विद्यार्थियों से पूछता है और विद्यार्थी उत्तर देता है। यदि उत्तर में कोई कमी है तो अध्यापक उसमें सुधार करता है। इस प्रणाली को साकरेटिक प्रणाली कहते हैं। भारत में हमें रटने की आदत डालनी पड़ती थी और हर चीज़ रटी हुई होती थी। अब शायद उसमें परिवर्तन हुआ हो। मैंने इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के ड्रामे की पुस्तकों को पढाते देखा। पहले अध्यापक एक निचोड़ क्लास में एक हैण्ड आउट की तरह दे देता है। इसके बाद क्लास के विद्यार्थियों को दो ग्रूपों में बाँट देता और उन्हें पात्र बाँट देता है। विद्यार्थी पुस्तक के साथ नाटक पढ़ते हैं। फिर मिलकर उस नाटक को प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार से पढ़ने-पढ़ाने में आनन्द आता है। एक और विशेष बात जो मैंने देखी वह यह है कि हम जो पढ़ा रहे हैं उसका जीवन से कोई सम्बन्ध है या नहीं। विद्यार्थी जो पढ़ने आते हैं कुछ बहुत कुशाग्र बुद्धि के होते हैं-कुछ धीमे होते हैं। कुछ विशेष विद्यार्थी होते हैं और मैंने उनके साथ पहले उनको जानने की कोशिश की (अर्थात्‌ उनके घर की हालत, उनके माता-पिता के सम्बन्ध)। कुछ बच्चे ऐसे भी हैं जो बड़े भावुक हैं। कुछ तलाक़ के शिकार हैं। कुछ में अनुशासन की समस्या है। इन सब बातों को जानने के बाद आप उन्हें‍ सिखा सकते हैं। मैंने स्कूलों में ऐसे बच्चे पढ़ाये जो घर से बिना नाश्ता किये, बिना नहाए, बिना हाथ-मुँह धोये आते थे। वे प्राइवेट घरों से आते थे भूखे और अस्वस्थ। मैंने कई एक को अलग बुलाकर उनकी हालत जानी। उन्हें एक डालर दिया और स्कूल में नहाने आदि का प्रबंध करवाया। पहले वे कैफ़े में जाकर कुछ खाते और फिर क्लास में आते। इस प्रकार मैंने  "रीच मी टीच मी/(Reach me and teach me)“ का मार्ग अपनाया और यह बहुत काम आया। क्लास में हर विद्यार्थी "योग्य प्रेमपात्र और सक्षम (able-lovable and capable)" है। अध्यापक के लिए धर्म-जाति-रंग-लिंग में कोई अंतर नहीं है। उसे सबके साथ समान व्यवहार करना चाहिए। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—    
विभिन्न देशों में प्रवास के अपने अनुभव के आधार पर बताएँ कि हिंदी की स्थिति कैसी है? लोग हिंदी पढ़ना–लिखना चाहते हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
जहाँ तक मैंने अनुभव किया है कि मारीशस-फीजी, सूरीनाम-ट्रिनिडाड-कीनिया-और दक्षिणी अफ़्रीका को छोड़कर केवल 50 के ऊपर की आयुवाले लोग हिंदी के प्रेमी हैं और चाहते हैं कि हिंदी भाषा जीवित रहे और आगे आने वाली संतान भी उसे न भूले। किन्तु सत्य तो यह है जो बहुत कड़वा है कि विदेशों में रहनेवाले भारतीय लोग हिंदी के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। यहाँ हमारे बच्चे हेरिटज कक्षाओं में हिंदी की कक्षाओं में बहुत कम आते हैं। अन्य भारतीय भाषाओं के लोग अधिक मात्रा में आते हैं। केवल इसमें दोष बच्चों का नहीं बल्कि उनके माता-पिता का है। जिनके दिमाग़ में एक ही बात ही घुसी हुई है कि ये बच्चे हिंदी पढ़कर समाज की मुख्यधारा के अंग तभी बन सकेंगे जब उनकी अँग्रेज़ी अच्छी होगी। लेकिन वे यह नहीं जानते कि जो व्यक्ति अधिक भाषाएँ जानता है वह अधिक योग्य है या वह जो केवल एक ही भाषा जानता है। यही बात भारत के मस्तिष्क में भी भरी हुई है। इसका परिणाम यह है कि हिंदी का भविष्य अन्धकार में है। हिंदी चेतना इसका साक्षात्‌ प्रमाण है कि हिंदी वाले ही इसका सहयोग नहीं करते। एक दिन हिंदी दिवस मना लेने से हिंदी का कल्याण नहीं हो सकता। हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जिनमें भाषा सम्बन्धी जो भी प्रस्ताव पास किये जाते हैं, शायद वे कभी लागू नहीं हो पाते। सबसे बड़ी समस्या तो हिंदी की भारत में है जहाँ अब तक हिंदी राष्ट्र पद से वंचित है। अँगरेज़ तो चले गये लेकिन अँग्रेज़ी अभी तक ज़िन्दाबाद! 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
और हिंदी में साहित्य लेखन? किस विधा में लोग ज़्यादा लिखना पसंद कर रहे हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
नूतन जी, आपका यह प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मेरे बाईस वर्षों के हिंदी चेतना के प्रकाशन के अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि अधिकांश लोग कविता या लघुकथायें लिखना पसंद करते हैं। कविताएँ भी अधिकतर अतुकान्त-और छ्न्द मुक्त होती हैं। किन्तु उनमे इतनी अशुद्धियाँ होती हैं कि हम अपने कान पकड़ लेते हैं केवल गिने-चुने लोग जिनका भाषा पर अधिकार है, व्याकरण पर अधिकार है, वे ही लोग गद्य में लिखना चाहते हैं। महाकवि आदेश इसके प्रमुख उदाहरण हैं, जिनका कविता और गद्य दोनों पर समान अधिकार है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—    
लिखने के लिए अच्छा पाठक होना ज़रूरी शर्त मानी जाती है, किसको आप रुचि से पढ़ना पसंद करते हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
मुझे कविता से अधिक प्रेम होने के कारण छोटी-छोटी कविताएँ जिनमें एक विचार हो और वह सत्य से अधिक दूर न हो। पढ़ने के बाद उसे दुबारा पढ़ने को मन करे, जो प्रेरणात्मक और उत्साहवर्धक भी हो। अंग्रेज़ी के कवि शैली की तरह—Our sweetest songs are those that tell the saddest thought. (हमारे सबसे मीठे गीत वह हैं जो अत्यंत उदासी को अभिव्यक्त करते हैं)। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—    
आप हिंदी की बहु-प्रतिष्ठित पत्रिका हिंदी चेतना का सम्पादन कर रहे हैं। पत्रिका निकालने का विचार आपके मन में कैसे आया? किसी पत्रिका के स्थायित्व के लिए सम्पादन, प्रकाशन और बिक्री तीनों का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है, कैसे आपस में संतुलन बिठाया? किस-किससे आपको इस अद्भुत कार्य के लिए सहयोग मिला या फिर एकला चलो रे का सिद्धांत मानना पड़ा? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
इस पत्रिका का सारा श्रेय महाकवि आदेश जी को जाता है। उन्हीं के निवास स्थान पर एक दिन टोरोंटो के हिंदी साहित्यकारों के विषय हम लोग बात कर रहे थे। उसी समय आदेश जी के मन में विचार उठा और वे बोले कि श्याम जी यहाँ कैनेडा से कोई अच्छी हिंदी की साहित्यिक पत्रिका नहीं। आचार्य द्विवेदी जी की संवाद नामक पत्रिका बंद हो चुकी थी। अमेरिका से 'विश्वा' पत्रिका निकल रही थी किन्तु उसमें कुछ आपसी तनाव चल रहा था। अंत में हमने सोचा कि हमें कैनेडा से एक हिंदी की पत्रिका का श्रीगणेश करना चाहिए। दैवयोग से उसी समय यशपाल जैन जी जो प्रो. आदेश जी के घनिष्ट मित्र थे वह अपने सुपुत्र से मिलने आये हुए थे उनसे इस विषय पर चर्चा हुई और बस पत्रिका प्रकाशन का निर्णय ले लिया और इसका नाम हिंदी चेतना रखा आ गया, जो मेरी देवी सुरेखा त्रिपाठी ने सुझाया था। इससे पहले मैं ओंटेरियो की विश्व हिन्दू परिषद का अध्यक्ष था और हर मास एक न्यूज़लेटर “हिन्दू चेतना“ के नाम से निकालता था। उस समय मुझे कंप्यूटर से हिंदी लिखने का ज्ञान नहीं था। इसलिए हाथ से लिखकर जिसमें महाकवि आदेश जी और टोरोंटो के कुछ जाने-पहचाने कवियों और कवयित्रियों की रचनाएँ थी। आदेश जी ने अपने निवास पर एक संध्या को एक कवि गोष्ठी का आयोजन किया और मैंने हस्तलिखित सारी रचनाएँ एकत्रित करके फोटो कापी करवाके लगभग 50 प्रतियाँ लेकरं उस संध्या के महान साहित्यकार श्री यशपाल जैन के कर कमलों द्वारा इसका लोकार्पण करवाया। मेरा जीवन संघर्षों से जूझने का रहा है। इसलिए हिंदी चेतना इसका अपवाद नहीं। भगवान की कृपा से यह चौबीसवें वर्ष में पदार्पण कर रही है। भगवान इसे किसी की बुरी नज़र न लगे . . . नूतन जी, आपने पूछा कि इस पत्रिका के लिए आपको किस-किसका सहयोग मिला तो मैं कहना चाहूँगा कि करत करत अभ्यास से जड़मत होत सुजान। कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहाँ चाह है वहाँ राह है। महाकवि आदेश जी, मेरी पत्नी सुरेखा और मेरा छोटा पुत्र विशाल इस कार्य में मेरे साथ रहे। मैंने हिंदी प्रचारिणी सभा के अंतर्गत इसे नान प्रॉफ़िट संस्था के रूप में रजिस्टर करवाया। कुछ यहाँ की कम्युनिटी के व्यापारियों से व्यक्तिगत सम्बन्ध के कारण विज्ञापन मिल गये और कुछ हिंदी प्रेमियों की सदस्यता और मेरी स्वयं की दिन-रात की मेरे मेहनत। नूतन जी, इस कार्य को पूरा करने के लिए मैंने तन-मन धन से प्रयास किए हैं और जब तक मेरी अंतिम साँस हैं मैं इस शुभ कार्य को करता रहूँगा। भगवान इस पौधे को कभी सूखने न दे, यही मेरी मनोकामना है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—    
कैनेडा के जीवन और समाज से आपने ख़ुद को सहज कैसे बनाया, भारत से नितांत भिन्न जीवन शैली और भिन्न स्वभाव वाले लोग, कितना मुश्किल था ये सब? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
लगभग अर्ध शताब्दी से ऊपर मैं भारत से सुदूर आज कैनेडा में अपने छोटे से परिवार के साथ इस कार्य में संलग्न रहता हूँ। मेरा सारा जीवन एक अनुकरण की कहानी है। जैसा देश वैसा भेष। एक बार जो मैं संकल्प कर लेता हूँ उसे पूरा किये बिना साँस नहीं लेता हूँ। कैनेडा में जिस शिक्षा की संस्था के साथ मैंने जो कुछ सीखा और साथ ही टोरोंटो के भारतीय समाज की सेवा में जो भी समय मिला स्वयं को समर्पित किया। मैंने हर एक की बात सुनी और जब मुझे अवसर मिला तो मैंने अपने निजी स्वार्थ की बात नहीं की। मैं कभी यदि ग़लत बात कर दूँ तो तुरंत क्षमा माँग लेता हूँ और जैसे कबीरा खड़ा बजार में सबकी माँगे ख़ैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर॥
डॉ. नूतन पाण्डेय—    
आप बहुत अच्छी कवितायें लिखते हैं और उनके वाचन का ढंग भी बहुत ही ख़ूबसूरत है, कविता संग्रह प्रकाशित करने की बात कभी आपके मन में क्यों नहीं आई? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
एक बार की बात है जब मैं भारत में अमेरिकन दूतावास में नौकरी कर रहा था तो एक दिन डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी के एक मित्र धर्मदास शास्त्री, जो अब इस संसार में नहीं हैं, उन्होंने बच्चन जी से अपने निवास पर मेरी मुलाक़ात करवाई। मुलाक़ात के दौरान उन्होंने कहा कि पुस्तक लिखना सरल कर्म नहीं है। एक लाख शब्द पढ़ो फिर एक वाक्य लिखो। यह बात मेरे मानस पटल पर स्थायी रूप से अंकित हो गई जो कभी मिटती ही नहीं। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
आपके पास ज़िन्दगी का बहुत बड़ा अनुभव है? अपने बचपन से लेकर उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते आपने अनेक परिवर्तन देखे हैं। इन परिवर्तनों को समाज के लिए किस तरह से देखते हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
मैं भारत के एक छोटे-से गाँव की उपज हूँ। विधाता ने मेरा भाग्य अश्रु भरी क़लम से लिखा था। फिर भी मुझे ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रहा और शायद वही मुझे इस लम्बे सफ़र में मार्गदर्शन करता रहा है। किसी का समय एक साथ नहीं रहता। हमें सत्य, आत्मविश्वास और धैर्य को कभी नहीं खोना चाहिए। जॉन मिल्टन ने एक मशहूर सानेट में लिखा है, “They also serve who stand and wait.” और यही बात गुप्त जी ने भी कही है: “नर हो न निराश करो मन को ।” इसके साथ ही हम सबको अपने देश–भाषा, संस्कृति और संस्कारों पर गर्व होना चाहिए। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
और भारत से आपका लगाव? भारतवासी होने पर कैसा महसूस करते हैं? 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
मुझे उर्दू शायर इक़बाल की यह पंक्ति हर समय याद आती रहती है, “ग़ुरबत में हूँ अगर मैं, रहता है, दिल वतन में। समझो मुझे वहीं ही दिल है जहाँ मेरा।” अक़्सर भारतीय लोग विदेश में रहकर भारत को भूल जाते हैं। अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को भूलकर विदेशी बन जाते हैं। लेकिन मेरे मन में एक ही बात सामने आती है कि मैंने भारत को छोड़ा किन्तु मुझे भारत ने नहीं कभी नहीं छोड़ा। मेरी अंतिम इच्छा यही है कि मेंरी अंतिम साँस जब भी निकले मेरे मन में रामचरित मानस और भारत माँ का नाम हो। हिंदी की यह पत्रिका मुझे ईश्वर ने सौपी है जिसे मैं शायद भारत में रहकर न कर पाता। भारत की यह दूरी केवल है मेरी मजबूरी। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
क्या कभी अपने देश की मिट्टी छोड़कर विदेश में बसने के निर्णय पर आपको . . .?     आप मेरा आशय समझ रहे हैं। 
राधेश्याम त्रिपाठी— 
मनुष्य परिस्थितियों का दास है। जिन परिस्थितियों में मेरा जीवन गुज़रा है, यदि मैं वहीं रहता तो हर पल अपने भाग्य को कोसता रहता। माता-पिता-बहन जो मेरे अपने थे, नहीं रहे। गाँव की ज़मीन के कारण मेरी माँ और मेरे बाप को समय से पहले यह संसार छोड़ना पड़ा। मेरे लिए हर पल जीवन एक मृत्यु के समान था। विदेश में आकर यहाँ एक नया जीवन प्रारम्भ किया। मैं अन्य भारतीयों की तरह यहाँ अच्छा जीवन बिताने के लिए या पैसे कमाने के लिए नहीं आया। मुझे तो मन की शान्ति चाहिए थी और वह धन मेरे पास है। मैंने जो कुछ भारत में खोया था मुझे ईश्वर ने लौटा दिया। इसलिए भारत को छोड़कर यहाँ बसे और हिंदी सेवा करने का मेरा निर्णय बिलकुल ठीक था और इस निर्णय पर मुझे कोई पछतावा भी नहीं है। मुझे वसुधैव कुटुम्बकम का सही अर्थ भी समझ में आ गया है। यह सच है कि भारत और भारतवासियों के प्रेम के प्रति अहसान चुकाना असंभव है और यह भी सच है कि जिस धरती पर मैंने आश्रय लिया, उसका अहसान चुकाना भी उतना ही मुश्किल है। 
डॉ. नूतन पाण्डेय—
श्याम त्रिपाठी जी, आपका जीवन हम सबके लिए एक प्रेरणास्रोत है, आपने कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी अपने निर्धारित लक्ष्य का त्याग नहीं किया और निश्छल भाव से हिंदी सेवा में सतत सक्रिय हैं। आपने अपने जीवन के विशद अनुभव हमारे साथ साझा किए, आपका बहुत-बहुत आभार।

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