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सात दिन बहुत ज़्यादा थे . . . शायद नहीं, बहुत कम। लिखने के लिए क्या था उसके पास? अभी कल ही सम्पादक का फ़ोन आया था। पिछले सप्ताह उसके उपन्यास की अगली कड़ी नहीं छप पाई थी। एक साप्ताहिक पत्रिका से उसने मेहनताना तो ले लिया था, मगर समय से यह कड़ी लिखने मेंं उसे देर हो गयी। सम्पादक ने एक छोटे से नोट मेंं पत्रिका मेंं पाठकों से क्षमा माँग ली थी। पर अब ऐसा न हो, यह भी चेता दिया था उसे कल फ़ोन पर। 

पतझड़ के रंग-बिरंगे झरते पत्तों को देख कर उसे हमेशा ही अपने जीवन की कहानी याद आती है। चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, कहीं न कहीं किसी न किसी तरह उसके उपन्यासों मेंं उसे अपनी कहानी छिपी मिलती है। पाठक क्यों न पसंद करें, पुरुष वर्ग ख़ासकर? उसकी कहानी में एक माँ, एक आदर्श पत्नी, एक प्रेमिका, एक सुन्दर स्त्री, सभी तो होते हैं, बस नहीं होता है तो उसका असली वुजूद। अपनी कहानियों मेंं वह सब को जीती है, बस ख़ुद को नहीं, जो वह बनना चाहती थी, जो वह जीना चाहती है . . . किसे पता है कि किस तरह कई बार उसके ज़ेहन मेंं आते हैं कैसे-कैसे ख़्याल, कैसे उसे जीने का मन नहीं होता और कई बार उसे सब छोड़ कर चले जाने का मन होता है किसी ऐसी जगह जहाँ उसे कोई न पहचाने, कोई न जाने और वह एकांत मेंं चुपचाप पड़ी रहे . . . कई बार उसे मन होता है वह उस से घंटों बातें करे जो उसके पास रोज़ रहता है, उससे बातें करता है, पर वह बता नहीं पाती। 

आज फिर कैबिनेट से उसने शराब की एक बोतल मेंं से कुछ शराब ख़त्म की थी। दिवाकर को पता नहीं था कि वह उनके वाइन कैबिनेट से आजकल छिप-छिप कर शराब निकाल कर पीने लगी है। सुधा के स्कूल जाने के बाद, वह एक गिलास मेंं कुछ बर्फ़ मिला कर चाय के बदले आजकल . . . पर बस यही तो है जो उसे सुकून दे सकता है। 

शराब पीने से कई धुँधली चीज़ें साफ़ दिखने लगती हैं। कुछ पुरानी बातें भी साफ़-साफ़ सुनायीं देती हैं। उसे याद है, कॉलेज मेंं उसकी साइकोलॉजी की प्रोफ़ेसर ने उसकी काउंसेलिंग की थी। वह ख़ुद ही गई थी उनके पास, बताया था उन्हें कि किस तरह उसकी एक ख़ास सहेली के ख़फ़ा हो जाने पर वह ख़ुदकशी कर लेना चाहती थी। प्रोफ़ेसर बनर्जी ने उसे समझाया था कि वह अपना जीवन बर्बाद न करे। और उसके जीवन आबाद या बर्बाद करने से क्या होता था, उसके माँ-बाप ने उसकी शादी कर दी थी दिवाकर के साथ। सुन्दर और क़ाबिल पति, अमीर परिवार। दो साल बाद सुधा भी आ गयी थी और सब कुछ अच्छा लगाने लगा था। मगर कहीं न कहीं दिल मेंं यह बात ज़रूर थी कि वह प्रेम करना चाहती थी। वह प्रेम जहाँ उसे वापस प्रेम मिले। उस के जैसा प्रेम। उसके अंदर का प्रेम। बाहरी आवरण नहीं, सच्चा प्रेम। 

प्रेम की परिभाषा क्या है? क्या वह प्रेम है जो दिखता है? या वह जो नहीं दिखता? वह जो समाज के लिए है? या वह जो बिना दिखे भी शाश्वत है? वह जो छिपा कर रखा जाए? या वह जो डंके की चोट पर बता दिया जाए? उसकी कहानियों मेंं तो सब कुछ हमेशा आदर्श सा होता रहा है, जो समाज चाहता है, जो पाठक आदर्श सपने देखता है, जो जवान लड़के-लड़कियों की धड़कन है। और तभी तो उसके उपन्यास और कहानियाँ इतनी मशहूर होती हैं। 

आज उसे अगली कड़ी ख़त्म करनी है। बीस कड़ियाँ जा चुकी हैं, अब इस कड़ी मेंं वह एक घुमाव लाएगी। इस बार लिख दे अपनी कहानी? 

“शोर के बीच उसने मीरा से चुपके से कहा, तू बहुत प्यारी है। तेरे घुँघराले बाल एकदम रेशमी, एकदम मुलायम। क्या मेरे बालों को सहलाएगी?” लिखते-लिखते फिर से हाथ रुक गए उसके . . . नहीं यह नहीं कर पाएगी वह, नहीं लिख पाएगी . . . सुन्दर पत्नी और एक बच्चे की माँ, यही तो तमगा है उसका, ट्रॉफी वाइफ़, आइडियल। और समाज तो अब भी है। समाज के लोग अब भी हैं . . . सच मेंं पतझड़ के उस रंगीन पत्ते जैसी है वह, कोई जान नहीं है जिसमेंं, झर जाने से पहले का रंग। उफ़! कैसी कशमकश है यह? इस बार वह अपनी कहानियों मेंं जी लेना चाहती है ख़ुद को। हाँ, जी लेगी इस बार वह . . . उँगलियाँ फिर से लिखने लगीं उसकी, “प्रेम का कभी रंग हुआ है? या शायद बहुत सारे रंग हुए हैं, सतरंगी . . . ” 

आज उसके उपन्यास का विमोचन था। देखते-देखते कितने ही वर्ष निकल गए हैं। दिवाकर से तलाक़ को भी 4 साल हो गए हैं। माधुरी के साथ रहते हुए 2 साल से ऊपर हो गए हैं अब उसे। समाज से लड़ना आसान नहीं था। माधुरी के साथ घर बाँधने मेंं कील के रास्ते से गुज़रना पड़ा था उसे। हाँ, सुन्दर पत्नी, आदर्श प्रेमिका का तमगा वह उतार चुकी है, मगर एक स्त्री बन कर दिखा दिया है उसने। एक साधारण स्त्री नहीं, वह स्त्री जिसके स्त्रीत्व की परिभाषा प्रेम है, सिर्फ़ प्रेम। और सबसे पहले स्वयं से प्रेम कर पाना, अपने को अपने होने की स्वीकृति दे पाना ही सबसे बड़ी पहल है उस प्रेम के रास्ते मेंं आगे बढ़ने के लिए। इस उपन्यास मेंं उसने जिया है ख़ुद को, अपने होने को, अपने को स्वीकार किया है। स्वीकृति-उसका पहला उपन्यास, सही मायनों मेंं। 

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