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स्त्री

प्रेम से उद्वेलित हूँ
तो विष से भी हूँ लबरेज़
राग-द्वेष-आक्रोश
सब समाहित हैं मुझमें
यूँ न देख मुझे
नहीं हूँ मैं 
निरीह निस्सहाय-सी
सदियों से सींच रहा है
मेरा अनुराग तेरे प्राण 
संपूर्ण हूँ स्वयं में
मैं किन्हीं दुआओं और
मन्नतों का परिणाम नहीं
और न ही किसी पीर की दरगाह के
ताबीज़ का असर हूँ
बेक़द्री और मलाल से सिंचा 
बड़ा पुख़्ता वुजूद हूँ मैं
ग़ज़ब की है जिजीविषा मेरी
तभी तो पी लेती हूँ सहज ही 
सारी तल्ख़ियाँ और कठोरता 
यूँ भी कड़वा कसैला पीना
किसी साधारण जन के बस की बात नहीं 
जानती हूँ समय से आँख मिलाना 
तभी तो जी लेती हूँ
लम्बी उम्र तक 
बिना किसी करवाचौथ के सहारे के। 

इस विशेषांक में

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