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सब लोग मुझे ‘स्पॉइल्ड चाइल्ड’ कहते हैं पर मेरा दावा है कि मैं नहीं, मेरी नानी ‘स्पॉइल्ड नानी’ हैं, ‘प्राब्लम नानी’ हैं। कोई भी मेरी आपबीती सुने तो उसे पता चले कि सचमुच मेरी हालत कितनी ख़राब है। सबको तरस आएगा, मुझ पर भी और मेरी परेशानियों पर भी। कोई एक बात हो तो बताऊँ, सुबह से शाम तक ऐसी हज़ारों बातें हैं जहाँ पर नानी मेरे लिये परेशानियाँ खड़ी करती रहती हैं। नानी के इमोशनल अत्याचार की मैं आदी हूँ वह मुझ पर काम नहीं करता पर उनके जो भाषण के अत्याचार लगातार कानों में कीले ठोकते हैं वे मेरी उम्र लगातार कम करके मुझे बच्ची बना देते हैं। 

कभी-कभी मुझे लगता है कि किसी ने उनके अंदर एक कैसेट डाल दी है जो मुझे देखते ही बजने लगती है। रोज़ एक जैसी हिदायतें, एक जैसी बातें, एक जैसे सवाल। सवालों के जवाब नहीं मिलने पर रिकॉर्डेड लेक्चर, सुबह से लेकर शाम तक सब कुछ वही। हर अलग मौक़े के अलग सवाल जो कभी जवाब की प्रतीक्षा नहीं करते। मैं इतनी मस्त नींद सो रही होती हूँ और मेरे अपने कानों में मेरा नाम घनघनाने लगता है। ऐसा लगता है जैसे भूकंप आ गया हो। अपने कान में अपने नाम की आवाज़ सुनकर जैसे ही मेरी आँखें खुलती हैं उनकी रिकॉर्डिंग का प्ले बटन दब जाता है, “गुड मॉर्निंग बेटा, स्कूल का समय हो रहा है। बेटा चलो, उठ जाओ, देर हो जाएगी। मेरी रानी बिटिया, अच्छी नींद आयी?” 

मैं जवाब नहीं देती, सुनती तो सब कुछ हूँ पर मेरे पास नींद में होने का बहाना होता है। मेरी आँखें भी नहीं खुलतीं पर उनकी स्पीच चालू रहती है। 

“चलो, आज बहुत ठंड है, मोटे कपड़े पहनने हैं। आज बाहर ज़्यादा मत खेलना वरना ठंड लग जाएगी। चलो उठो, बाल सुलझाने में समय लगेगा। कितनी बार कहा है कि बाल कटवा लो सुबह-सुबह का समय तो थोड़ा बचेगा लेकिन नहीं नानी की सुनता कौन है!” 

भला सुबह-सुबह भाषण सुनना किसे अच्छा लगता है। पापा कभी-कभी नानी को चिढ़ाते हैं। कहते हैं नानी को तो नेता बनना चाहिए था। मैं नहीं जानती नेता क्या करता है पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि नानी के भाषण मेरे कानों को पसंद नहीं हैं। 

“राजकुमारी चलो उठो” उनके हाथ जैसे ही मुझे उठाने के लिये आगे आते हैं मैं साल भर की बच्ची बन जाती हूँ। उनके पल्लू से चिपक कर एक-एक सीढ़ी ऐसे उतरती हूँ जैसे मैं नींद में चल रही हूँ। नीचे आकर हम दोनों के पैर सीधे भगवान के कमरे में जाने के लिये यू टर्न ले लेते हैं। यह बहुत ज़रूरी है क्योंकि उनके दोनों हाथ मुझे कोई मौक़ा नहीं देते कि मैं उनके साथ न चलूँ। मेरी आँखें बंद रहती हैं पर मैं चलती रहती हूँ, बस बाक़ी सब वे ही करती हैं। कहती हैं–“भगवान जी बिटिया गुड मॉर्निंग कह रही है।” उनके हाथ मेरी हथेलियों को जोड़ कर सुबह की पहली रस्म पूरी करते हैं। 

उठते ही मुझे भगवान जी को गुड मॉर्निंग करना बिल्कुल पसंद नहीं। मुझे समझ में नहीं आता कि जो सोता ही नहीं उसे गुड मॉर्निंग कहने का क्या फ़ायदा। भगवान जी तो कभी सोते नहीं। जब सोते ही नहीं तो जागेंगे कैसे। हमेशा तो ‘सेम टू सेम’ रहते हैं, उसी तस्वीर के अंदर। कभी कोई जवाब नहीं देते वे। उन्हें क्या फ़र्क़ पड़ता है दिन हुआ या रात, गुड मॉर्निंग हो या गुड नाइट। लेकिन नानी तो उन्हें न जाने क्या-क्या सुनाती हैं। जब नहा धोकर सीधे भगवान के कमरे में जाती हैं तो बस बोलती रहती हैं, मंत्र पर मंत्र। मुझे बस गुन-गुन-गुन सुनाई देता है इसके अलावा कुछ भी समझ नहीं आता। एक दिन मैंने पूछा था “क्या कहती रहती हो भगवान से” तो कहने लगीं–“मैं तो बस एक ही प्रार्थना करती हूँ उनसे कि मेरी राजकुमारी को ख़ूब ख़ुशियाँ दें।” 

वे इतने विश्वास से कहती हैं तो मुझे लगता है कि नानी जो भी भगवान से कहती हैं वे उनकी बात मान लेते हैं। शायद मेरी तरह सुन-सुन कर थक जाते होंगे तो मजबूरी में मान ही लेते होंगे। उनको तो और भी परेशानी होती होगी क्योंकि उनको तो वे सारे मंत्र घनन-घनन घंटी के साथ सुनने पड़ते हैं। बेचारे भगवान जी, मुझे उनके लिये इयर फ़ोन ख़रीद ही लेने चाहिए। मुझे उनसे सहानुभूति होने लगती है। रात में भी सोने जाने से पहले मुझे उन्हें गुड नाइट कहना ज़रूरी है। भगवान जी के इस गुडमॉर्निंग और गुडनाइट के मामले में नानी बहुत सख़्त हैं। बाक़ी सब जगह वे बिल्कुल भी सख़्त नहीं हैं। सोने से पहले उनकी रिकॉर्डिंग बजती है–“सोते समय भगवान का नाम लेकर सोना चाहिए वरना बुरे सपने आते हैं, आधी रात में नींद टूट जाती है।” 

“लेकिन नानी मुझे तो कभी बुरे सपने नहीं आते। मुझे तो रोज़ परियों वाले सपने आते हैं।” 

“वो तो मैं तुम्हारी तरफ़ से रोज़ गुडनाइट कह देती हूँ न भगवान जी को बस इसीलिये तुम परियों को ही देखती हो सपने में।” 

नानी की इन सब बातों के पीछे कोई ख़ास कारण नहीं होता, कोई लॉजिक नहीं होता पर इन सब बातों के लिये कोई मना नहीं कर पाता नानी को। करे भी कैसे, घर में सबसे बड़ी जो हैं। ममा-पापा भी तो हाँ में हाँ ही मिलाते हैं। मैं भी अकेले में ही नानी के सामने शेर बनती हूँ। जो कहना होता है, जो करना होता है कर लेती हूँ। अपने मन की सारी भड़ास निकाल लेती हूँ पर ममा के सामने या पापा के सामने कभी ऐसा नहीं करती। वैसे भी ममा के ऑफ़िस से आते ही वे चली जाती हैं पास वाले उनके अपने फ़्लैट में। 

यह सब सप्ताह के पाँच दिन होता है। ममा जल्दी चली जाती हैं काम पर इसीलिये, सवेरे जल्दी जाती हैं और लेट आती हैं। मुझे उठाना, स्कूल छोड़ना, स्कूल से लाना सब कुछ नानी ही करती हैं। बस यही सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि इसका पूरा फ़ायदा उठाती हैं वे। ममा होती हैं तो मुझे ख़ुद सब करना पड़ता है। एक ज़िम्मेदार आठ साल की बच्ची बनकर। लेकिन नानी मेरे पास में होती हैं तो मैं एक साल की हो जाती हूँ। नींद में चलते-चलते आकर जब मैं सोफ़े में पसर जाती हूँ तो हर चीज़ वहीं आती है मेरे लिये। फिर चाहे दूध हो, नाश्ता हो या कपड़े हों। मेरी अलसायी नींद भरी आँखों को देखते हुए उन्हें बहुत प्यार आता है मुझ पर। मेरा चेहरा देखकर वे सब कुछ सोफ़े पर लाकर देती हैं। इससे मुझे और अधिक आलस्य आता है। नानी की अच्छाई का भरपूर फ़ायदा उठाना आता है मुझे। मैं सोफ़े में और पसर जाती हूँ। दोनों हाथों से उठाकर वे दूध का गिलास मुझे पकड़ाती हैं तो मैं हाथ ढीला छोड़ देती हूँ, दूध छलक जाता है तो मुझे अच्छा लगता है। 

नानी पर चिल्लाने का मौक़ा मैं छोड़ती नहीं–“आपसे कहा था न अभी नहीं पीना है मुझे दूध, थोड़ी देर से पीना है। आप मेरी बात सुनतीं ही नहीं। अब देखिए सोफ़ा गंदा हो गया।” 
जब वे “सॉरी बेटा” कहती हैं तो मुझे सुकून मिलता है। फिर मैं मज़े से देखती हूँ उन्हें सफ़ाई करते हुए। गीले कपड़े से सोफ़े को साफ़ करते हुए। वे परेशान दिखाई देती हैं क्योंकि स्कूल का समय हो रहा है। उन्हें परेशान करने में और मज़ा आता है मुझे। चाहे कपड़े बदलने हों या नाश्ता करना हो, हर काम में मैं इतनी आलसी हो जाती हूँ कि बस नानी मुझे उठा कर जैसे-तैसे सब कुछ करती हैं। 

“अरे तुम तो छोटी से और छोटी होती जा रही हो बच्चे, चलो पैर आगे बढ़ाओ, मौजे पहना देती हूँ।” 

“नाश्ता ख़ुद करो,” हालाँकि चम्मच से नाश्ता वे ही खिला रही हैं पर कहती जा रही हैं। मेरे कानों पर जूँ भी नहीं रेंगती। वे कहती रहती हैं वह सब जो रोज़ कहती हैं मगर मैं कुछ नहीं सुनती क्योंकि मुझे पता है आगे का वाक्य क्या होगा। मेरी माँगें बढ़ती जाती हैं एक के बाद एक, मौजों के बाद जूतों के फीते, उसके बाद बस्ता किन्तु हैरानी तो इस बात से है कि यह सब कहना नहीं पड़ता मुझे, मेरे बग़ैर कहे उन्हें करना पड़ता है। कभी-कभी उन्हें ग़ुस्सा आने लगता है। चश्मे से झाँकती उनकी छोटी-छोटी आँखें बड़ी होकर मुझे घूरने लगे उससे पहले ही मेरी कूटनीति चालू हो जाती है। उन्हें एक झप्पी देती हूँ कसकर। बस वे पिघल जाती हैं। मेरे सिर को चूमने लगती हैं। बेचारी नानी मेरी झप्पी पाकर फिर से अपने असली रूप में आ जाती हैं और मैं भी। 

मेरे ममा-पापा दोनों की बहुत बड़ी शिकायत है यह–“नानी ने बिगाड़ कर रखा है तुम्हें।” जब मैं यह सुनती हूँ तो मुझे नानी पर ग़ुस्सा आता है। ऐसे काम ही क्यों करती हैं कि सब उनके पीछे पड़ जाएँ। वे जब नानी को कुछ कहते हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगता। इसीलिये मैं चाहती हूँ कि नानी वह सब न करें लेकिन वे सुनती कहाँ हैं। इस बात पर मुझे और ग़ुस्सा आता है। वे मुझे तो सुना देती हैं, मना लेती हैं पर ऐसी बातों के लिये ख़ुद न तो सुनती हैं, न मानती हैं। 

मैं यह भी नहीं चाहती कि वे मुझे प्यार न करें, प्यार करें, बहुत प्यार करें लेकिन मुझे बिगाड़ें तो नहीं। पापा मुझे जब-तब ‘स्पॉइल्ड चाइल्ड’ कहते हैं तो मेरी उँगली नानी के ऊपर उठी रहती है। वे ही हैं मेरी अकड़ का असली कारण। मेरी हर बात मानती हैं और मैं उनकी कोई बात मानना तो दूर सुनती भी नहीं हूँ फिर भी उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मेरी यह नौटंकी सिर्फ़ नानी के साथ ही चलती है बाक़ी तो हर जगह मैं एक आज्ञापालक बच्चे की तरह रहती हूँ फिर चाहे स्कूल हो या घर। और यह सिर्फ़ एक बात में नहीं हर बात में होता है। अगर मेरा मन है कि वे मेरे साथ गेम खेलें तो उन्हें खेलना पड़ेगा, मेरा मन है कि वे मेरे बनाए चित्रों में रंग भर दें तो उन्हें भरना पड़ेगा, मेरी दोस्तों की बातें सुने तो उन्हें सुनना ही होगा। वे सब कुछ मेरे ख़ास अधिकार हैं जो मेरे और नानी के बीच की बात है। 

सुबह सवेरे नानी को मुझे समय पर स्कूल पहुँचाना है तो यह नानी की चिंता है मेरी नहीं। उस समय तो मेरी ढीठता की हदें पार हो जाती हैं जब कई बार मैं ब्रश भी नहीं करना चाहती हूँ। वे मान जाती हैं, कहती हैं, “चलो ठीक है नाश्ता करके ब्रश कर लेना।” मैं जानती हूँ कि नाश्ते के बाद स्कूल का समय हो जाएगा और वे जल्दी-जल्दी में भूल जाएँगी। क्योंकि नानी के सामने इन सब बातों को याद रखने की ज़िम्मेदारी मेरी नहीं होती। मुझे कुछ याद नहीं रहता ब्रश भी नहीं, जूते नहीं, बस्ता नहीं, नानी की बात भी नहीं। मैं वादा करके हमेशा की तरह भूल जाती हूँ। नीतियाँ नानी की और पालन मेरा होना चाहिए, ऐसा लगता है पर होता है इसका बिल्कुल उल्टा। नीतियाँ मेरी होती हैं और पालन नानी का होता है। 
जब मुझे स्कूल छोड़ने के लिये आती हैं नानी तो वे मेरे साथ ऐसे चलती हैं जैसे मैं कोई राष्ट्रपति हूँ और वे मेरी सिक्योरिटी हैं। हर किसी को ऐसी नज़र से देखती हैं जैसे मैं दुश्मनों से घिरी हुई हूँ। कोई भी कभी भी मुझ पर वार कर सकता है। जब मैं जाकर अपनी कक्षा की लाइन में खड़ी होती हूँ तो यहाँ भी उन्हें चैन नहीं पड़ता। कभी वे मेरे बाल ठीक करती हैं तो कभी कहती हैं–“खाना बराबर खाना बेटा”, “बाहर जाओ तो पानी पीते रहना।” “ये करना वो करना।” घंटी बजती है तो मैं चली जाती हूँ पलट कर देखती भी नहीं। वे खड़ी रहती हैं जब तक मैं उनकी आँखों से ओझल नहीं हो जाती। इस उम्मीद में कि शायद मैं पलटूँगी लेकिन मैं नहीं पलटती। मैं भी आख़िर अपनी नानी की नातिन हूँ। उनकी तरह ही ज़िद्दी हूँ। पलट कर न देखने से सीधा संदेश देती हूँ नानी को कि मैं नाराज़ हूँ, उस समय मुझे अच्छा नहीं लगता कि मेरे दोस्तों के सामने मुझे बेबी की तरह ट्रीट किया जाए। घर में तो मैं ख़ुद ही चाहती हूँ कि मैं बेबी बनी रहूँ पर दोस्तों के सामने नहीं। वहाँ तो मैं एक बड़ी होती समझदार लड़की बन कर रहना चाहती हूँ जो अपने सारे काम ख़ुद करती है और किसी की समझाइश की उसे ज़रूरत नहीं होती। 

जब स्कूल ख़त्म होने पर वे लेने आती हैं तो मैं ऐसे मुँह घुमा कर अपने दोस्तों से बातें करती हूँ जैसे मैंने उन्हें देखा ही नहीं। मेरे दोस्त मुझे बताते हैं–“तुम्हारी नानी आ गयीं।” वे मुस्कुराती हुई देखती रहती हैं कि मैं कब तक उन्हें नहीं देखूँगी। वे जानती हैं कि मैं इग्नोर कर रही हूँ पर वे इग्नोर होतीं नहीं। उनका यह हठी स्वभाव मुझे भी वैसा ही बना देता है। मैं दिन में कई बार उन्हें इग्नोर करती रहती हूँ मगर वे इग्नोर होती ही नहीं हैं। 

घर पहुँचकर फिर से उनकी कैसेट बजने लग जाती है, “हे भगवान, इतना खाना बचा दिया।” 

“पानी भी वैसा का वैसा वापस आया है।” 

“बच्चे पानी तो पीना ही चाहिए।” 

“होम वर्क कब करना है”, ये कहाँ है वो कहाँ है। मैं कुछ नहीं सुनती। बस अपना आईपैड लेकर खेलने लग जाती हूँ। वे मुझे फिर से दूध देती हैं, मैं फिर से वही सुबह वाला सेशन दोहराती हूँ थोड़ा-सा दूध छलका कर। वे मुझे बैठकर फल खिलाती हैं। और तो और डिनर के समय एक भी निवाला मैं अपने हाथ से नहीं खाती। वे ही खिलाती हैं। खिलाते हुए भी वे बोलती रहती हैं अनवरत। मेरा पूरा ध्यान आई पैड पर रहता है। जब वे कुछ ज़ोर से बोलती हैं मुझे सुनाने के लिये तो मेरी आँखें बड़ी होती हैं, फैलती हैं, इंकार करती हैं। उन पर कोई असर नहीं होता। मेरे मुँह में खाना जाता रहता है और मेरे कानों में आईपैड पर चल रहे कार्यक्रम के चरित्र अपनी जगह सुरक्षित रखते हैं। 

जिस दिन स्कूल जाते समय वे नहीं होती हैं तब उनकी वे ही सारी बातें मेरा अपना दिमाग़ कहता है। वही सब कुछ दोहराता है जो नानी कहती रहती हैं और मैं नानी की चाहे न सुनूँ पर अपने दिमाग़ की तो सुनती ही हूँ। सच कहूँ तो उनका अपने आसपास होना मैं इग्नोर करती हूँ पर उनका मेरे आसपास नहीं होना उनकी उपस्थिति होती है। सबसे बहुत अलग है नानी पर मैं भी कोई कम नहीं हूँ। प्यार, और प्यार, और प्यार की माँग करती रहती हूँ पर देती बिल्कुल नहीं। मुझे लगता है कि मेरी माँगों में ही नानी को मेरा प्यार मिल जाता है क्योंकि जिस दिन मैं बिना किसी नख़रे के अपनी किताब पढ़ती रहती हूँ तो वे बार-बार आकर पूछती हैं–“तुम ठीक तो हो न बेटा?” 

एक बार नहीं उनके बार-बार पूछने पर मेरे नख़रे फिर से शुरू हो जाते हैं तो वे संतोष की साँस लेती हैं कि “सब कुछ ठीक ठाक है।” 
मेरा यही नख़रैलापन उन्हें ख़ुश करता है तभी तो वे ख़ुशी-ख़ुशी सब लोगों को मेरी बातें बताती हैं। अच्छी-अच्छी बातें, मेरी भरपूर तारीफ़ करते हुए ख़ुशी की जो लहर उनके चेहरे पर उछलती है वह देखने लायक़ होती है। तब मैं शरमा कर अपने आपको किसी आलतू-फ़ालतू खिलौने की उठा-पटक में उलझा लेती हूँ। कनखियों से नानी को भी देखती हूँ कि जाने वे सच कह रही हैं या फिर झूठ-मूठ की तारीफ़ कर रही हैं। नानी के शब्दों की दृढ़ता इस बात का आभास देती है कि वे अपनी नातिन के प्यार में डूबी हुई हैं। वे यह कभी नहीं बतातीं कि मैंने उनको कितनी बार इग्नोर किया, कितनी बार दूध फैलाया, कितनी बार मुँह फुलाया, कितनी बार उनके मिलियन सवालों का एक भी जवाब नहीं दिया। 

जिस दिन वे नहीं आतीं मैं उन्हें मिस करती हूँ क्योंकि ममा के सामने मेरे ये नख़रे नहीं चलते, मेरी कोई नौटंकी नहीं चलती। ममा के सामने मैं ममा की एक अच्छी बिटिया बन जाती हूँ, उनकी मदद करती हूँ। अपना काम भी ख़ुद करती हूँ और ममा की मदद भी। 

मुझे याद है जब मैं एक बार दौड़ते हुए गिर गयी थी तो मेरे घुटनों में, कोहनी में बहुत चोट लगी थी, ख़ून बह रहा था, तब दर्द के मारे मैं चिल्ला-चिल्ला कर रो रही थी। उस समय मेरे साथ नानी भी रो रही थीं। ठीक वैसे ही उनके आँसू भी टपक रहे थे। उन दिनों तीन दिन तक मुझे कुछ नहीं करना पड़ा था। उन्होंने मेरे पास बैठकर, किताबें पढ़कर, कहानियाँ सुनाकर, मुझे दर्द भुलाने में मदद की थी। तब मैंने देखा था कि नानी उतना बोल नहीं रही थीं, चुप-सी थीं। कोई हिदायतें नहीं, कोई भाषण नहीं। शायद थक गयी थीं, काम करने से नहीं थकी थीं बल्कि मेरी चिंता कर-करके थक गयी थीं। तब वे बैठे-बैठे मेरे पास सो गयी थीं तो मैंने प्यार से उनका सिर सहलाया था जैसे वे मेरा सिर सहलाती हैं। मुँह से“पुच-पुच” आवाज़ भी निकाली थी जैसे वे मुझे सुलाते समय करती थीं और कंबल लाकर उन्हें ओढ़ा दिया था। मुझे बहुत अच्छा लगा था। मैं उन्हें प्यार से देख रही थी जब तक वे सो रही थीं लेकिन जैसे ही वे उठीं तो वैसे ही मैं फिर से ‘ड्रामा क्वीन’ बन गयी थी। 

बस उन्हें एक बात बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी, वह यह कि मैं जब-तब बीमार पड़ जाती हूँ। जब भी मैं बीमार होती तो वे बहुत बेचैन हो जाती थीं शायद ख़ुद को भूल जाती थीं। सोना-खाना सब कुछ मेरे सिरहाने होता था। मैं अपनी इस शाही सुविधा का लुत्फ़ उठाती और वे मेरे आसपास ऐसे मँडरातीं जैसे एक मिनट के लिये भी कहीं गयीं तो बस मैं ठीक नहीं हो पाऊँगी। 

कभी-कभी मेरी ममा भी कहतीं कि नानी तुम्हारे लिये “ओवर प्रोटेक्टिव” हैं लेकिन ममा के सामने मैं उनका बचाव करती। मेरी नानी से मैं कुछ भी कहूँ, कैसे भी रहूँ और कोई कुछ नहीं कह सकता। नानी के लिये यह अतिरिक्त प्रोटक्शन मेरी ओर से भी था। मेरा तो अधिकार ही था कि उनसे वे सारे काम करवा लूँ जो कोई और मेरे लिये नहीं करेगा। जैसे महीने भर पहले से मेरे जन्म दिन की तैयारियाँ करवाना। मेरा तोहफ़ा नहीं तोहफ़े होते थे उनकी ओर से। ऐसी फ़रमाइशें होती थीं कि वे दुकान-दुकान जाकर परेशान हो जाती थीं। वहाँ से फ़ोन करके पूछतीं कि “यही है न वह, जो तुमने मँगवाया था?” 

और मैं हज़ार बार कहती–“अगर ग़लत आ गया तो मैं नहीं लूँगी, कहे देती हूँ।” जितनी और जैसी तैयारियाँ मैं चाहूँ उन्हें वैसा ही करना पड़ता था। केक लेने जाना, मेरे दोस्तों को मेहँदी लगाना या फिर उनके साथ गेम्स खेलना, ये सारे काम नानी के अलावा किसी के बस की बात नहीं थी। हर जन्म दिन पर पिछले जन्म दिन की सारी बातें वे सुना देती थीं। यूँ तो वे बहुत सारी चीज़ें भूल जाती थीं मगर मेरी सारी बातें उन्हें याद रहती थीं। मैं चार साल की थी तब की बातें या फिर पाँच की थी तब की बातों से लेकर आज तक की हर बात उन्हें याद थी। 

उन सब बातों को याद करते हुए वे मेरी दोस्तों के नाम ग़लत बोलतीं। अलिसा को अलिशा कहतीं, तो क्वांग को कांग कहतीं। मैं ऐसे शब्दों को दस-दस बार दोहराने को कहती उनसे। उस समय तो वे दोहरा लेतीं पर अगली बार जब भी बोलतीं फिर वही ग़लती करतीं। फ्रिज़र को वे फ्रिजर कहतीं तो मुझे बहुत ग़ुस्सा आता लेकिन वे हँसती रहतीं जो मुझे और भी अच्छा नहीं लगता। मैं उन्हें ऐसे घूर कर देखती जैसे कोई घाघ मास्टर अपने छात्र को पटरी पर लाने की पूरी कोशिश कर रहा हो पर अड़ियल छात्र पर कोई असर न हो रहा हो। 

अब वे चली गयी हैं समय के चक्र को पूरा करने। उन्हें जाना ही था। उनके जाने के बाद भी मुझे नींद में वे सारी बातें सुनायी देती थीं। मैं खीज जाती थी। जाने के बाद भी मुझे नहीं छोड़ा तो नहीं छोड़ा, वहीं रहीं मेरे आसपास। अब मैं वह नन्ही बच्ची नहीं रही, माँ बन चुकी हूँ। मेरी गोद में मेरी बिटिया है परी सी, छुई-मुई सी। बच्चों को बिगाड़ने के वे सारे गुण मुझमें हैं जो एक माँ में चाहिए। माँ से नानी तक प्यार कितना गुणित हो जाता होगा इस बात का अहसास अब मुझे होने लगा है। अब मैं समझ पायी हूँ कि बचपन में जो मैं नानी को इग्नोर करने का नाटक करती थी वह वास्तव में सब कुछ अंदर तक पहुँचने का संदेश था। इस बात को वे अच्छी तरह जानती थीं इसीलिये नाराज़ नहीं होती थीं बस मुस्कुरा देती थीं। 

सालों बाद भी वे सारी बातें वैसी की वैसी सामने आ रही हैं जैसी मेरे बचपन में आती थीं शायद उससे भी कहीं ज़्यादा। माँ बनकर यदि मैं इतनी टोका-टाकी कर रही हूँ तो यह बात तो पक्की है कि नानी बनकर मेरे अंदर की माँ की माँ ‘प्राब्लम नानी’ हो ही जाएगी। इसीलिये मैं नानी से नाराज़ हूँ, बहुत नाराज़ हूँ। वे चली भी गयीं तो क्या, मुझमें ख़ुद को छोड़ कर गयी हैं।

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