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कैनेडा की हिंदी कथाकार हंसा दीप से साक्षात्कार 

 डॉ. दीपक पाण्डेय—
हंसादीप जी आपका हिन्दी-लेखन के प्रति लगाव कैसे उत्पन्न हुआ और इसमें परिवार की क्या भूमिका है? 
डॉ. हंसा दीप— 
धन्यवाद दीपक जी, आपके साथ संवाद प्रारंभ करना मेरा सौभाग्य है। परिवार व हिन्दी-लेखन दोनों ही जीवन के दो अंग-से हैं। ऐसे स्तंभ हैं ये दोनों जो मज़बूत नींव भी देते हैं और अँधेरों में लाइट हाउस की तरह रौशनी भी देते हैं। आदिवासी बहुल क्षेत्र मेघनगर, ज़िला झाबुआ, मध्यप्रदेश में जन्म लेकर पली-बढ़ी मैं बचपन से ही आसपास के माहौल से आंदोलित होती रही। एक ओर शोषण, भूख और ग़रीबी से त्रस्त आदिवासी भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते, एक ओढ़ी हुई ज़िन्दगी जीते हुए मध्यमवर्गीय परिवार थे। हर किसी का अपना संघर्ष था। रोटी-कपड़ा-मकान के लिये जूझते आसपास के लोग मन को दु:खी करते थे। मालवा की मिट्टी और मेघनगर का पानी संवेदित लेखनी को सींचते रहे। हालाँकि ठौर-ठिकाने बदलते रहे। एक गाँव से दूसरे गाँव, एक राज्य से दूसरे राज्य यहाँ तक कि एक देश से दूसरे देश घर बसाती गयी मैं। शहरों और देशों का बदलता परिवेश कहानियों के कथानक को विविधता देता रहा और रचनाओं को आकार मिलता रहा। अपने जीवनसाथी (धर्मपाल महेंद्र जैन) के कवि और व्यंग्यकार वाले व्यक्तित्व ने इसे भरपूर उर्वरक ऊर्जा दी। आए दिन आपस में रचनाएँ सुनकर-सुनाकर हम दोनों के लेखन को एक स्थायी पहला श्रोता मिल गया था। यों आपसी तालमेल से गृहस्थी आगे बढ़ती रही, लेखन बढ़ता रहा और “निंदक नियरे राखिए” को सार्थक करते हुए एक दूसरे की कमियों को महसूस कर रचनाएँ बेहतर करने की कोशिशें जारी रहीं। 
हालाँकि लेखन कभी पूर्णकालिक नहीं रहा, कई बार तो महीनों और सालों तक अपनी रोज़ी-रोटी-घर-गृहस्थी के चलते विराम देना पड़ा। सबसे अच्छी बात तो यह है कि विराम के चलते भी क़लम तो चल ही जाती थी बस रचना पूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाती थी। परिवार के साथ क़दम से क़दम मिलाकर चलते हुए, अलग-अलग देशों की धरती ने भी पाला-पोसा है लेखन को, विविधता दी है और नये आयाम दिए हैं। विदेश में मेरा पहला पड़ाव अमेरिका था। 1993 से 1998 तक, मैं न्यूयॉर्क शहर में रही। न्यूयॉर्क शहर ने मुझे बहुत कुछ दिया, विदेश में बसने का साहस और मुश्किलों से टकराने का हौसला। उस शहर की मैं कर्ज़दार हूँ जिसने मुझे अपनी ताक़त को पहचानने में बहुत मदद की। वहाँ की धरती ने मुझे चुनौतियों के साथ अपनापन दिया। वह प्यार मेरे दिल में कुछ इस तरह अंकित है कि इस शहर का नाम सुनते ही मुझे पहली बार विदेश में क़दम रखने की अनुभूति आज भी वैसे ही होती है जैसे तब हुई थी। न्यूयॉर्क शहर की भव्यता ने मुझ जैसी हिन्दी प्रेमी को एक जगह दी और आगे के लिये एक ठोस आधार दिया। मेरा उपन्यास कुबेर अमेरिकी जीवन और वहाँ संघर्षरत परोपकारी लोगों पर आधारित है। यही अनुभव यहाँ यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरोंटो में काम करते हुए भी मुझे प्रेरित करता है। 
भारतीयता से गहन रूप से जुड़ी हुई थी मैं मगर अमेरिका और कैनेडा जैसे देशों में रहकर, पूरब और पश्चिम के अंतर को महसूसते हुए यह भी देखा कि देश कोई भी हो, इंसान तो एक वैश्विक मन लिये होता है, विशालता की प्रतिमूर्ति, जो कहीं भी रहे जननी के गौरव की अमिट छाप मन से हटा नहीं पाता। इसी के साथ नयी धरती को भी वह उतना ही सम्मान देता है। यही वजह है कि लेखनी आज भी किसी भी परिदृश्य को लिये हो पर अपनी मिट्टी की छाप तो छोड़ ही देती है काग़ज़ पर। 
सही मायने में लिखना तो अब शुरू हुआ है जब अपनी ज़िम्मेदारियों का बोझ कम हुआ है। अब क़लम चलती है तो बस चलती रहने को चलती है क्योंकि रोटी-कपड़ा और मकान की चिंता से मुक्ति मिली है। मुझे लगता है कि हर कलाकार के साथ ऐसा ही होता है जब वह अपनी कला पर पूरा फ़ोकस कर पाता है, तभी वह कुछ दे पाता है जो देना चाहता है। इसीलिये मैं अपने मित्रों से कहती हूँ कि मेरी लेखनी शैशवकाल से अब किशोरावस्था की ओर क़दम रखते हुए अनवरत आगे बढ़ने की कोशिश कर रही है। बहुत कुछ सीखना, बहुत कुछ पढ़ना और पढ़ाना, सब कुछ ताल से ताल मिलकर चले तो ही लेखनी में परिपक्वता आ सकती है। इसके लिये प्रयास जारी हैं। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आप विदेश में रहकर हिन्दी के अध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य सृजन भी कर रही हैं। हिन्दी लेखन के लिए प्रोत्साहित करने वाली परिस्थितियों की जानकारी दीजिए। 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, अगर मैं कहूँ कि मेरा आज तक का संपूर्ण जीवन ही हिन्दीमयी रहा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बचपन से शिक्षकों ने मेरे लिखे प्रश्नों के उत्तरों को, प्रतियोगिताओं में लिखे निबंधों को बेहद सराहा, मुझे लिखते रहने के लिये बढ़ावा दिया। मेरी पीएच.डी. थीसिस के परीक्षक ने एक ही बात कही थी मुझसे कि–“मैं आपकी भाषा से बहुत प्रभावित हुआ हूँ।” उनके ये शब्द मुझे बहुत ऊर्जा दे गए और आज भी देते हैं। हिन्दी विषय मेरा पैशन ही नहीं, प्रोफ़ेशन भी रहा। भारत में मध्यप्रदेश के विदिशा, ब्यावरा, राजगढ़ (ब्यावरा), और धार महाविद्यालयों में लगभग ग्यारह वर्षों तक स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं में हिन्दी का अध्यापन करने के बाद न्यूयॉर्क शहर की कुछ संस्थाओं में हिन्दी अध्यापन किया और उसके बाद टोरोंटो, कैनेडा की यॉर्क यूनिवर्सिटी में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर के रूप में तथा 2004 से यूनिवर्सिटी ऑफ़ टोरोंटो में हिन्दी पढ़ा रही हूँ। 
हिन्दी अध्यापन के कारण देश छोड़ कर विदेश में बसने का मेरा निर्णय कभी अपराधी भाव महसूस नहीं करने देता क्योंकि मुझे लगता है कि मैं अपनी भाषा को पढ़ाते हुए मातृभूमि के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रही हूँ। स्नातक और स्नातकोत्तर की हिन्दी कक्षाओं को भारत के महाविद्यालयों में पढ़ाने के बाद मेरे लिये अहिंदी भाषी बिगिनर्स-इंटरमीडिएट की हिन्दी कक्षाओं को हिन्दी पढ़ाना एक बड़ी चुनौती थी। अपनी हिन्दी को सरलतम बनाना था जो सबसे कठिनतम कार्य था। छात्र हिन्दी लिखना तो चाहते लेकिन रोमन लिपि में। विदेश ही क्यों भारत में भी इन दिनों युवा पीढ़ी इसी परंपरा में शामिल हो रही है। जब सोशल मीडिया पर रोमन लिपि में लिखे हिन्दी के संदेशों को पढ़ने की जी-तोड़ कोशिश करती हूँ तब सवाल उठता है कि हिन्दी जानने वाले भी हिन्दी लिखने से क्यों कतराते हैं, क्यों डरते हैं हिन्दी लेखन की ग़लतियों से। सच तो यह है कि ऐसे सवालों के जवाब हमारे पास हैं। अपनी कट्टर विचारधारा से परे हम सोचें, कारण समझना चाहें, तो स्वयं को कठघरे में खड़ा पाएँगे। ग्यारह स्वर और तैंतीस व्यंजनों के मूल चवालीस अक्षरों में मात्राएँ जोड़कर, आधे-पूरे अक्षर मिलाकर, कितने संयुक्ताक्षर बना लिए हैं, फिर इनको सजाने के लिए हर तरह के बिन्दु को स्थान दिया, जहाँ जैसे जगह मिली, शिरोरेखा के ऊपर, अक्षर के अगल-बग़ल, ऊपर-नीचे। अनुस्वार-अनुनासिकता के साथ, यानी बिन्दु, चंद्र बिन्दु के साथ, चन्द्र, विसर्ग, हलन्त तो ज़रूरी थे ही, उर्दू, अरबी, फारसी शब्दों के लिए क ख ग ज फ में नुक़्ता लगाना ज़रूरी होता गया। अन्य भाषाओं के शब्दों को अपनी भाषा में स्थान देकर अपनी भाषा को हमने उदार तो बनाया है लेकिन हमने अपनी लिपि में बहुत कुछ जोड़ लिया है। भारत में ही कई नगरों-महानगरों में, गली-मोहल्लों में साइनबोर्ड पर हिन्दी तो है पर रोमन लिपि में लिखी हुई। ये हमें ग्लोबल वार्मिंग की तरह चेतावनी तो नहीं देते पर हाँ सँभल जाने का आह्वान ज़रूर करते हैं। जीवन की भागमभाग में हमारा ध्यान इस मूक चेतावनी पर नहीं जा रहा है। समय की इस तेज़ दौड़ में भाषा का सरलीकरण चाहिए लेकिन हम क्लिष्टीकरण में विश्वास रखते हैं। धीमी गति से हिन्दी के साथ वही हो रहा है जो संस्कृत और लैटिन जैसी अपने ज़माने की समृद्ध भाषाओं के साथ हो चुका है। अंग्रेज़ी का दबदबा इसीलिये है कि सिर्फ़ छब्बीस अक्षरों में वह दुनिया की कई भाषाओं के, कई शब्दों को अपने में समा लेती है और सभी भाषाओं पर राज करती है। 
भारत हो या भारत के बाहर, हर ओर एक सवाल है कि हिन्दी के पाठक कहाँ, हिन्दी की पुस्तकों की बिक्री क्यों नहीं, हिन्दी पुस्तकें छपें तो पढ़ेगा कौन, आदि आदि। भारत में यदि ये सारे सवाल परेशान कर सकते हैं तो हम जैसे विदेशों में हिन्दी पढ़ा रहे शिक्षकों की क्या हालत हो रही होगी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। हिन्दी को हमें जीवंत रखना है तो सरलीकरण के नये प्रयोगों से कतराना नहीं बल्कि उन्हें स्वीकारना होगा। तभी हम आज की हिन्दी को सामयिक बनाकर भाषा की जीवंतता में वृद्धि कर सकते हैं। घर हो या घर के बाहर, काम पर या काम से इतर, हिन्दी बोलने-लिखने-सुनने-देखने का एक जुनून-सा सवार हो, हर हिन्दी भाषी को अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास हो, तभी तो हम हिन्दी को उसका सही स्थान दे पाएँगे। ये ही वे परिस्थितियाँ हैं जो हिन्दी अध्ययन-अध्यापन-लेखन को निरंतर आगे बढ़ाने के लिये, इस सागर में अपनी एक बूँद मिलाने के लिये मुझे निरंतर प्रयासरत रखती हैं। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपने बताया कि हिंदी क्षेत्र के मध्यप्रदेश की उच्च कक्षाओं में में हिंदी-अध्यापन का कार्य किया और बाद में आपको न्यूयार्क में हिंदी-अध्यापन का अवसर मिला। दोनों स्थानों में हिंदी भाषा शिक्षण का परिवेश और परिस्थितियाँ बिलकुल भिन्न रही और सम्भव है कि आपको अमेरिका में भाषा-शिक्षण के दौरान अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा होगा। आपने इन चुनौतियों का संवहन कैसे किया? 
डॉ. हंसा दीप—
दीपक जी, मध्यप्रदेश की स्नातक और स्नातकोत्तर कक्षाओं को पढ़ाने के बाद बिगिनर्स व इंटरमीडिएट कोर्स को पढ़ाना मेरी अपनी सोच में बहुत आसान काम था। लेकिन असल में यह सबसे मुश्किल काम था। दोनों स्थानों की परिस्थितियों में ज़मीन-आसमान का अंतर था। भारत में कक्षाओं में भूलवश भी अँग्रेज़ी का कोई शब्द प्रयोग नहीं किया जाता था मगर यहाँ अँग्रेज़ी के माध्यम से हिन्दी पढ़ानी थी। पहली कक्षा के बाद ही समझ में आ गया कि यह इतना भी आसान नहीं है। सरल से सरल शब्दों और सरलतम वाक्यों से आधारभूत हिन्दी का आधार स्वयं तय करना था। भारत की चालीस मिनट की कक्षाएँ यहाँ दो घंटों और तीन घंटों की कक्षाओं में बदल गयी थीं और कक्षा में वे छात्र थे जो उच्चतम अंकों के साथ इस नामी यूनिवर्सिटी में अपने अतिरिक्त विषय के तौर पर हिन्दी को चुन रहे थे। अपनी भारतीय उच्चारण वाली अँग्रेज़ी के साथ उन छात्रों को विदेशी भाषा पढ़ानी थी जिनका वाक्य और शब्द तो दूर, हिन्दी-ध्वनियों से भी परिचय नहीं था। मैं उनके लिये विदेशी भाषा हिन्दी को, अपने लिये विदेशी भाषा अँग्रेज़ी द्वारा पढ़ा रही थी। तब मुझे अहसास हुआ कि हिन्दी कितनी कठिन भाषा है। 
इन चुनौतियों को मैंने स्वीकार किया। छात्रों के स्तर तक जाकर समझने की कोशिश की। हर सत्र में छात्रों का समूह बदलता और उनके सवाल, उनकी जिज्ञासाएँ भी बदल जातीं। इस तरह सत्र से सत्र की कठिनाइयों की तह तक पहुँचते हुए मैंने उनके अनुसार अपने शिक्षण को ढाला और यह भी महसूस किया कि हर नये छात्र-समूह के लिये शिक्षण में परिवर्तन आवश्यक है। साथ ही स्थानीय उदाहरण से उनके लिये समझना अपेक्षाकृत आसान है। लिहाज़ा मैंने अपने आधारभूत कोर्स पैक तैयार किए जो हर सत्र में कुछ नया जोड़ कर नयी कक्षा के लिये तैयार किये जाते हैं। इस लचीलेपन से हर बार उनकी ज़रूरतों के अनुसार कुछ जोड़ने-घटाने में काफ़ी मदद मिलती है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
अमेरिका और कैनेडा में हिंदी-शिक्षण के दौरान आपको किस-किस का सहयोग और प्रोत्साहन मिला? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। मैं अपने परिवार से, अपने मित्रों से लगातार चर्चा करती हूँ। कई बार सामान्य बातचीत में बड़े-बड़े सवालों के हल मिल जाते हैं। इसके साथ ही कई अन्य भाषाओं को पढ़ा रहे शिक्षकों से भी बातचीत होती है। वे भी अपनी भाषा जैसे अरबी, फारसी, जर्मन, इटालियन, फ्रेंच आदि को पढ़ाते हुए आमतौर पर कुछ वैसी ही कठिनाइयों से जूझते हैं तो इस तरह आपस में संवाद, कक्षा में बेहतर शिक्षण के लिये मददगार होता है। विभाग और अन्य सहकर्मियों की राय से रास्तों की रुकावटें कम होती जाती हैं। जैसे चिकित्सकों को अपने इलाज व नवीनता को स्वीकार करने के लिये लगातार पढ़ना पड़ता है ठीक वैसे ही भाषा भी बदलते समय के साथ आए बदलावों को स्वीकार करने के लिये तैयार रहे यह दायित्व भाषा के शिक्षकों को अपने कंधों पर लेना ही चाहिए। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
क्या अमेरिका और कैनेडा में हिंदी अध्ययन-अध्यापन के लिए पर्याप्त पाठ्य-सामग्री उपलब्ध है? इन देशों में किस सतर्कता के साथ हिंदी अध्यापन का कार्य करना चाहिए? 
डॉ. हंसा दीप—  
पाठ्य सामग्री आंशिक रूप में उपलब्ध है लेकिन जहाँ तक मेरा अनुभव है जगह बदलते ही कुछ परिवर्तन आवश्यक से हो जाते हैं। जैसे वाक्य बनाने में यहाँ की स्थानीय जगह का नाम हो तो उनके लिये समझना आसान हो जाता है। यहाँ तक कि कैंपस भी अगर बदलता है तो छात्रों के समूह का स्तर और उनकी ज़रूरतें बदल जाती हैं। इसीलिये मेरी प्राथमिकता होती है कि हर संस्थान के लिये मैं अपने लिखे कोर्सपैक में आवश्यक परिवर्तन करूँ और अपनी पढ़ाने की शैली में भी उनके अनुरूप परिवर्तन करूँ तभी मेरा पढ़ाना छात्रों को समुचित रूप से ग्राह्य होगा। यह कहा जा सकता है कि उचित पाठ्यक्रम और समय की आवश्यकता के साथ बदलाव इन कक्षाओं की लोकप्रियता का एक महत्त्वपूर्ण आधार है। बाज़ार की माँग के अनुरूप पूर्ति करना अगर अर्थशास्त्र का आधारभूत सिद्धांत है तो बदलते समय, बदलते कक्षा समूह के साथ पाठ्यक्रम में बदलाव भी शिक्षण की योजनाओं का एक महत्त्वपूर्ण अंग होना चाहिए। इस बदलती तकनीकी दुनिया में हर दिन नयी खोज और नयी तकनीक का आना हर विषय-वस्तु को उसके अनुरूप बदलने के लिये नया कैनवास, नया धरातल देता है। ‘बिगिनर्स कोर्स’ में जहाँ भाषा की व्याकरण ख़त्म की गयी वहीं से आगे की व्याकरण को जोड़ते हुए ‘इंटरमीडिएट कोर्स’ में अनुच्छेद लेखन पर फ़ोकस करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश होती है। नयी व्याकरण के साथ नयी शब्दावली, नयी धरा पर नये विचार लाती है। छात्र का विश्वास जागने लगता है कि अब वह भाषा की आधारभूत जानकारी से परिचित है। हिन्दी फ़िल्मों की लोकप्रियता को देखते हुए कई बार उनसे भी सीखने-सिखाने में मदद मिलती है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
हंसादीप जी, आपने कहा कि हमें हिंदी को सरल बनाने की दिशा में काम करने की आवश्कता है। इस दिशा में आपके दृष्टिकोण से कौन-कौन से क़दम उठाए जाने अपेक्षित हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, मुझे इस बात का गर्व है कि हिन्दी ने अपना दिल बहुत बड़ा किया है। वह हर ग्लोबल शब्द को जगह दे रही है। आज की तकनीकी उन्नति के साथ हिन्दी क़दम से क़दम मिला कर चल रही है। लेकिन यह उदारता हमें अपनी लिखित भाषा को बदलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती। आए दिन हम अपनी लिपि में बदलाव ला रहे हैं। दूसरी भाषा के बहुप्रचलित शब्दों का दिल खोल कर स्वागत करने के लिए अपनी लिपि को बदलना कहाँ तक उचित है। अन्य भाषाएँ तो ऐसा नहीं करतीं। अँग्रेज़ी के दबदबे से हम क्यों नहीं सीख सकते जो न जाने कितनी भाषाओं के प्रचलित शब्दों को साधिकार लेती है लेकिन अपने छब्बीस अक्षरों में कोई बदलाव नहीं करती। जो भी बदलाव करती है उन्हीं छब्बीस अक्षरों के दायरे में। वे ही छब्बीस अक्षर दुनिया भर के शब्दों को लिखते हैं चाहे फिर टोरोंटो शहर का ‘T’ हो या किसी तान्या नाम की लड़की का ‘T’। और नि:संदेह इन्हीं छब्बीस अक्षरों ने दुनिया में हल्ला मचा रखा है। यूँ हर भाषा के अस्तित्व को चुनौती देती अँग्रेज़ी भाषा पूरी दुनिया पर राज कर रही है। 
सपाट शब्दों में कहा जाए तो हिन्दी में हमने धीरे-धीरे, एक-एक करके अपनी लिपि को जिस तरह बदला है, वे भाषा के सारे सौंदर्य प्रसाधन अपने “साइड इफ़ेक्ट्स” की कहानी कह रहे हैं। ग़ुस्सा बताने के लिए भी नुक्ता लगा कर ग़ुस्सा लिखना पड़ता है। फ़िल्म और फ़ेसबुक तो अँग्रेज़ी के शब्द हैं वहाँ भी नुक्ता लगाना अनिवार्य कर देते हैं हम। शायद हमारे फल वाले “फ” में इतनी ताक़त ही नहीं कि वह फ़िल्म और फ़ेसबुक को ध्वनि दे सके। पहले ही अक्षर के बीच में, ऊपर-नीचे, अगल-बग़ल, मात्राओं की, बिन्दुओं की कमी नहीं है, तिस पर हर जगह नुक़्ते ने अपनी जगह बना ली है। यह नुक्ता कब और कैसे अपनी जगह बनाकर नीचे टिकता गया पता ही नहीं चला। हिन्दी की बिन्दी तो ऊपर थी ही, नीचे ड और ढ की बिन्दी थी। नुक़्ते ने नीचे ख़ाली जगह में अपनी जगह बना ली। हिन्दी के भाषायी सौंदर्य प्रसाधनों की बढ़ोतरी होती ही जा रही है। बेचारे एक छोटे-से बच्चे को हम अँग्रेज़ी स्कूल में भेज रहे हैं। हिन्दी के इतने अनुस्वार, मात्रा, नुक़्ते, संयुक्त व्यंजन का रट्टा लगाकर वह कैसे ढंग से सीख पाएगा अपनी भाषा हिन्दी! वह भी ऐसे में, जब उसकी पहली भाषा हिन्दी को हम उसकी दूसरी भाषा बना चुके हैं क्योंकि पहली भाषा के रूप में तो अब अँग्रेज़ी ही स्वीकार्य है हमें। इसीलिए वह हिन्दी को अँग्रेज़ी में लिखकर अपना काम चला लेता है। 
सारे हिन्दीदाँ को सोचने के लिए नहीं, परिवर्तन के लिए क़दम उठाने हैं। चाहे शिक्षक हों या छात्र, लेखक हों या पाठक, कभी तो हम यह सोचें कि कहाँ हम हिन्दी को सरल कर सकते हैं। दुःख के बीच से विसर्ग हटा कर दुख कर दें, या भगवान् में हलन्त न लगाकर भगवान लिखें, या फ़िल्म से नुक्ता हटा कर फिल्म लिखें तो हमारी हिन्दी का क़तई अपमान नहीं होगा, हाँ, नए लिखने-पढ़ने वाले के लिए कम से कम तीन चीज़ें तो कम होंगी। तीन ही नहीं, ध्यान से सोचें तो ऐसे कई प्रयोग हम कर सकते हैं। यह हिन्दी को रोमन लिपि में लिखने से तो लाख दर्जा बेहतर होगा। इस बारे में आंशिक पहल कई संपादकगण कर चुके हैं और शेष कर सकते हैं। 
मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि मैं एक ख़तरनाक मुद्दे को विषय बना रही हूँ। लेकिन विदेशी माहौल में हिन्दी कक्षाओं के जीवित रखने के उत्साह को बनाए रखने के लिए ऐसे मुद्दों से हर रोज़ निपटना पड़ता है। मैं भी कट्टर हिन्दी प्रेमी हूँ और समय के साथ बदलावों को स्वीकार करने में अपना दिल और दिमाग़ खुला रखती हूँ। अपनी भाषा के मूल को ज़िन्दा रखते हुए उसे जितना सरल बना सकती हूँ, बनाने का प्रयास करती रहूँगी। सरलता लाने के लिए भी मानकता ज़रूरी है और उसके लिए हम सबके प्रयासों की ज़रूरत होगी। हिन्दी के सरलीकरण को अपनाने की दिशा में ठोस क़दम उठाने आवश्यक हैं। चीनी भाषा ने अपनी क्लिष्टता से मुक्ति के लिये ‘सिमप्लीफाइड चाइनीज’ को प्रोत्साहित किया है। इससे उनकी लिपि या भाषा ख़त्म नहीं हुई, सरल रूप में भावी पीढ़ियों ने इसे अपना लिया। हिन्दी को हमें जीवंत रखना है तो सरलीकरण के नये प्रयोगों से कतराना नहीं बल्कि उन्हें स्वीकारना होगा और सरलीकरण का मानक रूप घोषित कर सभी को अनिवार्य रूप से अपनाना होगा। तभी हम आज की हिन्दी को सामयिक बनाकर भाषा की जीवंतता में वृद्धि कर सकते हैं। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपने हिंदी अध्यापन के साथ-साथ अनेक अँग्रेज़ी फ़िल्मों के लिए हिन्दी में सबटाइटल अनूदित किए हैं। इस प्रकार के सृजनात्मक कार्य से आपका जुड़ाव कैसे हुआ? इस प्रकार का कार्य कथा लेखन में कैसे सहायक है? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, जीविका की तलाश में यह नया कार्य बेहद सहायक एवं रुचिकर रहा। नये देश में सबटाइटल्स के अनुवाद का कार्य एक बेहतरीन अनुभव था जिसने भाषाओं की अपनी ताक़त से रूबरू करवाया। एक बार अनुवाद कार्य शुरू किया तो एक के बाद एक फ़िल्में आती रहीं अनुवाद के लिये। अँग्रेज़ी फ़िल्मों के अनुवाद में फ़िल्म लगातार व बार-बार देखनी पड़ती थी ताकि स्त्रीलिंग-पुल्लिंग की पहचान समस्या न बने। कई ऐसे शब्द भी होते थे जिनके लिये हिन्दी शब्द ढूँढ़ना टेढ़ी खीर होता था। तब भाषा विशेष की अपनी अभिव्यक्ति के महत्त्व का पता लगता था। ज़रा-सा भी फ़ोकस हटा नहीं कि अर्थ का अनर्थ होना इतना सहज हो जाता था कि पकड़ पाना मुश्किल हो जाता। तब मैंने जाना सही अनुवाद करना एक बड़ी चुनौती है। मूल लेखक की भावनाएँ जो रचना में हैं उन्हें बग़ैर चोट पहुँचाए अन्य भाषा के दर्शकों तक पहुँचाना एक बहुत बड़ी कला है। अनुवादक शब्द से शब्द का नहीं बल्कि अर्थ से अर्थ का मिलान करे तो ही अनुवाद बेहतर हो पाता है वरना कहीं से कहीं तक मूल भाषा की मिठास उसमें नहीं बचती। साथ ही जिस भाषा में अनुवाद हो रहा है उस भाषा के लोगों को यह पढ़ना-सुनना बनावटी-सा लगता है। अनुवाद की चुनौती को स्वीकार करके अनुवादक दो भाषाओं के बीच सेतु बनकर अपने कौशल से इस कार्य को सशक्त बनाता है। 
अनुवाद कार्य ने मुझे न्यूयॉर्क और टोरोंटो जैसे शहरों के बहुसांस्कृतिक माहौल को अपना कर यहाँ की जीवन शैली को गहराई से समझने में अत्यधिक योगदान दिया। इस रचनात्मक अनुभव ने लेखन में निश्चित ही सहायता की। मेरी सोच इस तथ्य को स्वीकार करने लगी कि कथातंतुओं को चुनते हुए किसी देश-काल की सीमाओं को नहीं बल्कि मनुष्य की भावनाओं को महत्ता दी जाए। मूल अँग्रेज़ी भाषा में बनी फ़िल्में हिन्दी दर्शकों तक ले जाने का उद्देश्य एक लेखक के लिये संदेश दे जाता कि कला को सर्वकालिक और सर्वग्राही होना चाहिए। किसी चित्र की अनुभूतियों को चित्रकार समझाता नहीं है चित्र स्वयं समझाता है, वही संदेश लेखनकला के लिये कथाकार को अपनी कहानी को सीमाओं से परे रखने में मदद करता है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
किसी कहानी का कथ्य मिल जाने के बाद उस कथ्य को अभिव्यक्ति के स्तर तक पहुँचाने में कितनी छटपटाहट रहती है और यह प्रक्रिया कहाँ तक और कैसे आत्मसंतुष्टि तक पहुँचती है? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, लेखन प्रक्रिया में हर रचना की अपनी एक अलग अभिव्यक्ति शैली होती है। हो सकता है कि जिस तरह मैं सोचती हूँ और लेखन को आगे बढ़ाती हूँ वैसा और लेखकों के साथ न हो। मेरा अपना यह अनुभव रहा है कि अपनी किसी कहानी का कथ्य मिल जाने के बाद उस कथ्य को अभिव्यक्ति के स्तर तक पहुँचाने में रास्ता आसान होता है। कथ्य मिलने भर की देर होती है और वह तब होता है जब मुझे या तो कोई घटना बहुत अच्छी लगती है या बहुत तकलीफ़ देती है, उस घटना से जुड़े इंसानों का स्वभाव दिल को छूता है या फिर कचोटता है। बस वहीं कथ्य सामने होता है एक कहानी के रूप में। एकबारगी लगता है कि ऐसी घटनाओं पर तो बहुत लिखा जा चुका है पर फिर भी लेखनी चल ही जाती है। लेखन की छटपटाहट पीड़ा वाली नहीं होती कि “बस अभी इसे ख़त्म करना है।” एक पेरेग्राफ में वह कथ्य लिखकर सुरक्षित करने के बाद फिर समय मिलने पर विस्तार होता रहता है क्योंकि परिवार और नौकरी की प्राथमिकताओं के बाद ही लेखन हो पाता है। कई बार ऐसे उलझ जाना पड़ता है कि समय को पकड़ना मुश्किल हो जाता है। जब समय का वह टुकड़ा मेरी मुट्ठी में होता है तो यह मेरे लिये अपना समय होता है मन के अवकाश का, जब मैं अपने चरित्रों के साथ घुलमिल जाती हूँ। मुझे याद है जब बंद मुट्ठी उपन्यास लिख रही थी तब उसके पात्र सैम और तान्या मुझे कक्षाओं के भीतर, बाहर, कॉफ़ी शाप पर, हर जगह दिखाई देते थे। 
आत्मतुष्टि ही रचनाकार का सबसे बड़ा सुख है, जब वह रचना आकार ले लेती है। प्रारंभ में तो शब्द छूटते हैं, अर्थ बिखरते हैं और भाव जुगाली भर करके रह जाते हैं। इन सबको साथ में लाने का प्रयास करना ही आत्मतुष्टि दे जाता है। जब तक स्वयं को संतुष्टि नहीं मिलती रचना पूरी नहीं होती। कई बार ऐसा होता है कि अपनी साल भर पहले लिखी कहानियों को पढ़ने का मन करता है। कई बार पात्रों के नाम भी वही सूझते हैं जो पहले आ चुके हैं। बहुत सामान्य रूप से बग़ैर किसी तनाव के ही लिखने का आनंद लेती हूँ मैं। समय की सीमाओं में बँधकर नहीं लिख पाती, न ही किसी तरह का दबाव स्वीकार्य होता है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
'प्रवास में आसपास' कहानी संग्रह की कहानियों के कथ्य में वैविध्य है, समाज के विविध रूप-रंग इसमें समाये हैं। कहानियाँ पढ़ते हुए पात्रों के संवाद में भारतीय दर्शन के आयाम परिलक्षित होते हैं, स्थान और पात्र तो विदेशी हैं पर विस्तार में भारतीय संवेदना है। प्रवास में भारतीय समाज और संस्कृति से जुड़ाव के सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
जी, आपने सही कहा दीपक जी, सबसे पहली बात तो मैंने अपने जीवन के अड़तीस वर्ष भारत में गुज़ारे हैं और प्रवास में मैं अपने परिवार की पहली पीढ़ी में हूँ इसलिये भारतीयता मुझ में रची-बसी है। मेरे बच्चों ने अपने जीवन के आठ-दस साल भारत में गुज़ारे हैं, यह दूसरी पीढ़ी आंशिक रूप से जुड़ी है भारत से। लेकिन अब उनके बच्चे जिनका जन्म यहाँ हुआ है उनमें वह अंश ढूँढ़ना चाहें तो न के बराबर मिलता है। कहने का तात्पर्य है कि पहली पीढ़ी के प्रवासी रचनाकार से यह अपेक्षा करना कि वह पूरी तरह विदेशी मानसिकता के साथ लिखे तो यह पूर्णत: असंगत प्रतीत होता है। 
दूसरी बात, मैं कैनेडा के टोरोंटो शहर में रहती हूँ और अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में मैंने छह वर्ष बिताए हैं। दोनों ही शहर बहुसंस्कृति में रचे-बसे हैं। घर के आसपास कोई चीन से है कोई कोरिया से, कोई ईरान से, और कोई बांगलादेश से कोई श्रीलंका से, हंगरी या फिर यूगांडा से। ऐसे में हर कोई अपनी संस्कृति वाले से जुड़ कर अपने त्योहार मनाता है हम भी वही करते हैं। शेष लोगों से या ता काम के या फिर हाय-हलो वाले सम्बन्ध होते हैं। जर्मनी में पूरी तरह जर्मन संस्कृति या फिर रूस की तरह रूसी संस्कृति जैसी कोई एक संस्कृति इन शहरों की बसाहट में नहीं है। मेरा यह मानना है कि लेखक कहीं भी रहकर लिखे अपनी भावनाओं को बदल नहीं सकता। कई आलोचक मित्रों ने भी रचनाओं पर अपनी टिप्पणी देते हुए यह कहा है कि “स्थान और पात्र तो विदेशी हैं पर विस्तार में भारतीय संवेदना है।” जहाँ तक मैं सोचती हूँ संवेदनाएँ कभी किसी देश की सीमाओं में बँध नहीं सकतीं। संवेदनाएँ तो मानवीय होती हैं देशों, पात्रों और नामों से परे। मेरी कोशिश यही होती है कि उन मानवीय संवेदनाओं को कहानियों में जगह दूँ। मुझे याद है एक कहानी को पढ़कर संपादक जी ने कहा था “कहानी तो अच्छी है पर इसमें पता ही नहीं चलता कि पात्र किस देश के हैं।” मैंने इसे एक सुखद प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार किया था। रचना के पात्र देश-काल की सीमाओं से परे अपनी बता कह जाएँ तो बदलते देश-काल से परे रचना को मानवीय संदर्भों में परखा जा सकता है। आज भी लिखते समय मैं भारत, अमेरिका व कैनेडा के बारे में नहीं सोचती, शायद तब भी मैं सिर्फ़ मानवीय संवेदनाओं और सरोकारों को उकेर रही होती हूँ। तब मेरे लिये पात्रों के नाम व स्थान मायने नहीं रखते। यह आक्षेप भी मायने नहीं रखता कि विदेश में रहकर भी आपके लेखन में भारतीयता ही झलकती है। इसके अलावा भी, संवेदनाओं को समझने की शक्ति इंसान को अपने परिवेश से प्राप्त होती है, जो मैंने अपनी भारतीय जड़ों से ग्रहण की है, वह शायद कभी बदलने वाली नहीं है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
'उसकी औकात' कहानी में समाज में व्याप्त मौक़ापरस्ती और दोगलेपन का जीवंत चित्रण है। आपको इस कहानी का कथ्य कैसे मिला, क्या इस प्रकार का वातावरण आपके प्रवास वाले देश में भी विद्यमान है? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, मेरा यह सौभाग्य है कि दुनिया के तीन देशों, भारत, अमेरिका व कैनेडा में नौकरी करने का व कामकाजी माहौल से पूरी तरह परिचित होने का मौक़ा मिला। भारत के कई अलग-अलग शहर तो मेरे कार्यस्थल रहे ही, न्यूयॉर्क और टोरोंटो जैसे शहर भी मेरे कार्यस्थलों में एक विशेष स्थान बनाए रहे जहाँ दुनिया के हर देश के लोगों के साथ मेरा आमना-सामना हुआ, जिसने मुझे बाहरी दुनिया का अनुभव वैश्विकता के साथ दिया। इस अनुभव ने ही मुझे यह सोचने के लिये प्रेरित किया है कि संवेदनाएँ, चाहे फिर वे सद्भावनाएँ हों या दुर्भावनाएँ, मानव मात्र में मौजूद होती हैं। हाँ, इनका आवेग कभी कम तो कभी ज़्यादा हो सकता है। समाज में व्याप्त मौक़ापरस्ती और दोगलेपन का मानवीय चरित्र देश काल के अनुसार अपना आकार अवश्य बदलता है, स्वभाव नहीं। ”उसकी औकात” कहानी किसी जगह विशेष को नहीं मनुष्य की प्रवृत्तियों को उजागर करती है जो मुझे हर कहीं दिखाई दिए। यह कहानी कार्यस्थल के उन्हीं अनुभवों की एक छोटी सी झलक मात्र है। वैसे भी कथ्य मिलता है तो कहानीकार की कल्पना उसे सँवारती है, उसे कभी किसी रिपोर्ट की तरह नहीं लिखा जा सकता। वही कल्पना कथ्य को एक नया रूप दे पाती है। जो घटना का विवरण भर न रहकर एक रचनात्मकता लिये हुए होता है, फिर चाहे उसे जो भी नाम दिया जाए वह किसी जगह विशेष की घटना नहीं रह जाती। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
आपकी दृष्टि में नारी-स्वातंत्रय क्या है और इसकी सीमाएँ कहाँ तक होनी चाहिए? 
डॉ. हंसा दीप—  
मेरी दृष्टि में दीपक जी, नारी-स्वातंत्र्य एक आंदोलन के रूप में नहीं बल्कि एक चुनौती के रूप में है कि अगर कोई भी इंसान, फिर चाहे वह नारी हो या पुरुष, अगर परतंत्रता की ज़ंजीरों में जकड़ा हुआ है तो ही उसे स्वतंत्रता चाहिए और उसके लिये ख़ुद उसीको प्रयास करने होते हैं। उसे अपने जीवन के लिये स्वयं ही कुछ करना होगा। नारी ने भी अपनी सामाजिक ज़ंजीरों को तोड़ने के लिये स्वयं क़दम उठाए हैं। जब-जब नारी ने यह प्रयास किया तब ऐसे किसी शब्द से उलझना नहीं पड़ा। वही आज भी हो रहा है। नारी इंसान ही है, जानवर नहीं कि कोई उसे बाँध कर रख सके, या फिर उसकी स्वतंत्रता के लिये कोई सीमाएँ निर्धारित की जाएँ। यह तो उसी पर निर्भर है कि वह अपना जीवन कैसा चाहती है। क्या हमारे समाज ने पुरुषों के लिये कोई सीमाएँ तय की हैं, बिल्कुल नहीं तो फिर नारी की स्वतंत्रता के लिये सीमाएँ तय क्यों की जाएँ। तय करेगा कौन, उसे स्वयं तय करने का अधिकार है कि वह कैसे अपना जीवन जीना चाहती है। वह आज जहाँ तक पहुँच गयी है वहाँ तक किसी ने नहीं पहुँचाया है वह अपने स्वयं के प्रयासों से पहुँची है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
'अपने मोर्चे पर' कहानी में आपने सवि और नेहा के नारी-स्वातंत्रय की पक्षधरता के माध्यम से पारिवारिक सम्बन्धों में आने वाले परिवर्तन को दर्शाया है। क्या आप आधुनिक समाज में नारी-स्वातंत्रय के कारण कोई विघटन को देखती हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, “अपने मोर्चे पर” कहानी में आज की नारी और आज की पारिवारिक स्थिति चित्रित है। आधुनिक परिवेश में जब नारियों को अपनी ताक़त का अहसास हो गया है तो घर के पुरुष उनकी पूरी सहायता करते हैं। अब कामों पर कोई ठप्पा नहीं लगा है कि घर में सफ़ाई सिर्फ़ महिला करेगी या फिर खाना वही बनाएगी। जो भी, जिस समय, जो कुछ कर सकता है आपसी समझबूझ से, तो ही घर चलता है। पारिवारिक विघटन की कोई सम्भावना ही नहीं है जब दोनों मिलकर घर चलाएँ। निश्चित रूप से ये विघटन के संकेत नहीं हैं कि महिलाएँ बाहर जा रही हैं, अपितु ये बदलाव के संकेत हैं। महिला को अगर पुरुष का साथ चाहिए तो यही स्थिति पुरुष की भी हो कि उसे भी वैसा ही साथ चाहिए तो ही परिवार सशक्त बन सकेगा और जुड़ा रह सकेगा। आज के बदलावों में नारी और पुरुष को एक टीम की तरह जीना सीखने की ज़िम्मेदारी दोनों की है। ”अपने मोर्चे पर” कहानी में नारी के बढ़ते क़दम उसे परिवार से विस्तृत फलक पर जोड़ रहे हैं फिर वह बेटी या पत्नी की भूमिका में हो, अपनी बात कहने का और रोज़मर्रा के कामों में अपनी सहभागिता से परिवार को बेहतर बनाने की उसकी कोशिश है, यह संगठन की शक्ति है, विघटन नहीं। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
हँसा जी आपका कहानी संग्रह 'प्रवास में आसपास' हिंदी जगत में लोकप्रिय हो रहा है। आपको भी इस बात की सूचना होगी कि हाल ही में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में इस संग्रह की समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। हिंदी समाज में इस संग्रह के स्वागत से आप कैसा महसूस करती हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
बहुत अच्छा लग रहा है दीपक जी, ठीक वैसा ही जैसा अपने बच्चों की प्रशंसा में कुछ कहा जा रहा हो। नौ महीनों की वह बेचैनी और छटपटाहट बच्चे के जन्म के साथ ही ख़ुशियों में बदल जाती है, तो रचना का जन्म भी मन के कड़े संघर्ष के बाद ही हो पाता है। उसके बाद जब अपनी कृति पर सराहना मिलती है तो वह सारी पीड़ा याद नहीं रहती बल्कि पूर्णता का अहसास होता है। साथ ही, ज़िम्मेदारी भी बढ़ जाती है कि अगली बार और अधिक परिश्रम करना होगा ताकि श्रेष्ठ रचनाक्रम की निरंतरता बनी रहे। यह कभी न ख़त्म होने वाली ख़ुशी तो है ही साथ ही और, और लिखने व सराहना पाने की भूख भी जगा जाती है। प्रवास में आसपास कहानी संग्रह की प्रत्येक कहानी हिन्दी साहित्य की सुस्थापित पत्रिकाओं में छप चुकी है व कई प्रतिक्रियाएँ मिल चुकी हैं। इन कहानियों पर मित्रों द्वारा की गयी कुछ ही टिप्पणियों को मैं संग्रह में स्थान दे पायी हूँ, व कई को सिर्फ़ धन्यवाद ही कह पायी हूँ। मित्रों के इस स्नेह की वजह से मेरा उत्साहवर्धन हुआ, मार्गदर्शन भी हुआ व रचनाओं को तराशने में मदद मिली। यही कारण है कि इस पुस्तक के आने के बाद मुझे पूरा विश्वास था कि इसका स्वागत होगा। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
स्त्री-विमर्श और स्त्री-आन्दोलन के सम्बन्ध में आपकी क्या धारणा है और साहित्य में इसे किस रूप में स्थान मिलना चाहिए? 
डॉ. हंसा दीप—  
स्त्री विमर्श व स्त्री आंदोलन पर मेरी सोच हमेशा इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार करती है। सदा से स्त्रियों के साथ अन्याय होता रहा है जिसे बरसों पहले भी साहसी स्त्रियों ने चुनौती के रूप में लिया व अपने अधिकारों के लिये सफलतापूर्वक लड़ती रहीं। आज भी आंदोलन का चाहे कोई भी स्वरूप क्यों न हो हर स्त्री को स्वयं ही आगे आना पड़ता है व अपने अधिकारों के लिये लड़ना पड़ता है, तो ही वह अपनी लड़ाई में जीत सकती है। जहाँ यह सजगता है वहाँ किसी आंदोलन की नहीं, हिम्मत की ज़रूरत है। परम्पराओं के नाम पर थोपे गए सामाजिक बँधनों को तोड़ना भी है और परिवार को विघटित भी नहीं होने देना है। स्त्री-पुरुष परिवार की गाड़ी के दो पहिए हैं। फिर दोनों में से कोई भी एक ख़ुश नहीं तो गाड़ी अटक ही जाएगी और परिवार टूट जाएगा। यह पारिवारिक विघटन आने वाली कई पीढ़ियों को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह घर की चहारदीवारी के भीतर की समस्या है कोई तीसरा इसे सुलझा ही नहीं सकता। इसीलिये परिवार के दोनों पहिए आपसी तालमेल से ही अपनी गाड़ी चला सकते हैं। तब किसी आंदोलन से नहीं बल्कि आपसी समझदारी व सूझबूझ से ही घर की नींव मज़बूत होगी। 
मुझे इस बात का गर्व है कि आज अधिकांशतः महिलाएँ अपना रास्ता तय कर रही हैं, परिवार के साथ। अपवादों की संख्या आज भी काफ़ी है जहाँ उसे पिसना पड़ रहा है लेकिन तेज़ी से आता बदलाव हमें इस बात का संकेत अवश्य दे रहा है कि गाँवों, क़स्बों और महानगरों में परिवर्तन की हवा तेज़ी से बह रही है। 
महिलाओं के प्रति अन्याय, शोषण यह सदियों से चली आ रही एक सामाजिक समस्या है और“साहित्य तो समाज का दर्पण है” इसलिये समाज की विसंगतियों को साहित्य में स्थान तो मिलता ही है, तो स्वाभाविक ही यह साहित्य का हिस्सा है। चाहे कोई स्वीकार करे या न करे स्त्री विमर्श आज एक सार्थक बहस के रूप में अपना स्थान ले चुकी है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
हँसा जी आपको 'कुबेर' उपन्यास का कथ्य कैसे मिला और इसकी रचना प्रक्रिया में क्या उतार-चढ़ाव आये? क्या यह अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने की मेहनती दृढ़ इच्छा शक्ति का परिणाम तो नहीं? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, कुबेर उपन्यास बरसों से मेरे मस्तिष्क में था। पिछले वर्ष इसे जब पूर्ण किया तो मुझे लगा कि मैं जो कहना चाहती थी वह मैंने पूरे न्याय के साथ कह दिया है। उतार-चढ़ाव तो बहुत थे, जो मन:स्थिति को प्रभावित करते थे, अमूमन ऐसा होता है जब कहानी ढाई सौ पृष्ठों में जा रही हो। लेकिन ऐसे कई मोड़ आए जो मुझे बहुत कुछ सिखा कर गए। उपन्यास को विस्तार देते हुए कई ऐसी घटनाएँ होती हैं जो कहानी का हिस्सा बनकर अनायास ही शामिल हो जाती हैं। और तब, यह भी लगता है कि पाठक के लिये बहुत कुछ ऐसा न हो जाए जो पूरी तरह से नया हो। उपन्यास का अधिकांश हिस्सा अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर के घटनाक्रमों को चित्रित करता है। स्वाभाविक ही एक सवाल उठता था मनोमस्तिष्क में कि भारत के वृहत हिन्दी पाठक वर्ग को इसमें शामिल होकर कहानी के मर्म को पकड़ना आसान होगा या नहीं। न्यूयॉर्क शहर की जानकारी देते हुए वहाँ के व्यावसायिक जगत से परिचित करवाना एक साहसिक व ज़िम्मेदारी पूर्ण क़दम था। उस सामग्री को सरल-सहज व सुग्राह्य बनाने के लिये भी अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता महसूस की मैंने। यही कारण था कि न्यूयॉर्क शहर की पेशेवर ज़िन्दगी के बारे में विवरण देते समय बहुत सावधानी बरतनी पड़ी। लेकिन मुझे इस बात की ख़ुशी है कि प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक रही। कई आलोचक मित्रों ने यह भी कहा कि ऐसे आदर्शवादी लोग होते कहाँ हैं, आपके उपन्यास में आदर्शों की भरमार है। जवाब में, मैं सिर्फ़ यही कह पायी कि मैंने यह पुस्तक माननीय कैलाश सत्यार्थी जी को समर्पित की है, उनके जैसे आदर्श चरित्र को ही तो लाना था मुझे। आज उनके जैसे कई चरित्र हैं जो समाज के लिये स्वयं को समर्पित कर चुके हैं। जब ऐसे कई चरित्र हैं हमारे समाज में तो आख़िर क्यों सिर्फ़ बुराइयों का चित्रण ही एक अच्छी रचना का मापदंड हो। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
कुबेर उपन्यास में ग़रीबी और अमीरी, दो सभ्यताओं में पिसते मानवीय मूल्यों का उदघाटन करता है और कथानक इतना रोचक बन पड़ा है कि अब आगे क्या होगा जानने की इच्छा पाठक को लगी रहती है। कृपया इस उपन्यास की कथा-बुनावट के अपने अनुभवों को साझा कीजिए। 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, मैं भारत, मध्यप्रदेश के झाबुआ ज़िले से हूँ, आदिवासी बहुलता वाले इस क्षेत्र में ग़रीबी को मैंने अपनी आँखों से देखा है। आज से साठ साल पहले मेरे छोटे-से गाँव मेघनगर में न कोई कान्वेंट था, न कोई निजी स्कूल। सरकारी स्कूलों की जर्जर हालत और बहनजी के रौब से चुपचाप पढ़ते बच्चे तब कुछ बड़ा सोच ही नहीं सकते थे। जो है उसी में ख़ुश थे। आज यहाँ एक विकसित शहर टोरोंटो में रहने वाले के लिये उन दिनों वहाँ की जो स्थिति थी वह अकल्पनीय है। यही कारण है कि वहाँ से मेरा पात्र निकल कर ऐसी जगह पहुँचा जहाँ आज मैं हूँ, या मेरा परिवार है। मेहनत व दृढ़ इच्छा शक्ति से ही तो मैं झाबुआ ज़िले में पली-बढ़ी, शिक्षित हुई और आज टोरोंटो की जानी-मानी यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही हूँ। मैं आज से पचास-साठ साल पहले के सरकारी स्कूलों की उपज हूँ, यहाँ तक पहुँची हूँ, तो किसी चमत्कार से तो पहुँचना सम्भव नहीं था। ठीक इसी तरह जब कुबेर का पात्र धन्नू न्यूयॉर्क शहर के रईसों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है तो कहीं न कहीं मैं अपनी कहानी को रचनात्मक बना रही होती हूँ। जिसमें मुझे सच्चाई अधिक और कल्पना कम लगती है। तब मेरा पात्र धन्नू सिर्फ़ एक आदर्श नहीं रहता बल्कि यथार्थ की ही अभिव्यक्ति करता है। मैंने झाबुआ की ग़रीबी को क़रीब से देखा है तो लोगों का निठल्लापन भी देखा है। संदेश यही देना चाहती थी कि काम करो, अपनी ग़रीबी दूर करो। प्यासे को पानी तक ले जाया जा सकता है मगर पीने को बाध्य नहीं किया जा सकता। 
ग़रीबी का चरम देखने, महसूसने के बाद मैंने अमेरिका की अमीरी को बेहद क़रीब से देखा है। मेरा पात्र धन्नू बनाम डीपी, भारत से न्यूयॉर्क जब पहुँचता है तो वहाँ की भव्यता से नहीं अपनी मेहनत से क़ामयाब होता है। तब मैं यह संदेश देना चाहती थी कि मैं ग़रीब हूँ, मैं ग़रीब हूँ चिल्लाने से कोई अमीर नहीं होता। स्वयं मेहनत करनी पड़ती है। 
इसके साथ ही, अमेरिका के कई शहरों में बड़े-बड़े टावर देखती थी जिन पर व्यक्ति विशेष के नाम लिखे हुए रहते थे। न्यूयॉर्क में, लास वेगस में हर जगह ऐसे टावर को देखते दौलत की चकाचौंध को महसूस किया था। तभी मैंने कल्पना की थी कि एक देसी कुबेर लाना है मुझे जो राजनीति के गलियारों से दूर एक समाजसेवी होगा और अपने कमाए पैसों का उपयोग समाजसेवा में करेगा और ऐसे कई टावर अपने शीर्ष पर उसके नाम के साथ शान से खड़े होंगे। बस तभी से यह विचार फल-फूल रहा था। एक सफल व्यवसायी अपनी मेहनत व दिमाग़ से ही उस जगह पहुँचता है। कुबेर के लिये मेरे दिमाग़ में सिर्फ़ अमेरिका के नहीं भारत सहित दुनिया भर के कई समाजसेवी थे जो आज ख़ुद इतने समर्थ हैं कि धनवानों की सूची में लगातार रहते हैं, अपनी मेहनत से व अपने श्रम से कमायी गयी दौलत से जी भर कर समाजसेवा कर रहे हैं। लिखते-लिखते कई नए विचार आए-गए और देसी कुबेर की छवि लेकर मुझे झिंझोड़ते रहे। मार्क ज़करबर्ग भी सामने आए, बिल गेट्स भी नज़रों में रहे और भी कई व्यावसायिक चेहरे थे जो मेरा रास्ता आसान करते रहे। इन सब महारथियों ने अपने बलबूते पर बहुत कमाया और समाजसेवा में लगाया। आदर्शों को देखने के लिये हमें किसी और युग में जाने की ज़रूरत नहीं हमारे सामने आज कई ऐसे उदाहरण हैं। इस चुनौती से लड़ते, अपने कुबेर को संघर्ष करते देखते, लगभग एक साल लगा मुझे कहानी को वहाँ तक पहुँचाने में। 
मैं अपने लेखन में सकारात्मकता की पैरवी करती हूँ, ग़रीबी से लड़कर कोई आगे आता है तो यह कोई आदर्श नहीं, यथार्थ है। शू पॉलिश कर या फिर खिचड़ी बना कर जीविका अर्जन करके जब ये लोग अपने लक्ष्य तक पहुँचते हैं, दुनिया चमत्कृत महसूस करती है, तब मेरा कुबेरमयी विचार सार्थक हो जाता है। कुबेर आज की दुनिया का यथार्थ है सिर्फ़ आदर्श नहीं है और अगर आदर्श भी मान लिया जाए तो सकारात्मक संदेश भी तो एक पहलू है जीवन का। मुझे ख़ुशी है कि कुबेर ने आलोचना के क्षेत्र में हलचल की है और मुझे अपने खट्टे-मीठे स्वाद से परिचित करवाया। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
हंसादीप जी आपने भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय परिवेश में जीवन जिया है। आप इन दोनों परिवेशों में नारी-जीवन की स्थितियों में क्या अंतर पाती हैं और इस अंतर को हिंदी पाठकों तक पहुँचाने के प्रयास में आप कहाँ तक सफल रही हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, विश्व के अत्यधिक ग़रीब और पिछड़े इलाक़े से लेकर विश्व के अत्यधिक धनी और विकसित इलाक़े में रहकर मैंने यह अनुभव किया है कि स्त्री बहुत शक्तिशाली है। ‘नो मीन्स नो’, “मीटू’ जैसे शब्दों ने तो हमें अब ताक़त दी है लेकिन वर्षों पहले भी झाँसी की रानी थी, आज भी कोई कमी नहीं हैं झाँसी की रानियों की। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि लड़ने के लिये उनके सामने फिरंगी नहीं हैं, उनके अपने हैं और वे ख़ुद्दारी से लड़ रही हैं। हम सब खुली आँखों से देख रहे हैं कि आज की महिलाएँ पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। 
भारतीय स्त्री और पश्चिमी स्त्री के संदर्भ में मैं एक ही बात कहना चाहती हूँ कि दोनों के क्षेत्र अलग हैं पर मूलभूत मानसिकता वही है। मसलन, आज के भारत की बात न करूँ तो भी आज से साठ साल पहले भी, जिस गाँव में मैंने जन्म लिया वहाँ भी पुरुष सत्ता तो थी पर सारे अधिकार तो महिलाओं के पास थे। वे मना कर दें तो मजाल है कि कोई क़दम उठा लिया जाए। मान भी लें कि यह हमारे घरों में था पर यक़ीन मानिए कि एक आदिवासी युवती भी जो उस ज़माने में हमारे घर काम करती थी, वह भी आए दिन शराब पीए हुए अपने पति की पिटाई कर देती थी और फिर इसलिये रोती थी कि “वह ऐसा काम करता है कि मुझे उसे मारना पड़ता है।” 
और फिर आज की बात करते हुए विदेश में पली कई लड़कियों को देखती हूँ वे सारे अंदर बाहर के काम विशेषज्ञता के साथ करती हैं। एक नहीं हज़ारों काम, यह सब वे कैसे कर पातीं अगर अपने साथी पति से उनकी आपसी समझ, साथ-साथ बढ़ने की नहीं होती। नारी-पुरुष की इस समानता के उदाहरण बहुलता से हमारे आसपास मिल जाएँगे। बेशक, तब यह धारणा बलवती होती है कि किसी भी देश में और किसी भी परिवेश में, नारी अगर ठान ले, तो स्वयं को एक पिलर की तरह मज़बूत बना लेती है। यह हर उस महिला ने किया है जो अपने पैरों पर खड़ी है और रचनात्मक कार्यों से स्वयं को ऊर्जित कर रही है। मैं एक बात स्पष्ट कर दूँ कि मैं बलात्कार पीड़ितों या फिर घरेलू हिंसा जैसे बिन्दुओं को यहाँ सम्मिलित नहीं कर रही हूँ क्योंकि वे अपराध हैं और उन्हें अपराधों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। अशिक्षा की वजह से भारतीय नारी ने बहुत कुछ झेला है, कठिन परिस्थितियों का सामना किया है व आज एक ताक़त के रूप में उभर कर सामने आयी है। भारतीय नारी ताक़त हो या विदेशी नारी ताक़त, अब तो सब परदे से बाहर आकर पूरी ताक़त से काम कर रही हैं। आज की स्त्री इतनी सक्षम हो गयी है कि स्वयं अपनी लड़ाई लड़ने के लिये आगे आ रही है। चाहे ठेठ देहात हो या महानगर, महिला स्वयं जागरूक होकर, अपने पंखों से उड़ान भरने के लिये ख़ुद ही आकाश में छलाँग लगाने को तैयार हो रही है। शायद इसी कारण मेरे नारी पात्र असहाय नहीं होते, रोते-गाते बैठे नहीं रहते, जो करते हैं अपने साहस और कर्मठता से करते हैं। हाँ, कहीं-कहीं पुरुषों पर हावी होते महिला पात्र भी हैं जो मुख्यधारा से अलग अपनी सच्चाई को उजागर करने का दुःसाहस करते हैं। 
आज अमेरिका या कैनेडा में ही नहीं, भारत में भी कामकाजी दंपत्ति एक साथ किचन में काम करके एक साथ बच्चों का, घर का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर, अलग-अलग देशों के अनुभवों से मैंने महसूस किया है कि भारतीय स्त्री अधिक मज़बूत है, अधिक मेहनती है, अधिक समझदार व होशियार भी है। इसका सबसे बड़ा कारण है उसकी कर्तव्यपरायणता एवं वह संस्कृति जिसमें उसने साँसें ली हैं। उसके कंधे इतने मज़बूत हैं कि घर और बाहर दोनों जगहों का काम करके घर को, समाज को और देश को सँवारने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे रही है। 
हर इंसान को अपने रास्ते ख़ुद ही बनाने पड़ते हैं। अगर मैं कहूँ कि यहाँ अधिक आज़ादी है भारत में नहीं तो वह सिर्फ़ शिक्षा का ही अंतर होगा। आज जैसे-जैसे भारत में नारी शिक्षित हो रही है वैसे-वैसे उसके रास्ते आसान हो रहे हैं। परतंत्रता व निर्भरता की बेड़ियाँ ही नहीं हों तो फिर स्थिति ख़राब हो ही नहीं सकती। मैंने अनुभव किया है कि भारतीय या अंतर्राष्ट्रीय, कैसा भी परिवेश हो अगर नारी अपने स्व के साथ जीना चाहती है तो अपनी स्थिति में सुधार कर ही लेती है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
साहित्य को समाज का दर्पण माना जाता है। इस संदर्भ में कथा-साहित्य के विभिन्न पात्रों के साथ सामंजस्य बनाने में निजता का क्या प्रभाव होता है? 
डॉ. हंसा दीप—  
मैं सोचती हूँ दीपक जी कि लेखक कहीं से भी कथ्य ले, किसी भी पात्र को अपनी कहानी में स्थान दे, उसे वह ज्यों का त्यों चित्रित नहीं करता। उसमें लेखक की कल्पना उसकी विचारशीलता व उसकी सोच सदैव ही हावी रहती है। उस चरित्र के साथ लेखक इतना घुलमिल जाता है कि तब उसे यह ध्यान नहीं रहता कि यह उसकी कहानी का चरित्र है, वह स्वयं नहीं। मुझे याद है जब मैं बंद मुट्ठी उपन्यास लिख रही थी तब मुझे कक्षा में, कक्षा से बाहर हर जगह सैम और तान्या दिखाई देते थे। वह मेरी कल्पना थी और मैं ही उसे साकार रूप में देखती थी। कहानी पढ़ने के बाद भी किसी और को वे पात्र वहाँ दिखाई नहीं देंगे। कहने का तात्पर्य है कि वे लेखक के अपने बनाए हुए पात्र हैं, चरित्र हैं जो कहानी के साथ-साथ, लेखक के साथ भी क़दम से क़दम मिलाकर चलते हैं। बहुत कुछ बाहरी दुनिया का होने के बावजूद लेखक की अपनी सोच का मुलम्मा तो कथ्य पर चढ़ता ही है। समाज की सोच, समाज की विसंगतियाँ और समाज के संगठन-विघटन के तार्किक पहलुओं के साथ लेखक की अपनी अनुभूतियाँ उजागर होती हैं। वैसे भी लेखक जो लिखता है वह किसी वाद के घेरे में बँधकर नहीं लिखता, अपने आसपास जो देखता है वही लिखता है, उन पात्रों को अपने भीतर जीने की आज़ादी दे कर, वह अपनी रचना को पूर्णता देता है। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
वर्तमान समय में हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में नवीनतम सूचना-प्रौद्योगिकी तकनीक का क्या योगदान है? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, सूचना-प्रौद्योगिकी तकनीक के कारण ही मेरा आपसे परिचय हुआ। भारत से 1992 में जब मैं न्यूयॉर्क आयी थी तब भारत में पत्र-पत्रिकाओं व लेखन से संपर्क लाख चाहने पर भी नहीं रह पाया था। एक-दो साल तक रचनाएँ डाक से भेजीं लेकिन वे कहीं पहुँची ही नहीं। और तब, सिर्फ़ यहाँ की स्थानीय पत्रिकाओं में ही अपनी रचनाएँ भेज पाती थी। अब लेखन की निरंतरता इसलिये भी है कि हम ईमेल से रचनाएँ भेज पा रहे हैं, वे निरंतर प्रकाशित हो रही हैं व समकालीन रचनाकारों तक, समालोचकों तक पहुँचने लगी हैं। सोशल मीडिया पर कई रचनाकार मित्र बन रहे हैं और इस तरह एक दूसरे की सराहना से रचनाधर्मिता को प्रोत्साहन मिल रहा है। सूचना-प्रौद्योगिकी तकनीक की वजह से, हिन्दी को ग्लोबल देखकर बहुत अच्छा लग रहा है। हिन्दी भाषा से सम्बन्धित हर चीज़ अब सर्वसुलभ है, हर चीज़ अब आनलाइन उपलब्ध है। हिंदी भाषा पढ़ाई जा रही है, आनलाइन कक्षाएँ भी हो रही हैं, यूट्यूब पर सीखने के लिये कई वीडियो लगाए जा रहे हैं। किसी भी शब्द की जाँच-परख करनी हो तो गूगल कर लो। सब कुछ तो उँगलियों की पोरों तक सिमट कर आ गया है। यहाँ तक कि कई साहित्यकारों की रचनाएँ भी आनलाइन उपलब्ध होने से साहित्य का प्रचार-प्रसार तेज़ी से हो रहा है। कोई एक श्रेष्ठ रचना कहीं प्रकाशित होती है तो तुरंत इच्छुक पाठक उसका आस्वादन कर लेते हैं व अपनी राय भी ज़ाहिर कर देते हैं। मैं सोचती हूँ कि इससे अच्छा प्रचार-प्रसार पहले कभी था ही नहीं जो आज है व उम्मीद करती हूँ कि यह बेहतर बनेगा। 
डॉ. दीपक पाण्डेय—
हँसा जी बंद मुट्ठी उपन्यास में कथानक तो भारत, सिंगापुर और कैनेडा के परिवेश का है पर तान्या के माता-पिता का चरित्र भारतीय समाज की रूढ़िवादी और परम्परावादी मानसिकता को प्रदर्शित करती है। क्या आप सहमत हैं? 
डॉ. हंसा दीप—  
बंद मुट्ठी उपन्यास में कथानक के अनुसार तान्या के माता-पिता ने अपने जीवन के कई साल भारत में ही बिताए हैं। ऐसी स्थिति में उनकी सोच पूरी तरह से भारतीय है। निःसंदेह, एक परिपक्व उम्र के बाद अपनी सोच बदलना मुमकिन नहीं हो पाता। चाहे आप किसी भी देश में चले जाएँ, अपनी वेशभूषा, अपनी भाषा बदली जा सकती है लेकिन विचारों और संस्कारों की गहरी पैठ को बदलना सम्भव नहीं हो पाता। और ख़ासतौर से तब, जब वह बच्चों की शादी से या उनके जीवन से जुड़ी हो तो उस सोच को बदलना चाहकर भी नहीं बदल पाते माता-पिता। मेरे ख़्याल में, उनके इस चरित्र को लाते हुए मैं अपने बारे में सोचती थी कि मेरे अंदर जिन सिद्धांतों को जगह मिल गयी है क्या वह कभी ख़त्म हो सकती है, शायद नहीं। एक छोटा सा उदाहरण दूँ आपको जैसे कि बचपन से जैन परंपराओं का पालन करते हुए शुद्ध शाकाहारी खाना खाया है तो भारत छोड़ने के बरसों बाद भी आज तक कभी जैन भोजन पद्धति को छोड़ा नहीं। यहाँ के माहौल में भी आज तक कभी अंडे वाले केक को छू नहीं पायी, तो किसी मांसाहारी चीज़ को खाने के बारे में सोचने का तो सवाल ही नहीं उठता। तो अगर कोई स्थिति मेरे साथ ऐसी होती तो मेरी प्रतिक्रिया थोड़ी कम, या थोड़ी अधिक, शायद वैसी ही होती जैसी तान्या के माता-पिता की थी। इन रिश्तों को स्वीकार कर लेना एक अलग बात होती है और मन से अपना लेना दूसरी बात। इसे हम चाहें तो संकुचित मानसिकता कह सकते हैं लेकिन समय के साथ इस भावना की तीव्रता निश्चित रूप से कम हो जाती है। समय तो बड़े से बड़े घावों को भरने में सक्षम होता है। और यही बात होती है तान्या के माता-पिता के साथ। जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उनका ग़ुस्से का आवेग घटता जाता है। वे अपनी नातिन रिया से बातें करके तान्या तक पहुँचने की कोशिश करते हैं और रिश्तों की डोर को टूटने नहीं देते। 
 डॉ. दीपक पाण्डेय—
'बंद मुट्ठी' उपन्यास की कथा तान्या और सैम की जिस छटपटाहट से शुरू होती होती है, समापन में वह दुगुनी ख़ुशी /उत्साह में बदल जाती है। इस कथ्य की पृष्ठभूमि में कौन सी घटना रही है? 
डॉ. हंसा दीप—  
दीपक जी, सच कहूँ तो बंद मुट्ठी उपन्यास की कहानी के इस समापन पर मेरी अपनी सोच का प्रभाव लगता है क्योंकि मैं एक आशावादी इंसान हूँ। किसी को मैं दुःख में छोड़कर अलग नहीं हो पाती, ऐसा ही सम्बन्ध अपने पात्रों के साथ भी बन जाता है। यही वजह थी कि जितने तनाव की स्थिति में मैं उपन्यास शुरू करती हूँ, ख़ुशी के पड़ाव पर आ कर पात्रों से विदा लेती हूँ। शुरू से आख़िर तक सैम और तान्या एक मानसिक द्वंद्व में लगातार रहते हैं। जिस तरह लगातार द्वंद्व में कहानी आगे बढ़ती है उसमें ख़ुशी आना जीवन का एक हिस्सा है। सकारात्मक सोच जीवन मूल्यों को बेहद प्रभावित करती है, लेखक को भी, पाठक को भी। और फिर उपन्यास का कैनवास इतना बड़ा होता है कि अंत तक आते-आते अगर कोई घटना होगी तो भी वह प्रवाह के साथ बदलने का सामर्थ्य रखती है। पात्रों का व्यवहार, चरित्र सब कुछ किसी न किसी बदलाव के साथ उपस्थित होने लगता है। कभी-कभी भाषायी प्रयोग भी यह अहसास दिलाते हैं कि पात्रों में किस करवट बैठने की क्षमता है। तो मैं यही कहूँगी कि कोई एक घटना नहीं, घटनाओं की क़तार होती है जो प्रारंभ और अंत के बीच में आकर अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं। 

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