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एक सम्पादक का आत्म-कथ्य

मैं हर तरह का संपादक रहा हूँ, इसलिए आत्म-कथ्य लिख रहा हूँ। सुधि पाठकों का मैं आभारी हूँ कि वे संपादक को महाज्ञाता समझते हैं, मोबाइल विश्वकोश समझते हैं और गूगल के सर्च इंजिन का आदिम संस्करण समझते हैं। पाठकों के दिमाग़ में संपादक की छवि, दुबले-पतले, दाढ़ी-धारी, चप्पल के साथ पैर घसीटते पुरुष की होती है। स्त्री-विमर्श के क्रान्तिकारी दौर में भी वे महिलाओं को संपादक के रूप में नहीं देखते। महिला अपने सामान्य रूप में सुन्दर मानी जाती है पर संपादक अपने असामान्य रूप में भी सुंदर नहीं होते। 

साहित्यकार नहीं होते तो संपादक नहीं होता। जैसे आवश्यकता आविष्कार की जननी है, क्रिकेट अंपायर का जनक है, वैसे ही साहित्यकार, संपादक का जन्मदाता है। संपादक का सबसे ज़्यादा वक़्त और दिमाग़ कवि खाते हैं। न हो तो भी खाते हैं। रोज़ की डाक और ई-मेल से संपादक के पास औसतन दो-तीन कहानियाँ, चार-पाँच लेख और तीन सौ से ज़्यादा कविताएँ आती हैं। यदि संपादक पर हर कविता पढ़ने की बाध्यता हो तो अधिकतर संपादक नोएडा की बजाय आगरा के आसपास दफ़्तर खोल लें। सच कहूँ तो अपनी संपादकी में मैंने कभी कोई कविता पूरी नहीं पढ़ी। चावल का एक दाना देख कर ज्यों कुशल गृहिणी निष्कर्ष निकालती है, कविता का एक शब्द पढ़ कर कुशल संपादक सारा माजरा समझ जाता है। हमारे अधिकांश संपादक इस पैमाने पर कुशल संपादक हैं। दिन भर में जो साहित्य आता है उस पर चीन का भारी प्रभाव होता है। माल देखने में आकर्षक है, सस्ता है, पर घटिया है। योग्य चीज़ों को रि-सायकल करने की समृद्ध परम्परा जो इक्कीसवीं सदी में चली है, साहित्यकार उसमें ख़ूब योगदान दे रहे हैं। जम कर रि-सायकल करते हैं और बेचारे ग़रीब संपादक के सिर पर दे मारते हैं। कहते हैं, ले पढ़, और पढ़, पढ़-पढ़ के कितना पढ़ेगा। पढ़ने में लिखने जैसी 'कट-पेस्ट' तो है नहीं कि शरद जोशी के लेख से अदद माल उठाया और अपने नाम के नीचे चिपका दिया। 'रि-सायकल' साहित्य की भारी तादाद से कई संपादकों के चश्मे का नंबर दोगुना हो गया है। इससे बचने के लिए मैं घरेलू उपाय आज़माता रहा हूँ। आँख बंद कर रचना उठाओ, बंद नयनों से उसका सौंदर्य भाँपो और श्रीगणेशाय कह कर तीन में से किसी ढेर में डाल दो। आगे विघ्नहर्ता जानें। 

यह जो सबसे छोटा ढेर है वह अस्वीकृत रचनाओं का है। अस्वीकृत रचनाओं का ढेर छोटा है तो आप ख़ुश न हों, इसमें एक 'कैच' है। इनके रचनाकारों ने टिकट लगा लिफ़ाफ़ा साथ भेजा है, ये ई-मेल से नहीं आयीं। मेरे सहयोगी इन रचनाओं को मेरे हस्तलिखित नोट की फोटो प्रति के साथ सादर लौटा देते हैं। नोट में मैंने लिखा है ’आपकी रचना अति सुन्दर है, विवशता के कारण लौटा रहा हूँ। आपकी उत्कृष्ट रचनाओं की इसी तरह प्रतीक्षा रहेगी।’ यहाँ 'इसी तरह' का भावार्थ 'टिकट लगा लिफ़ाफ़ा' है। सुधी पाठक चिंता न करें, प्रतिभावान लेखक मेरा आशय समझते हैं। 

दूसरा ढेर जो मध्य में है, वह बीच की स्थिति में है। न इधर-न उधर। इनमें से कुछ रचनाकार अल्प विख्यात हैं या तीन-चार बार अस्वीकृति की प्रतीक्षा से गुज़र चुके हैं। मैं चाहता हूँ, सहायक संपादक उनकी रचना देखें और योग्य पाएँ तो सहयोगी संपादक को आगे बढ़ाएँ। तीसरा जो सबसे बड़ा ढेर है, ढुल-मुल हो रहा है, ठीक से जम भी नहीं पा रहा है। ये प्रथमदृष्टया अस्वीकृत रचनाएँ हैं, इनके साथ वापसी टिकट भी नहीं हैं। लेखक ही इन्हें वापस नहीं चाहता तो, इसमें संपादक का क्या दोष? तुलसी ने स्पष्ट कहा है 'समरथ को नहीं दोष गुसाईं'। 

अब आप यह न पूछिए कि स्वीकृत रचनाओं का ढेर कहाँ है? यह बड़ा गोपनीय मामला है, स्वीकृत रचनायें ढेर नहीं होतीं। आप एक लीटर दूध गर्म करें तो कितनी मलाई मिलती है? 

मैं हर तरह का संपादक रहा हूँ। जैसे ककड़ी, लौकी, तुरई, भिंडी, परवल आदि प्रकार का। जितनी बड़ी साइज़, उतना कम प्रति किलो मूल्य। जैसे पद है प्रधान संपादक। मतलब, दो-चार पेज़ के साप्ताहिक अख़बार का सब कुछ; मालिक, ख़बरची, प्रूफ़रीडर, विज्ञापन व विपणन प्रबंधक। मान लीजिये, किसी का पद हुआ कार्यकारी संपादक, मतलब असल संपादक कोई और है, पर संपादक का कार्य 'वह' करता है। पति, पत्नी, और वह में जो स्थिति 'वह' की है, वैसी ही स्थिति कार्यकारी संपादक की होती है। सहयोगी संपादक और कार्यकारी संपादक पर्यायवाची हैं। आप यह न पूछें पर्यायवाची संपादक क्या होता है। जो है, सो है। 

जैसे महँगी स्टेटस सब्ज़ियाँ ख़ास मेहमानों के आने पर बनती हैं, वैसे ही संपादकों की एक ख़ास प्रजाति है अतिथि संपादक। अतिथि संपादक देवता तुल्य होता है। अतिथि देवो भव। वह शौचालय में सोचता है, और घर से विशेषांक निकालता है। वह अपने सब मित्र लेखकों को सूचित करता है कि वह फलाँ-फलाँ परियोजना के लिए अतिथि संपादक है। आपकी रचना छपने की लगभग गारंटी है, यह मौक़ा मत छोड़ो। अतिथि संपादक बनना भाग्योदय जैसा है। मेरा भाग्योदय हुआ है। इस पद से सम्मानित होते ही मैंने सभी ख्यात सम्पादकों (जिन्होंने मेरी रचना बिना पढ़े ही अस्वीकृत कर दी) को भाव-विभोर हो आमंत्रित किया “आप हमारे लिए लिखेंगे तो, हमारे आयोजन की शोभा बढ़ेगी, आपकी रचना का प्रकाशन कर हम धन्य होंगे।” तब से वे भी मुझे धन्य करने लगे हैं। 

मैं तो वैतनिक संपादक ही रहा, जब वेतन मिला टैक्स कटा दिया। पर मेरे एक मित्र अवैतनिक संपादक बनते हैं। वे वेतन नहीं लेते, कुछ और लेते हैं। वे खुले आम छापते हैं कि वे अवैतनिक संपादक हैं। कल से लघुपत्रिका वाले उनकी छुट्टी कर दें तो उन्हें कोई मलाल नहीं। वे इतनी सारी रचनाएँ स्वीकृत कर जाते हैं कि साल-दो साल पत्रिका नई रचनाओं के अभाव में भी छप सकती है। 

अपने शुरूआती दिनों में मैं सहायक संपादक भी रहा हूँ। जैसे दफ़्तर में बड़े बाबू की स्थिति है, सहायक संपादक उसका साहित्यिक प्रतिबिम्ब है। वह हमेशा काग़ज़ों से लदा रहता है। उसे धोबी का गधा कह लो। (अब यहाँ धोबी का तात्पर्य आप समझ लें /) वह गंदा-शंदा सब लाद कर ले जाता है, और धो-धा कर ले आता है। मैं पूरे होशो-हवास से कह सकता हूँ कि समूचे साहित्य और पत्रकारिता की नींव का पत्थर सहायक संपादक ही है। जो प्रतिष्ठान सहायक संपादक नहीं रखते, वे संपादक का शोषण करते हैं। वे प्रशिक्षु संपादक रखते हैं, मुफ़्त में रखते हैं और उसमें संपादक की आहुति दे डालते हैं। 

पर संपादकी का जो आनंद मैंने सलाहकार संपादक बन कर पाया वह वर्णनातीत है। गद्‌गद्‌ कर देने वाला है। बड़ी-बड़ी स्मारिकाओं और विशाल अभिनन्दन ग्रंथों में सलाहकार का पद पाना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक है। कम से कम विमोचन समारोहों में मंचासीन हो कर श्रोताओं का विशाल हुजूम देख पाने का यह दुर्लभ अवसर है। मैं ऐसा कोई भी प्रस्ताव नहीं छोड़ता। और यदि ऐसा प्रस्ताव न मिले तो मुझे उँगली टेढ़ी करना आता है। सलाहकार संपादक बनने का मोह मुझे कई कारणों से है। प्रथमतः इसमें कोई काम नहीं करना पड़ता, बस दो-चार मीटिंगों में हाज़री देनी होती है और 'रेडीमेड' सुझाव रखने होते हैं। दूसरा, मानदेय, मार्ग-व्यय और प्रतिष्ठा जो इसमें है वह किसी और संपादकी में नहीं है। सलाहकार संपादक हाथी दाँत की तरह होता है और उसे योग्य संपादक ऐसे ही सुशोभित रखते हैं। 

दैनिक अख़बार के संपादक बनने के कई प्रस्ताव मुझे मिलते हैं। यह सबसे निकृष्ट कोटि की संपादकी है। एक बार मैंने ऐसा प्रस्ताव मुफ़लिसी में स्वीकार कर लिया था। शाम छह बजे तरोताज़ा विषय पर संपादकीय लिखा और रात ग्यारह बजे मुख पृष्ठ की साज-सज्जा और 'हेड-लाइन्स' देख घर आ कर भरपूर नींद सो गया। सुबह दस बजे से वकीलों के फ़ोन आने लगे। धमकियाँ मिलने लगीं। 'हमारे क्लाईंट की मानहानि हुई है, उनकी प्रतिष्ठा को धक्का लगा है।' मैंने उन्हें विनम्रतापूर्वक कहा—आप माफ़ीनामा भेज दीजिये, आगे मैं देख लूँगा। वे कहने लगे आपने ग़लत छापा, आप माफ़ी माँगिए। मैंने उन्हें समझाते हुए कहा 'मैं माफ़ी माँगने से कहाँ इंकार कर रहा हूँ। आप मेरे नाम से माफ़ीनामा लिख भेजिए, मैं उचित कार्यवाही करूँगा। वकील साहब मेरी बात समझ ही नहीं पाए। वे अड़े रहे तो मैंने अपनी बात फिर से समझाई। 'भाई साहब, मैं संपादक हूँ, मैं ओरिजनल नहीं लिखता हूँ। लोग लिखते हैं, मैं उसे देख लेता हूँ। मैं बार-बार यही कह रहा हूँ, आप माफ़ीनामा लिख भेजिए, मैं देख लूँगा। उस दिन से हमने 'शोक-समाचार' कॉलम के पास 'भूल-सुधार' कॉलम भी जोड़ दिया। 

इन दिनों मैं एक साहित्यिक त्रैमासिकी का संपादक हूँ। कोई राजनेता चुनाव हार जाये और मंत्री पद न मिले तो जीवन-यापन के लाले पड़ जाते हैं। तब कोई सरकारी-अर्धसरकारी निगम के अध्यक्ष का पद तारणहार लगता है। ऐसे ही डूबते को तिनके का सहारा है त्रैमासिकी की संपादकी। पर मेरा मन आज बड़ा विचलित है। एक कवि ने चिट्ठी भेजी है, "संपादकजी, आप मेरी रचना अपनी सम्माननीय स्तरीय पत्रिका में नहीं छापें तो कोई बात नहीं, मैं पत्रिका में दीमक बन कर छप लूँगा।" जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि। यदि ऐसे कवि वाक़ई दीमक बन कर चिपक गये तो मेरी पत्रिका चट कर जाएँगे। 

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