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युगीन यातनाओं को रेखांकित करती कविताएँ

पुस्तक: कुछ सम कुछ विषम (कविता संग्रह) 
लेखक: धर्मपाल महेन्द्र जैन 
प्रकाशक: आईसेक्ट पब्लिकेशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल
मूल्य: ₹200, पृष्ठ–152, वर्ष–2021

 

सामजिक संचेतना के जागरूक कवि धर्मपाल महेंद्र जैन के नए काव्य संकलन (कुछ सम कुछ विषम) को पढ़ते समय याद आए कुबेरनाथ राय: ‘हमें सदैव यह मान कर चलना है कि मनुष्य की सार्थकता उसकी देह में नहीं, चित्त में है। उसके चित्त-गुण को, उसकी सोचने-समझने और अनुभव करने की क्षमता को विस्तीर्ण करते चलना ही मानविकी के शास्त्रों का, विशेषतः साहित्य का मूल धर्म है’। 

कुबेरनाथ राय की बात संकलन में संगृहीत (इक्यानवे) कविताओं में शब्दशः परिलक्षित होती है। इसलिए कि ये आज के आदमी की अस्मिता से जुड़ी हैं। फिर वह सुबकियाँ भरती स्त्री हो, या खंडित देह जीता पुरुष। आदमी के देह में सिमट जाने का अर्थ है कि वह अन्य जीव-जंतुओं से श्रेष्ठ नहीं है। भागवतकार वेदव्यास कहते हैं ‘यहाँ मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है’। मार्कण्डेय पुराण में ऋषि वाणी है, “मनुष्य में वह करने की क्षमता है, जो देवता और असुर भी नहीं कर सकते। स्वर्ग और पृथ्वी पर ऐसा कुछ भी नहीं, जो अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखने वाला उद्योगी मनुष्य न कर सके’ (मार्क-57/63; 20/37)। मनुष्य की इस श्रेष्ठता के पीछे है उसकी मेधा, उसकी बुद्धिमता, जो परिमाण में अन्य जीव-जंतुओं से कहीं अधिक है। वैदिक ऋचा है ‘मनुष्य योनि वाले हे मानव! संसार का ताना-बाना बुनते हुए तू प्रकाश का अनुसरण कर। बुद्धिमानों द्वारा निर्दिष्ट ज्योतिर्मय मार्गों की रक्षा करता हुआ निरन्तर ज्ञान और कर्मानुष्ठान वाले, उलझन रहित, आचरण का विस्तार कर। मनुष्य बन। दिव्य मानवता का प्रकाशन करते हुए दिव्य संतानों को जन्म दे’ (ऋक। 10/53/6)। 

बाँचते रहिए आप ऋचाएँ। आज के आदमी की सोच ठीक इसके विपरीत है। वह संकटग्रस्त तो है ही, संकट पैदा भी कर रहा है। उसके प्रति अन्य जीव–जंतुओं, यहाँ तक कि स्वयं मनुष्य का, मनुष्य के प्रति विश्वास घट रहा है। समस्या कोई भी हो, उसके मूल में आदमी के अमानवी आचरण हैं। फिर ये सत्ता के सिंहासन पर बैठा सत्ताधीश हो, ज्ञान-विज्ञान का अध्येता, अहमन्यता से भरा अभिजात्य अथवा कोई और, जो पूरी सृष्टि को मुठ्ठियों में भर कर निचोड़ लेना चाहता है। समाज के ऐसे नियंताओं के बीच सामान्य आदमी की न कोई स्वायत्तता है, न स्वतंत्रता: “दिमाग की क्या ज़रूरत थी भला हर किसी को / आँखें थीं तो, देख कर समझने के लिए / कान थे तो आदेश सुनने के लिए . . . सिर हिलाना ही काफ़ी था / तो पोथियाँ भर-भरकर शब्दावली रचने और लिखने-पढ़ने का ढोंग करना भी ज़रूरी नहीं था / अच्छा आदमी बनने के लिए / बहुत सी चीज़ें बेकार हैं, उनके हिसाब से . . .।” 

क्या कर रहे हैं ज्ञान-विज्ञान के अध्येता? कैसी है उनकी कथनी-करनी जिन्होंने हथिया ली है सत्ता? पूर्ववर्ती मनुष्य का स्थानापन्न खोजने में लगे हैं। परखनलियों से जन्म लेंगी ‘दिव्य संतान’। हृदयहीन मशीनी-कृत 'रोबो' करेगा आदमी के काम, जो सृजनात्मक हों या ध्वंसात्मक: “मशीनी हाथ / पेड़ को ज़मीन से काट / कर देते हैं अलग / मशीनी हाथ तने को उठा / छाँट देते हैं डालियाँ / मशीनी हाथ समेट देते हैं जंगल रातों-रात/ पोंछ देते हैं धरती का राग / मशीनी हाथ एक दिन / मशीनी मुँह तक जाने लगेंगे / आदमी को दबोच कर।” मशीनी हाथों के करतब मनुष्य का आत्महंता समर है, जिसमें न वह अपने को बचा सकेगा, न सृजनकारी सृष्टि को। यहाँ कवि का स्वर करुणाद्र हो जाता है: “सहमे पक्षी थे ख़ामोश / उन्हें डर था घौंसले बिखरने और अंडे फूटने का / दुबके थे झाड़ियों में नन्हे खरगोश / डरते हुए कि कहीं धरती विवस्त्र न हो जाए . . . आकाश, चाँद, सूरज, पृथ्वी, नदी, पर्वत / और वे सभी / जिन्होंने मनुष्य को ऋचाएँ लिखते देखा था / डर रहे थे कि प्रकृति का स्वर झर रहा है / आत्महन्ता आदमी के साथ।” कवि की नेक सलाह है कि “सँभल कर चला करो / पत्थर उग रहे हैं / इन दिनों . . .। जाते-जाते कह गया . . . बहुत सँभल कर रहना / बमों के जखीरे बन रहे हैं / इन दिनों। एक दिन भगदड़ देखी . . . बड़े डरपोक हैं लोग / फ़ालतू ही भाग रहे हैं / लावारिस बम देख कर / हाँ, सतर्क और सँभल कर रहना / आदमी जीवित बम बनने लगा है / इन दिनों।” कवि को बेचैन करती है आदमी की निष्प्राण पार्थिव प्रगति, जिसने नैसर्गिक जीवन में हस्तक्षेप कर पर्जन्य की समस्यायों को जन्म दिया। 

वह बार-बार कहता है खंगाल लो जितना खंगालना हो खगोल, पर धरती से श्रेष्ठ कहीं कुछ नहीं है, “मैं सोच कर क्या करता / कि अतल सागर के गर्भ में हैं / कामधेनु, कल्पवृक्ष, कौस्तुभ मणियाँ / पारिजात, श्रेष्ठतम अश्व और अप्सराएँ / और सदा अमर रहने के लिए अमृत कलश . . . मेरे लिए बार-बार यह धरती ही श्रेष्ठ है।” इतने पर भी अनुवीक्षकों को न धरती दीखती है, न धरती का दर्द। ”पेंसिल की नोक भोथरी हो गई है / ग्रहों और तारों का रेखीय पथ खींचते हुए / अपने हाथों से / पहिया वाला पटिया धकेलते हुए / वह रोज़ रोटी की आस में आता है इधर / बाहर से आ रही चरमराहट / जानी पहचानी है / जो मेरे कान सुनते हैं / मेरी आँखें नहीं देखतीं / मेरे टेलीस्कोप में धरती नहीं है।” क्या होगा अंतरिक्ष में जीवन ढूँढ़ कर, जब आदमी धरती पर त्रासद यातनाएँ झेल रहा है। उसे चाहिए मुक्ति इन दुस्सह यातनाओं से। लेकिन, नहीं हम समझना चाहते हैं “ब्लैकहोल का चुंबकीय आकर्षण।” हमारे ज्ञानकोश में है “आकाश ही आकाश . . . आदमी कहीं नहीं।” ख़लील जिब्रान भी तो कह गए हैं: “आकाशगंगा की खिड़कियाँ देखने वाले के लिए पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी, दूरी नहीं।” 

पर कवि की सोच में धरती के गुरुत्व से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, गँवई-गाँव की दुर्दशा: “गाँव की कच्ची सड़कें रूबरू देखने लगे / लोग ही लोग थे यहाँ / धरती के गुरुत्व में छटपटाते / प्लास्टिक की थैली में / साँस लेती दिखती थी / कुछ पन्नों की मरियल किताब . . . “भू-अधिकार एवं ऋण-पुस्तिका / भू-अभिलेख का पाठ एक पंक्ति का था / और ऋण-पुस्तिका का अध्याय कई पन्नों में / साफ़ दिख रहा था ब्लैक होल / और उसमें डूबी पीढ़ियाँ।” सारी व्यथा व्यक्त कर देता है “ब्लैक होल“ में मुस्कुराता श्लेष। 

कुछ भी कहें कवि की वैज्ञानिक चेतना श्लाघनीय है। उसने वैज्ञानिक प्रगति को मानवीय उन्नयन की दृष्टि से देखने का जो प्रयास किया है, वह एक लम्बे रास्ते का उन्मेष है। ऐसा उन्मेष जिसमें संघर्षशील आदमी की ज़िन्दगी पर पड़ने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक दबावों का शब्दांकन है। राग-रंग से भरी रागात्मकता है। सृष्टि का इन्द्रधनुषी सौंदर्य है। और है छल-छद्म से प्रदूषित व्यवस्था के अठ्ठे-पंजे। न्याय, समता, स्वायत्तता, शोषणमुक्त समाज की सौगंध खाने वाले सत्ताधीश कैसे घिरे रहते हैं दरबारियों से . . . “शहंशाह ने कहा क़ानून लिखो / जी हुज़ूर, लिखा . . . “न्याय की उम्मीद में तालियाँ बजीं इतनी कि / हवा हिलने लगी / प्रजा के शब्द गिर गए / जड़ गए राजसी शब्द . . . इसे वे निकाल कर दिखाते हैं / और फिर जेब में रख लेते हैं।” अप्रतिम कटाक्ष है इन पंक्तियों में। 

पत्रकारिता से जीवन प्रारम्भ करने वाले धर्मपाल ख़बरों की ख़बर लेना जानते हैं . . . “हर टेबल पर ख़बरें हैं / ख़बरों के गोलमटोल आँकड़े हैं / पोल-पट्टियों के सूराख हैं / लीपापोती के पैबंद हैं / काले कमांडो से घिरा जादूगर आता है / सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को चादर ओढ़ा देता है / उसकी छड़ी से विज्ञापन झड़ते हैं / अर्थव्यवस्था ऊपर उठने लगती है / ख़बरों के काग़ज़ टुकड़े-टुकड़े हो / फूलों में बदल जाते हैं।” जो ऐसा नहीं करता उसका वही हाल होता है जो चार्ली हेब्दो का हुआ। इस संदर्भ में कवि 'लीपापोती के पैबंद' नहीं, सारे मुखौटे नोच कर सीधी चेतावनी देता हैं: “आतंकियों सुनो / चार्ली हेब्दो की इमारत / कह रही है / अख़बार की जीभ काटोगे / करोड़ों शब्द निकल आएँगे / अपने शब्दकोशों से। अख़बार की आँख फोड़ोगे / अरबों लोगों की आँखें / देखने लगेंगी उनकी जगह। चार्ली हेब्दो में बहा ख़ून / अभिव्यक्ति को सींचेगा पैनेपन से देखना तुम / वह हर बार सिद्ध कर जायेगा / तलवार से भारी पड़ती है / क़लम की धार।” 

राग-रंग और रागात्मकता की कहन में कवि का अंदाज़ बदल जाता है। शब्द हो जाते हैं मृदुल और भाव कमनीय। मानो जूही और पलाश बतिया रहे हों, वासंती मुस्कान के साथ। तप्त सूर्य हो जाता है रूमानी, “मौसम के मायने बदलने लगते हैं।” यहाँ तक कि भोजन का स्वाद भी: “तुम कुछ करती हो / कि थोड़ी-सी मिर्ची पर चुटकी भर नमक आ बैठता है / और उस पर छितर जाती है हल्दी / हींग, जीरा, धनिया और ऐसी ही बेस्वाद चीज़ें / तुम्हारी उँगलियाँ जादूगर की तरह चलती हैं और क्या से क्या कर देती हैं गुनगुनाते हुए / कि जायकेदार हो जाती हैं मेरी उँगलियाँ भी।” वह तो होनी ही हैं। प्रेम में पड़ी मीरा के लिए ज़हर का प्याला भी अमृत हो गया था। प्रेम की मिठास खारेपन में भी माधुर्य भर देती (मधु वाताः ऋत-अयते, मधुं क्षरन्ति सिन्धवः, माध्वीः नः सन्तु ओषधीः ऋक। 1/91/6)। रस व्यंजनों में नहीं, प्रिय की चितवनों में है। लोकोक्ति है . . . “घी बनावै खीचड़ी / नाम बहू कौ होय।” ऐसा अवसर “सिर्फ लहर बन कर नहीं पाया जा सकता / प्यार में डूबना पड़ता है (अनबूड़े बूड़े / तरे जे बूड़े सब अंग-बिहारी)। 

आलोच्य पुस्तक में कहीं-कहीं झीने परदे से झाँकता मिलेगा जैन दर्शन, जो संसृति में चेतन तत्व की उपस्थिति स्वीकारता है, परमचेतन को नकारते हुए। दृष्ट जगत ही सब कुछ है। उसी में प्रछन्न चेतना है, अजर-अमर: “बेसब्र मृत्यु छटपटाने लगी थी / अपनी पोथी पलटते हुए / मृत्यु की आँखें नहीं खोज पा रही थीं / उस अपारदर्शी शाश्वत भाव को“ . . .। 

कवि के शिल्प-विधान की अपनी छटा है। भाषा में प्रवाह है। प्रसंगवश अँग्रेज़ी, अरबी-फारसी के शब्दों के प्रयोग ने कथ्य को अधिक जीवंत और प्रभावी बना दिया है। इससे भी ऊपर है व्यंग्य और कटाक्ष का पैनापन, जो पाठक को तिलमिलाहट के साथ कुछ सोचने को मजबूर करता है। इतिहास, पुराणों और लोकोक्तियों से उठाए मिथक हैं यथा 'राजा मिदास', गांधारी आदि। यहाँ आप देख सकते हैं अदृष्ट 'हवा का रंग', 'पहाड़ों पर चढ़ती नदी', ' रैंप-वॉक करते पंछी', 'शब्दों की देह' आदि। सच कहा जाय तो प्रस्तुत संकलन युगीन त्रासद यातनाओं की मर्मस्पर्शी कहानी है। 

डॉ. मनोहर अभय
प्रधान संपादक अग्रिमान 
आर। एच-111, गोल्डमाइन
138-145, सेक्टर-21, नेरुल, नवी मुम्बई-400706, 
चलभाष: +91 916 714 8096
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