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विश्वास की रौशनी से भरी कविताएँ: 'क्या तुम को भी ऐसा लगा?'

समीक्षित पुस्तक: क्या तुमको भी ऐसा लगा? (काव्य संकलन)
लेखक: शैलजा सक्सेना
वर्ष: प्रथम संस्करण २०१४ 
प्रकाशक: अयन प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या:
मूल्य:

लगभग बीस बरस पहले भारत से विदेश प्रवास कर गई कवयित्री शैलजा को जो सम्बन्ध एक बार फिर हिन्दुस्तान की ज़मीन और हिंदी की दुनिया में खींच लाया वह है कविता से उनका सम्बन्ध। पिछले तीस वर्षों के अंतराल में, समय-समय पर सिरजी जाती कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं। इन रचनाओं का पहला संकलन हाल ही में ‘क्या तुमको भी ऐसा लगा?’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं की भावप्रवणता पाठक को एक अलग स्तर पर प्रभावित करती है। सर्दियों में पत्तों से छनकर आती धूप जिस तरह रोशनी और गरमाहट देती है शैलजा की ये कविताएँ विचारधारा और विमर्शों की टकराहट से लैस आज की कविता के माहौल में अपनी कोमल संवेदनशीलता से उसी तरह का मासूम अनुभव बाँटती हैं। 

इन कविताओं का कैनवस बहुत बड़ा है। निजता, परिवेश, सम्बन्ध, प्रकृति, कविता, शब्द सबकी पहचानी-अनपहचानी अनेकमुखी छवियाँ इस संकलन में उपलब्ध हैं। इन सबके ऊपर है कवयित्री का विश्वासी मन। हिंसा और संदेह के इस कठिन समय में शैलजा का कवित्व मन के उस कोने को बचाए रखता है जो अनेक दबावों के बावजूद हार नहीं मानता। उसके भीतर एक ज़िद है जो न थकती है, न मरती है। ऐसे पलों में निराला और मुक्तिबोध की काव्य परंपरा का स्मरण हो आता है जो काव्य-संस्कार के बीज-रूप में शैलजा के कवि मन में बसा हुआ है। संकलन के आरंभिक हिस्से में एक छोटी-सी कविता है ‘कुछ है . . . . . .’:

कुछ है . . . . . . 
अब भी है कुछ, 
जो रूढ़ियों से नहीं डरा 
न सूखे में सूखा, न पतझर में झरा
भले न रहा हो उतना हरा 
पर कुछ है–
जो अब भी नहीं मरा!” 
     (कुछ है . . . . . पृ. 32) 

यह कविता कवयित्री की मनःस्थिति का ऐलान है। बहुत बार हमने अपने आप से यह सवाल पूछा है कि दुनिया इतनी बदल गई या हम ही बदल गए हैं। बदलते परिवेश का लेखा-जोखा यहाँ भी कवयित्री ने भली-भाँति किया है। घड़ी की सुइयों में क़ैद जीवन-शैली जैसे हमें स्वयं से अपरिचित किए दे रही है। जीवन और सम्बन्धों के तार भागते समय में चटक गए हैं फिर भी कवि का मन मूक समर्पण नहीं करता वह ‘समय की पोटली से’ अपने लिए कुछ पल चुरा ही लेता है।

कविताओं के गुंजार और शब्दों के विस्तार में कवि ने अपने लिए जिस कोने की तलाश की है वह शुद्ध कविता का कोना है। कविता किसी को क्या दे सकती है? दुनिया की नज़र में उसकी भूमिका और मूल्य कुछ भी हों या न हों लेकिन ये कविताएँ इस दृष्टि से आश्वस्त करने वाली हैं। इन कविताओं में कवयित्री स्वयं को पहचान रही है। यह पहचान सिर्फ़ उसकी नहीं उस इंसान की पहचान है जिसमें मनुष्यता अभी भी जीवित है, जिस पर इस वाचाल समय में भी भरोसा किया जा सकता है, जिसे औरों का दर्द अपना बनकर व्यापता है, जिसमें सच को सच और झूठ को झूठ कहने की ताक़त है, जिसमें कवि होने की शर्त कवि से पहले मनुष्य बनने में है। एक लंबे समय से हम हिंदी में ऐसी कविताएँ रचना और पढ़ना शायद भूल ही चुके हैं। आज के दौर में कवि होने का भी अपना वर्चस्व-क्षेत्र बन गया है। इसलिए कविताओं में कई तरह के रैटोरिक बार-बार प्रतिध्वनित होते हैं। इन कविताओं में कवयित्री उस रैटोरिक से परे ‘ख़ालिस कविता’ को बचा पाने में समर्थ रही है, इसमें दो राय नहीं। हालाँकि कविता के बाज़ार में इनका मूल्यांकन कैसे होगा यह कहना कठिन है।

शैलजा की कविताओं में अंतर्जगत के यथार्थ और बहिर्जगत के यथार्थ के बीच आवाजाही चलती रहती है। इस पुस्तक के लोकार्पण के समय प्रो. नित्यानंद तिवारी ने इस महत्त्वपूर्ण सत्य को लक्षित कर कहा था कि जब बहिर्जगत के यथार्थ में हलचल मचती है, तूफ़ान आता है तो समाचार और मिडिया का संसार उसके इर्द-गिर्द सनसनी खड़ी कर देते हैं जबकि अंतर्मन की दुनिया में जो तूफ़ान आता है उसे केवल साहित्य ही दर्ज करता है। शैलजा ने अपनी इन कविताओं में इस भीतरी तूफ़ान को बार-बार दर्ज किया है। इस दृष्टि से उनकी स्त्री-अनुभव की कविताएँ विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करती हैं। 

“दिन की शतरंजी बिसात पर
हर बार रखा मैंने 
अपने मूड को उठा कर 
तुम्हारे मूड की चाल के अनुसार! 
 . . . . . और पूरी कोशिश की 
अपने मूड को बचाने की 
X    X    X    X    X    X
कितनी भी कोशिश करूँ . . . . . 
पर हर बार तुम्हारा मूड जीतता है 
और मात खा जाता है मेरा मूड!” 
     (मूड, पृ. 109) 

इन कविताओं पर चर्चा करते हुए ‘स्त्री विमर्श’ का ज़िक्र कई बार आया पर मेरा मन इन्हें किसी विमर्श की परिधि में बाँध कर पढ़ नहीं पाता। ‘स्त्री विमर्श’ की रचनाओं में जिस सजग भाव से स्त्री अधिकार की माँग है या फिर हर अनुभव को जेंडर लेंस से देखने की ख़्वाहिश वह यहाँ नहीं है। स्त्री होने के नाते कवयित्री के पास वह अनुभव है जो स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता को बारीक़ी से पकड़ता है। वह अपने छोर पर खड़ी दूसरे छोर को तौल रही है। अपमान व दुत्कार के तिक्त अनुभव उसका प्राप्य नहीं, झंडाबरदारी उसका लक्ष्य नहीं इसलिए ‘विमर्श’ का स्थापित ढाँचा इस कविता की कसौटी भी नहीं। कुछ ऐसे पल, ऐसी प्रतिक्रियाओं पर कवयित्री की निगाह रुकी है जो व्यक्ति और घर के घेरे के बाहर स्त्री होने के नाते दुनिया भर की औरतों को झेलने पड़ते हैं। यह समाजशास्त्रीय निष्कर्ष अपने महीन रूप में हमारे समाज और सम्बन्धों में जिस तरह पसरे पड़े हैं उसकी टीस इन कविताओं में है। बँधी मुट्ठियों की तल्ख़ी या अंतर्जगत में हाहाकार मचाने वाले करुण रुदन की जगह बहुत हल्की-सी उदासी के साथ अपनी बात कही गई है जिसमें भावना की गरमाहट और विचार की ऊर्जा एक साथ अनुभव की जा सकती है।

स्त्री की दुनिया सम्बन्धों की दुनिया होती है। इन सम्बन्धों के बिना जैसे वह संसार को चीन्हती ही न हो, शैलजा की कविताओं में भी इन सम्बन्धों के कई रंग हैं। उनके यहाँ सम्बन्ध मुख्यतः परिवार के घेरे में व्याख्यायित होते हैं। माँ, पिता और बेटे से दूर रहते हुए भी एक संवाद स्थापित करने की कोशिश हुई है। कवयित्री का अंतरंग मानों उनके पास होने के अहसास से भरा-पूरा होता है। उनकी आवाज़ें उसके आस-पास में घुलकर फैल गई हैं। माँ से बहुत गहरा सम्बन्ध है। वहाँ स्त्री-अनुभव की साझेदारी भी है। माँ का ‘पिछली रोटी’ न देना, ख़ुद को भूलते चले जाना आज पलट कर अपने सामने आ गया है। माँ की तरह और माँ से दूर होने की अनुभूति ‘माँ’ शीर्षक कविता में विलक्षण रूप से उभरती है। बेटी बहुत तरह से उसी अनुभव से गुज़र रही है जिससे माँ गुज़री थी। अनुभव की साझेदारी होते हुए भी दोनों की भूमिका में अंतर रहा। ‘प्रवास’ की दूरियों ने पीड़ा को और घना कर दिया है लेकिन स्त्री की नियति या विकल्प अपनी पीड़ा छिपाने की ओर ही मुड़ती है:

“हम दोनों सच और झूठ के बीच
रखते हैं पाँव फूँक-फूँक कर 
पता न चले दूसरे को 
पाँव में छाले कितने हैं!! 
सच हमेशा रहा है धारदार 
धार को ढँका ही रहने दें तो अच्छा!!” 
     (माँ, पृ. 148) 

इन सब अनुभवों का कविता में दर्ज होना कवयित्री की संवेदनशीलता से भरी सूक्ष्म निरीक्षण दृष्टि का प्रमाण है।

इस संग्रह में बहुत-सी प्रेम कविताएँ भी हैं। प्रेम-राग-अनुराग से भरा, दाम्पत्य-गार्हस्थिक भाव का प्रेम जो मन के उल्लास का प्रतिबिंब है।

“मैं बताना चाहती हूँ तुम्हें, 
कि मुझ में 
उग आये हैं 
इच्छाओं के पेड़, 
जिन पर सपनों के फूल खिलते हैं, 
तुम्हारे लिए! 
   (तुम्हारे लिये: सपनों के फूल, पृ. 92) 

या फिर . . .

   
“तुम्हारी आँखों में उगे सूरज की 
  सिंदूरी किरणें 
  सज गई मेरे माथे पर!” 
       (तुम्हारी आँखों का सूरज, पृ. 91) 

इन सब कविताओं में एक सौम्यता, सौन्दर्य, उमंग, उल्लास, स्वप्न सब कुछ है। जीवन के प्रति आस्था और प्यार भरा दृष्टिकोण लेकिन यह रोमानियत कवि-मन पर इतनी हावी नहीं होती कि जीवन की तिक्त-तपती सच्चाइयाँ उजागर न हों। पारिवारिक सम्बन्धों को निबाहते हुए स्त्री-पुरुष के बीच लिंग-आधारित असमानताओं पर टिप्पणी करने से कवयित्री चूकती नहीं है। मीठा-सा उलाहना वहाँ झट हाज़िर रहता है क्योंकि स्त्री मन प्रेम में साथ चाहता है, बराबरी और सम्मान की अपेक्षा करता है। सहभाव में खुलेपन के बावजूद जहाँ-जहाँ इसकी कमी खलती रही उस अनुभव को तीव्रता से अभिव्यक्त किया गया है। 

जीवन के ये अनुभव केवल सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं हैं। असमानता कई स्तरों पर हो सकती है। एक कविता है ‘बच्चा पिटता है।’ इसमें शैलजा हमारे उस सामाजिक अंतर्विरोध को सामने लाती है जिसमें बग़ीचे से अमरूद चुराने के लिए बच्चा तो पिटता है लेकिन राजनेता और व्यापारी किस तरह देश के संसाधनों को लूट रहे हैं उनपर कोई चर्चा भी नहीं करता। 

शैलजा की इस सामजिक अंतर्दृष्टि को उनकी वैश्विक दृष्टि ने और समृद्ध किया है। वे विश्व के अलग-अलग हिस्सों में लम्बे समय तक रहीं, रंग-भेद औए धर्म के बल पर फैली हिंसा मानवीय अनुभव को किस तरह ख़त्म करती है यह किसी से छिपा नहीं है। शैलजा की कविता हिंसा और ताक़त के बरक्स संवेदना की साझेदारी को तरजीह देती है जिसके समक्ष सब भेद-भाव पिघलने लगते हैं। अलग-अलग रंगों और नस्लों की साथ खेलती बच्चियाँ मनुष्यता का इन्द्रधनुष रच देती हैं:

“बच्चियाँ खेल रही थीं, 
एक दूसरे का हाथ पकड़े 
भूरे, पीले, गोरे, काले रंगों की बच्चियाँ खेल रही थीं! 
 
धरती पर इन्द्रधनुष रचतीं, 
अपनी सफ़ेद हथेलियों में 
एक दूसरे के रंगों को थामें, वे मगन थीं!” 
                  (इन्द्रधनुष, पृ. 160) 

अधिकांश कविताएँ छोटी-छोटी बिंबधर्मी रचनाएँ हैं। प्रकृति के कुछ सुन्दर बिंब हैं—वर्षा, सुबह, कैनेडा में बसंत, हिमपात के बाद, आदि। इन सबमें एक समानता है—खुलेपन का अहसास, उन्मुक्तता व स्वच्छंदता का भाव जैसे कवयित्री अपनी ‘स्पेस’ की तलाश कर रही हो। तरलता इसका दूसरा गुण है। एक बंधे-बंधाए और कसे हुए ढाँचे को छोड़कर तरलता से बहने वाले बिंबों और भाषा का प्रयोग किया गया है। एक बिंब दूसरे में घुल जाता है और कविता नदी की तरह आगे बढ़ती है कभी आवेग से आगे धकेली जाती, तो कभी शांत, मंथर गति से आगे बहती हुई। शब्दों का चुनाव संवादधर्मी है। सीधे बोल-चाल के शब्द फोटो चित्र बनाते हैं। बाह्य जगत को पकड़ने की कोशिश के साथ-साथ मन पर पड़ने वाले प्रभावों को भाषिक अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न हुआ है। कहीं-कहीं इस भाषा का तेवर नई कविता या समकालीन कविता की छवियों की याद दिलाता है। संभवतः कवयित्री का साहित्य की विद्यार्थी होना उनकी अभिव्यक्ति पर अपना असर डालता है।

शैलजा की प्रारंभिक कविताएँ ‘अष्टाक्षर’ संग्रह में छपी थीं जिनमें अनामिका, हेमंत कुकरेती आदि कवि शामिल थे। कभी मन में यह सवाल आता है कि यदि वे यहाँ के सक्रिय साहित्यिक माहौल में रहतीं तो उनकी कविता की दिशा क्या होती? फ़िलहाल, यह संकलन कवि के काव्यानुभव को विस्तृत कर पाठक को सक्रिय रूप से उसमें शामिल करता है और एक तरह से ‘शुद्ध कविता की खोज’ करने वाला काव्य-संकलन बन जाता है। उसे उसके पाठ की संवादधर्मिता में पहचानना ही सही होगा। 

डॉ. रेखा सेठी
एसोसिएट प्रोफ़ेसर
इन्द्रप्रस्थ कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय

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