जीवंत आसमान की धरती का जादू
कविता | डॉ. रेणुका शर्माकृषि धन-धान्य से परिपूर्ण,
सस्काचेवन और इसके आसपास के क्षेत्र की धरती
जहाँ असीमित आसमान इतना जीवंत, इतना सजीव।
ज्यों चित्रकार ने अपनी अत्यंत अनुभवी तूलिका से जैसे—
यूँ ही उकेर दिया नीला, चाँदी सा चमकीला, स्लेटी रंग।
पड़ती जब उस पर डूबते सूरज की,
स्वर्णिम आभा की नारंगी, क़ुदरती मटमैली
और कभी सतरंगी धारियाँ-सी बनती,
रोज़ एक नवीन, विस्मित नज़ारा सूर्यास्त का,
मोह लेता है मन।
यूँ ही नहीं कहते इसे—
जीवंत आसमान की धरती का जादू।
सहसा लगेगा, बादल ये चलते हैं,
सुबह से दोपहर, दोपहर से शाम तक,
बदल-बदल कर स्वरूप अपना।
उगते सूरज की लालिमा से आच्छादित नभ पर,
सफ़ेद रुई के गोले, पारे से चमकते,
गहरे नीले पवित्र, स्वच्छ कैनवास पर।
गर्मियों की शाम में रेतीली नदी के किनारे,
संध्या में पश्चिमी आसमान का एक कोना,
कहीं सुनहरी नारंगी, कहीं चाँदी सा चमकता,
मानो असीमित नभ की सीमा मापने निकला हो,
तो कभी दूर . . .
पेड़ों की अग्नि के धुएँ से हुआ धुँधलका।
कभी अपनी विद्युत गति और
तूफ़ान की तीव्रता से तो कभी
असीम शान्ति की
नीरवता की सुन्दरता से अचंभित करते
यूँ ही नहीं कहते इसे—
जीवंत आसमान की धरती का जादू।
जंगल, पारदर्शी चमकते झरने और
असंख्य नदियाँ यहाँ।
भालू, बायसन मूस, हिरन और
अन्य जीव, मस्त विचरते जहाँ।
धान से भरे सुनहरे खेतों की धरती यह,
कनोला, सरसों की बसंती–पीली,
कनक-धानी चुनरी ओढ़े।
जहाँ तक नज़र जाए,
मीलों दूर-दूर तक, हवा में लहराती।
और ऊपर आसमान घने नीले, तो कभी
नील-सी नीलिमा की
असीमितता की परिधि में बाँध लेते।
यूँ ही नहीं कहते इसे—
जीवंत आसमान की धरती का जादू।
रात में जब न होते बादल, कभी अचानक से,
कभी भूत-सी अवतरित हो बियाबान में,
तो कभी, शहरवासियों को उपकृत करती,
मानों स्वर्ग से उतर,
संगीत-चिह्नों पर थिरकती, ठुमकती।
हरे-सुनहरी रंगों के अनूठे करतब दिखाती,
उत्तरी दिशा में जगत लोकप्रिय ‘नॉरदर्न लाइट्स’
जंगल में मंगल भर,
अचंभित, स्तब्ध, प्रफुल्लित करती,
जड़-चेतन हर कण-कण को।
यूँ ही नहीं कहते इसे—
जीवंत आसमान की धरती का जादू।
पंछीगण दूर देशों से
बसंत में आकर करें बसेरा यहाँ,
और असंख्य हो,
करते पतझड़ में वापसी।
अपने विजयी चिह्न के आकार में,
कुशल नेतृत्व के मार्गदर्शन में निडर,
गर्व से फैलाये अपने पंखों को
एक छोटे समूह में, फिर एक बड़े और
फिर उससे भी बड़े समूह में,
सहस्त्र विहगगण उड़ते,
पूरे नभ को समेटे हुए।
जादू सी करे भ्रमित,
करे नित प्रेरित, यह धरती।
अपने अतुल नैसर्गिक सौन्दर्य से,
हो हृदय में आत्मसात।
बस जाता चलचित्र सा नयनों में,
देता ढाढ़स और राहत,
सर्दियों के बहुत लम्बे,
बहुत कठोर महीनों में।
रहती आस फिर से,
जीवंत आसमान की धरती के रंगों और चित्रों को
अपने उर-नैनों में जीवंत कर लेने की।
यूँ ही नहीं कहते इसे—
जीवंत आसमान की धरती का जादू।
इस विशेषांक में
कविता
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