सम्भावनाओं की धरती: कैनेडा गद्य संकलन
पुस्तक समीक्षा | डॉ. अरुणा अजितसरियासम्भावनाओं की धरती: कैनेडा गद्य संकलन
समीक्षक: डॉ. अरुणा अजितसरिया एम बी ई
प्रकाशक: पुस्तक बाज़ार.कॉम
सम्पादक मंडल
मुख्य सम्पादक: डॉ. शैलजा सक्सेना, सुमन कुमार घई
सह सम्पादक: आशा बर्मन, कृष्णा वर्मा
ग्राफ़िक्स: पूनम चंद्रा ‘मनु’
साहित्य की इंद्रदनुषी विधाओं में कैनेडा के स्थापित और उदीयमान रचनाकारों की विविध रचनाओं को संकलित करके हिंदी की वरिष्ठ लेखिका, डॉ. शैलजा सक्सेना और सुमन कुमार घई जी ने कैनेडा निवासी प्रवासी हिंदी लेखकों की रचनाओं का महोत्सव मनाया है। भारत के अलग-अलग प्रांतों में जन्मे और शिक्षित हुए ये लेखक कैनेडा की धरती में बस कर विभिन्न व्यवसायों में सक्रिय हैं। उनके कार्यक्षेत्र और जीवन के अनुभव एक दूसरे से भिन्न हैं, पर उनमें एक सामान्य विशेषता है जो उन्हें एकसूत्र में बाँधती है और वह है हिंदी के प्रति उनका अगाध प्रेम! उनका लेखन उनकी उस मानसिकता को इंगित करता है कि वे भारत से जितनी दूर हैं दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब की तरह, भारत उनके भीतर उतनी ही गहराई से समाया हुआ है। दर्पण से हम जितनी दूर जाते हैं हमारा प्रतिबिम्ब उतनी ही गहराई से उसमें समाता जाता है। अपने इस प्रेम की अभिव्यक्ति उन्होंने कहानी, आलेख, व्यंग्य, डायरी, संस्मरण आदि गद्य की विविध विधाओं में की है जिसका परिणाम है साहित्यिक विधाओं का यह गुलदस्ता। इसमें स्थापित लेखकों के साथ कुछ नये लेखक भी सम्मिलित हैं जिनका समग्र प्रभाव इस संकलन के शीर्षक को सार्थकता प्रदान करता है। शैलजा जी के शब्दों में, “गद्य की अनेक विधाओं के समर्थ भविष्य का सम्भावना चित्र उकेरते 21 लेखक आपको दिखाई देंगे . . .। विश्व के हर देश में एक छोटा भारत भी अपनी महक और रंगों के साथ उपस्थित है . . . कैनेडा में बैठा लेखक जो कुछ लिख रहा है उसमें भारत, कैनेडा और शेष विश्व, सभी कुछ समाहित है।”
यह सच है कि विश्व के हर देश में बसे एक छोटे भारत में हिंदी के लिखकों ने आज अपनी एक पहचान बनाई है जिसके कारण प्रवासी साहित्य और मुख्य धारा के साहित्य के मध्य की विभाजन रेखा धूमिल होती चली गई है। प्रवास के खट्टे-मीठे-कड़ुए अनुभवों ने लेखक के मानसिक क्षितिज का विस्तार किया है, उसका लेखन बचपन और कैशौर्य को पारकर परिपक्व रूप में विकसित हुआ है।
संकलन में कुछ संस्मरण संगृहीत हैं। संस्मरण एक लोकप्रिय साहित्यिक विधा है। विलियम जिंसर के अनुसार, “यह संस्मरण का युग है। बीसवीं सदी के अंत से पहले अमरीकी धरती पर व्यक्तिगत आख्यान की ऐसी जबर्दस्त फ़सल कभी नहीं हुई थी। हर किसी के पास कहने के लिए एक कथा है।” संस्मरण लेखक अतीत और वर्तमान के आधार पर अतीत की स्मृतियों को खोजता-खंगालता है। संस्मरण में संपूर्ण जीवन न होकर जीवन का कोई खंड या टुकड़ा ही आ पाता है। संस्मरण लेखक अपनी स्मृति के सहारे अतीत को इस तरह पुनर्जीवित करता है कि कुछ सीमा तक उसकी वस्तुपरकता बनी रहे। किन्तु स्मृति पूर्ण सत्य नहीं होती, इसलिए संस्मरण को पूरी तरह से वस्तुपरक लेखन नहीं कह सकते उसमें आत्मपरकता का पुट उसे विशेष बनाता है। हालाँकि महादेवी वर्मा से पहले हिंदी में संस्मरण-लेखन की एक समृद्ध परम्परा चली आ रही थी, हिंदी संस्मरणों की पहचान महादेवी वर्मा के ‘अतीत के चलचित्र’ और ‘स्मृति की रेखाएँ’ से बनी।
संकलन में पहला संस्मरण अचला दीप्ति कुमार का ‘मेरा न्यायाधीश’ है। अचला जी एक साहित्यिक परिवार से आती हैं। उनके जीवन के फ़ॉर्मेटिव यीअर्स (विकासकाल) अपनी मासी, महादेवी वर्मा पिता, संस्कृत के प्रोफ़ेसर बाबूराम सक्सेना भाषा शास्त्री, डॉ. धीरेंद्र वर्मा, बच्चन पंत और रामकुमार वर्मा जैसे महान कवियों के सान्निध्य में व्यतीत हुए जिसका प्रभाव उनकी भाषा की समृद्ध प्रेषणीयता में स्पष्ट है। अचला जी के संस्मरण का विषय उनके शिक्षण काल के एक ऐसे अनुभव से है जिसकी कसक उन्हें दंश देती है। उन्होंने अपने अध्यापन काल में हुए अनुभवों से प्राथमिक कक्षा के एक छात्र, डेविड को याद किया है। एक टूटे हुए परिवार का उपेक्षित बच्चा डेविड अपना अस्तित्व जताने के लिए तोड़-फोड़ और अभद्र भाषा का प्रयोग करता है। अचला जी ने उसके व्यवहार का मनोविश्लेषण ही नहीं किया, उसको स्नेह, आत्मीयता और सुरक्षा की भावना देकर उसमें सुधार भी लाईं। संस्मरण को पढ़ते समय 35 वर्ष के प्राथमिक विद्यालय के शिक्षण के मेरे अपने अनुभव और ऐसे न जाने कितने डेविड मन की आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो गए जिनके जीवन की भटकन का कारण वे स्वयं नहीं उनका परिवेश था जो उन्हें अपने जन्म की दुर्घटना से मिला था। स्कूल की राजनीति के कारण डेविड से अपना वादा न निभा पाने और डेविड के बिहेवियर मॉडिफ़िकेशन क्लास में भेजे जाने के लिए स्वयं को डेविड का अपराधी मानने में उनकी मानवीय संवेदना संप्रेषित है। उनकी भाषा उनके अंतर्मन की संवेदना का कुशलता से वहन करने में समर्थ है।
संस्मरण विधा में अपने दादाजी को भरपूर श्रद्धा और प्यार से याद किया है इस संकलन की सह सम्पादिका और कवयित्री आशा बर्मन ने। आशा जी लगभग 30 वर्षों से कैनेडा के साहित्यिक जगत में सक्रिय हैं। उनका यह संस्मरण इस विधा की विषय वस्तु की असीमता का उदाहरण है। संस्मरण के विषय की कोई सीमा नहीं निर्धारित की जा सकती क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के अनुभव की ज़मीन अनूठी और उसकी अपनी होती है। आशा जी के दादाजी के संस्मरण में एक वात्सल्यभरे दादाजी का आत्मीयतापूर्ण चित्र प्रस्तुत है। लेखिका के मन में दादाजी के प्रति श्रद्धा “इसलिए नहीं कि वे कोई महान ज्ञानी थे, या समाज के किसी उच्च पद पर आसीन थे वरन् इसलिए कि उनके रेशे-रेशे में, उनके हृदय के कण-कण में एकमात्र एक ही वस्तु थी—प्यार, सरल निश्छल प्यार, ऐसा प्यार जो गंगा की तरह सबके लिए समान रूप से प्रवाहित हुआ।” ऐसे वात्सल्य पगे दादाजी के बारे में लिखते समय आशा जी किसी भाषिक आडम्बर की मोहताज नहीं। उनकी भाषा उतनी ही सहज और प्रवाहमयी है जितना सहज, पारदर्शी और प्रवाहमान है उनके दादाजी का प्यार! आशाजी का दूसरा संस्मरण उनके बच्चों, अदिति और अनुज की दस वर्ष तक देखभाल करने वाली सौम्य, संवेदनशील तथा ममतामयी 52 वर्षीय कनेडियन महिला मिसेज वासको समर्पित है। विदेश में ही नहीं भारत के महानगरों में भी अपने रहन-सहन के स्तर को बनाने के लिए पति पत्नी दोनों के लिए अर्थोपार्जन की आवश्यकता छोटे बच्चों की देखभाल के प्रश्न खड़े करती है। अपने नन्हे बच्चे को किसी अपरिचित की निगरानी में छोड़कर काम पर जाने वाली हर माँ इस अपराधबोध और दुश्चिंता से परिचित होती है जो प्रतिदिन अपने हृदय के टुकड़े को किसी के पास छोड़ते समय कचोटते हैं। मिसेज वास उनके बच्चों की बेबीसिटर से शुरू होकर कब उनकी मित्र और सलाहकार बन गईं इसका आख्यान आशा जी ने दैनिक जीवन की सामान्य सी लगने वाली घटनाओं के माध्यम से अपनी सहज प्रवाहमयी भाषा में अत्यंत कुशलता से किया है।
संस्मरणों की शृंखला में तीसरी कड़ी हिंदी भाषा और संगीत प्रेमी इंदिरा वर्मा की ‘आप बीती कैनेडा में’ है। प्रवासियों के लिए विदेश में छोटे बच्चों के साथ अपना घर बसाने की प्रक्रिया में आनेवाली कठिनाइयों के अनुभव सबके अलग-अलग होकर भी उनमें एक साम्य है विदेशी सभ्यता और संस्कृति से मिलने वाल कल्चरल शॉक! भारत से बाहर जाकर कैनेडा में बसने की प्रक्रिया को इंदिरा जी ने अपनी आप बीती में समेटा है। इंटरव्यू में साड़ी पहन कर जाएँ या पाश्चात्य वेशभूषा में जैसी दुविधा जितनी परिचित लगती है उतनी ही महत्त्वपूर्ण भी। चाहे क्रिसमस के त्योहार की तैयारी का अनोखापन हो, पहली बार बर्फ़ गिरते देखने का रोमांच हो या रसोई के अनाज मसालों की ख़रीद के लिए किए गए अभियान, इंदिरा जी ने सभी विवरणों का जीवंत वर्णन किया है। दूसरा संस्मरण, “मेरे बाबूजी” इंदिरा जी के श्वसुर जी की योग्यता और उदारता को समर्पित है। संकलन के लेखों में उल्लेखनीय हैं श्याम त्रिपाठी जी का ‘हिंदी प्रचारिणी सभा की आवश्यकता’ एक संस्मरणात्मक आलेख और शैलजा जी का ‘कहत कबीर सुनो भी साधौ।’
संस्मरणों से साम्य रखती हुई पर भिन्न विधा डायरी लेखन है। संस्मरण के विषय प्राय: अपने से जुड़े होते हुए भी अपने से इतर व्यक्ति या विषय पर केंद्रित होते हैं। डायरी व्यक्ति की आपबीती होने के कारण प्रथम पुरुष में लिखी जाती है। ओंटेरियो हाइड्रो से अवकाश प्राप्ति के बाद साहित्यिक गतिविधियों में संलग्न विजय विक्रांत जी की ‘डायरी का एक पन्ना’ कैनेडा के व्यस्त जीवन में बस हड़ताल के समय एक टैक्सी चालक के व्यस्त दिन का लेखा-जोखा है। एक दिन में अलग-अलग सवारियों के रूप में उसका साक्षात्कार मानवता के अनेक रूपों से होता है। अपनी डिमेंशिया पीड़ित पत्नी के साथ विवाह की वर्षगाँठ मनाने जाने वाली सवारी आँखों को नम करती है तो नाइट क्लब से नशे में धुत्त युवकों का बीच रास्ते में उल्टी करने के लिए टैक्सी को रुकवाने की ज़िद वितृष्णा!
संकलन की कहानियों में संवेदना की दृष्टि से विविधता है। प्राय: लेखकों ने इतिवृत्तात्मक शैली में अपनी बात पहुँचाई है, कदाचित उनका ध्यान शिल्पगत परिपक्वता से अधिक अपने कथ्य को सम्प्रेषित करना रहा है। परिणाम स्वरूप कुछ कहानियाँ शिल्प की दृष्टि से अधपकी रह गई हैं, पर उस कमी को पूरा करते हैं वो सामाजिक सरोकार जो उनके केंद्रबिंदु हैं। प्रूफ रीडिंग की असावधानी के कारण हुई व्याकरण और वर्तनी की त्रुटियों में सुधार पुस्तक के अगले संस्करण में उसकी पठनीयता बढ़ाएँगे। शालिनी का कथन, ’जिस लड़के ने भी हाँ कर दी, बस अपना मुक्कदर (वर्तनी?), समझ कर अपना लूँगा’, ’आँसू रुके नहीं रुक रहे थे’, ’लाल लम्बे स्कर्ट के साथ वह (लड़की) सुंदर लग रहा था’, 'कभी-कभी मैं अभी भी सोचता हूँ’, ’बापू उन सबको छोड़कर चला गए थे’ जैसे वाक्य अखरने के साथ कथा के प्रवाह को भी भंग करते हैं।
कृष्णा वर्मा की ‘कैसे हाशिए’ शीर्षक कहानी सामाजिक रूढ़ियों के हाशिए पर खड़ी सलोनी का इतिवृत्त है। उसकी माँ को उसका पहले तो एक विधुर और ऊपर से एक बच्चे के पिता से विवाह करना स्वीकार्य नहीं। माँ के लिए बेटी की पसंद से कहीं अधिक महत्त्व इस बात का है कि ‘लोग क्या कहेंगे?’ कहानी के अंत में सलोनी घर से रवाना होते समय माँ की पहनाई तुलसी की माला को गले से उतारकर तोड़ कर फेंक देती है। तुलसी की माला, जिसमें माँ की दी हुई सौगंध है, सलोनी उससे बँध कर न रहेगी, वह अपना जीवन अपने तरीक़े से जीएगी। ‘गैप’ कहानी में पीढ़ियों की टकराहट का एक अन्य रूप उकेरा गया है। अपने लिए करियर चुनते समय माँ की इच्छा से समझौता करने वाली नेहा को डॉ. की सलाह, “झुककर चलना रीढ़ के लिए घातक होता है,” नई पीढ़ी को अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने का संदेश है। लेकिन वैचारिक स्वतंत्रता और अपना जीवन अपने तरीक़े से जीने का दावा करने वाली यह पीढ़ी ’अनोखा सुख’ में ज़रूरत पड़ने पर अपने बच्चे की देखभाल करवाने के लिए संयुक्त परिवार की छत्रछाया में पनाह लेकर सुख का अनुभव करती है। नये माता-पिता को संयुक्त परिवार का महत्त्व समझ आता है जब उन्हें काम पर जाते समय अपने छोटे बच्चे की देखभाल करने वाले की ज़रूरत पड़ती है। उनकी स्वार्थपरता को कृष्णा वर्मा बिना किसी लाग लपेट के कह जाती हैं, उनकी लेखनी समस्या को प्रत्यक्ष रूप से सम्बोधित करके परोस देती हैं।
प्रीति अग्रवाल की ‘देहरी’ मध्यवर्गीय मानसिकता का उदाहरण है, जिसके अनुसार यदि औरत के पाँव देहरी पार गए तो संसार का या उसका अनिष्ट हो जाएगा। इसके पहले कि ऐसी नौबत आए, नेहा के बीस पार करते ही माँ ने उसके लिए रिश्ता ढूँढ़ निकाला। अनमेल विवाह की पीड़ा और विवाह-विच्छेद का कलंक ढोते हुए वह शादी के बाद मायके लौट आई। पर यहाँ से शुरू होती है उसकी स्वावलम्बी बनने की कहानी। लेखिका का संदेश पुन: रेखांकित हुआ है उनकी अगली कहानी ‘मैं श्यामली’ में। इस बार समस्या केवल प्रथम श्रेणी में एम ए पास बेटी की उसके सर्वथा अनुपयुक्त लड़के से सम्बन्ध करने तक ही नहीं सीमित, ऊपर से लड़के के लालची पिता के घर और गाड़ी की फ़र्माइश परिस्थिति को और जटिल बनाती है। श्यामली के पिता का खड़े होकर भावी वर और उसके पिता को घर से बाहर का रास्ता दिखाना एक सशक्त संदेश देता है। पिता का निर्भीक निर्णय बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य को प्रतिबिम्बित करता है। बदलते हुए सामाजिक परिदृश्य का एक दूसरा रूप संकलन के सह-मुख्य संपादक सुमन कुमार घई की ‘सुबह साढ़े सात बजे से पहले' कहानी में देखने को मिलता है। स्त्री-पुरुष के कार्यक्षेत्र की पुरातन अवधारणा को भंग करता है आधुनिक समाज। यह अब आवश्यक नहीं कि स्त्री घर गृहस्थी सम्हाले और पुरुष अर्थोपार्जन करे। राजीव और मीना ने इस पारम्परिक ढाँचे को सोच समझ कर तोड़ा है और उनके इस निर्णय से उनके आपसी सम्बन्ध मज़बूत हुए हैं। अपनी पत्नी को बाँधने के लिए राजीव को उसे माँ बनाना भी ज़रूरी नहीं लगता।
हिंदी की वरिष्ठ लेखिका और इस संकलन की मुख्य सम्पादिका, शैलजा जी ने ‘उसका जाना’ कहानी में विदेश जाकर अपने जीवन-स्तर की बेहतरी के सपने देखने के पीछे के संघर्ष और मोहभंग का चित्रण करने के साथ स्त्री के शोषण के एक पक्ष को निरूपित किया है। विदेश की सड़कें सोने से नहीं पटी हैं। नये देश में जाकर अनजान भाषा, अजनबी वेशभूषा रहन-सहन और संस्कृति के साथ सामंजस्य करने का सफ़र लम्बा ही नहीं जोखिम भरा भी हो सकता है। कैनेडा से आए लीला के भाई के ठाट-बाट से प्रभावित वंशीधर गाँव में अपनी अच्छी भली ऑफ़िस की नौकरी छोड़कर सपरिवार कैनेडा पहुँच गए। ‘वे ग़ुस्से वाले तो पहले से ही थे, अब यहाँ के नये जीवन में आदी होने में उन्हें समय लग रहा था सो और चिढ़े रहते।’ कोई नयी चीज़ सीखने की उम्र नहीं थी पर कोई योग्यता और अँग्रेज़ी के समुचित ज्ञान के अभाव में उनको एक ट्रकड्राइवर के क्लीनर की नौकरी मिली। गाँव में उनके नीचे आठ आदमी काम करते थे और यहाँ ट्रक ड्राइवर की बातें सुननी पड़ती है। पत्नी तो चुप रहने लगी थी और बेटी, बेला पिता के अकारण ग़ुस्से से माँ को बचाने, अपनी और दो छोटे भाइयों की पढ़ाई की ज़िम्मेदारी और माँ के स्वास्थ्य की चिंता का दायित्व ओढ़ कर एकाएक अपनी उम्र से बड़ी हो गई। वंशीधर पैसों की तंगी और मन लायक काम न मिलने का सारा क्रोध लीला पर उतरता, ’माँ नौकरी या जगह के बारे में कुछ पूछ भर लेती तो उसकी आफत आ जाती, तुरंत ताने और गालियाँ शुरू कर देते’ और फिर धीरे-धीरे नशाखोरी और पत्नी पर हाथ उठाना शुरू हुआ। पंद्रह वर्षीय बेला की दृष्टि से लिखी कहानी का यथार्थ उनके स्वप्नभंग को एक भयावह अंजाम देता है। बेला को ‘पिताजी गाँव में रहते समय ज़्यादा अच्छे लगते थे, यहाँ आने के बाद तो कभी ठीक से हँसे भी नहीं।” उनका स्वप्नभंग उन लोगों के लिए एक गंभीर चेतावनी है जो जीवन को बेहतर बनाने के सपने पालकर बिना पूर्व योजना और योग्यता के विदेश चल पड़ते हैं। लीला की बीमारी का प्रसंग यौन-उत्पीड़न के गंभीर सरोकार को उकेरता है। पति की गालियाँ और मार को चुपचाप सहने वाली लीला की सहन शक्ति की सीमा पति से मिली बीमारी से पार कर जाती है। बस अब और नहीं! वह पति के पास लौटने की जगह मिसेज़ खुल्लर से अपने लिए अलग जगह का इंतज़ाम करने को कहकर जैसे अपने नये स्वतंत्र व्यक्तित्व का ऐलान करती है। मिसेज़ खुल्लर के कथन, ’चूल्हे की आग अब दिल में जला ले लीला, रास्ते के अँधेरे आप ही हट जाएँगे, बस हिम्मत से चली चल आगे’, में शैलजा जी का संदेश उन तमाम दमित-पीड़ित स्त्रियों के प्रति है जो आजीवन अन्याय के सामने अपना सिर उठाकर प्रतिकार नहीं कर पातीं।
शैलजा जी की दूसरी रचना एक लघुकथा है जिसमें वर्माजी की ज़ूम मीटिंग में अपनी ग़रीबी को ढकने के लिए जब उनका भतीजा उनके बदरंग कमरे के पीछे एक सुंदर पृष्ठ्भूमि का चित्र लगा देता है और अगले दिन रिपोर्ट में चुभता हुआ व्यंग्य है उन प्रकाशकों के लिए जो लेखक की प्रतिभा और रचनात्मक ऊर्जा की मलाई स्वयं हज़म कर लेते हैं लेखक को रॉयल्टी तक नहीं देते—‘वर्मा जी के भव्य घर को देखते हुए उन्हें आधुनिक युग का प्रेमचंद तो नहीं कहा जा सकता। उन्होंने साहित्य को बहुत कुछ दिया है तो साहित्य ने भी उनका घर भर दिया है। हम इसके लिए ईमानदार प्रकाशकों को भी धन्यवाद देते हैं।’ सच तो यह है आज भी भारत में पेट भरने के लिए लेखकों को कोई दूसरा काम करना पड़ता है। शैलजा जी की रचनाओं के पीछे एक गंभीर चिंतन की अंतर्धारा प्रवाहित होती है जो शिल्प की सुघड़ाई से संयोजित होकर गंभीर साहित्य की श्रेणी में शामिल होती है।
हँसा दीपा ने ‘काठ की हांडी’ में कोरोना की पृष्ठभूमि में मानव मन की उदात्तता का चित्रांकन किया है। सीनियर सिटिज़न होम में कोरोना की अफ़रा-तफ़री और घबराहट की गूँज और मौत का मंज़र आँखों के क़रीब आकर दस्तक दे रहा था। छियासी वर्षीय रोज़ा स्वयं कोरोनाग्रस्त होकर वेंटीलेटर के सहारे ज़िन्दा है। वह नर्स से अपना वेंटिलेटर सामने के पलंग पर कोरोनाग्रस्त युवा को लगाने को कहती है। वह तो अपना जीवन जी चुकी है, युवक के सामने अपना पूरा भविष्य है। दीपा जी ने रोज़ा के माध्यम से मानव मन के उदात्त रूप को उद्घाटित किया है। वह युवा को जीने का अवसर देने के लिए अपनी मृत्यु का वरण करती है। शीर्षक की सार्थकता कहानी के अंतिम वाक्य में है, “काठ की हांडी स्वयं चूल्हे पर चढ़ गई थी ताकि आग बरक़रार रहे।” संवेदना और शिल्प की दृष्टि से यह संकलन की उत्कृष्ट कहानियों में से है। ‘शतप्रतिशत’ में हँसा दीपा ने मनोविज्ञान की परतों को खोला है। बचपन के अनुभव मानव मन को गहराई से प्रभावित करते हैं बचपन में असावधानीवश दूध का गिलास पिता के कपड़ों पर गिरा देने पर मिला तमाचा उसके भीतर भय की एक ऐसी गाँठ बाँध देता है जिसे खोल पाना उसके वश की बात नहीं। “चोट, घाव, दर्द और डर के मिले-जुले प्रभाव उसके बालमन को आदमी से, रिश्तों से और आसपास की दुनियाँ से दूरियाँ बनाने को मजबूर करते रहे।” पिता से अलग फॉस्टर परिवार में रहकर भी वह उस गाँठ को खोल नहीं पाया। अंत में सड़क दुर्घटना की भयंकरता उसके भीतर के भी और त्रास का समाधान करते हैं। लेखिका ने मानव मन की संश्लिष्ट ग्रन्थियों का निरूपण किया है।
अपनी विषयगत विविधता तथा सामाजिक रूढ़ियों और समस्याओं के यथार्थपरक चित्रण के साथ भविष्य के प्रति एक सकारात्मक संदेश इन रचनाओं की विशेषता है।
इस विशेषांक में
कविता
- तुम्हारा प्यार आशा बर्मन | कविता
- आकांक्षा आशा बर्मन | कविता
- जागृति आशा बर्मन | कविता
- मेरा सर्वस्व आशा बर्मन | कविता
- नित – नव उदित सफ़र डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- इन्द्रधनुषी लहर डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता का दिल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- नया साल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- बसन्त आया था डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- ये पत्ते डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- एक मुट्ठी संस्कृति डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- जीवंत आसमान की धरती का जादू डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- राह डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- मुस्कान डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- अग्नि के सात फेरे तरुण वासुदेवा | कविता
- माँ और स्वप्न तरुण वासुदेवा | कविता
- ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें निर्मल सिद्धू | कविता
- उम्र के तीन पड़ाव निर्मल सिद्धू | कविता
- वह पूनम कासलीवाल | कविता
- तुम कहाँ खो गए . . . प्राण पूनम कासलीवाल | कविता
- हर बार पूनम कासलीवाल | कविता
- आना-जाना पूनम कासलीवाल | कविता
- पिता हो तुम पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- माँ हिन्दी पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कैकयी तुम कुमाता नहीं हो पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कृष्ण संग खेलें फाग पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कटघरा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- आईना प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- मुलाक़ात प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- पेड़ डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- माँ! मैं तुम सी न हो पाई! डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- चिड़िया का होना ज़रूरी है डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- मूड (Mood) डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- गुरुदेव सीमा बागला | कविता
- मेरी बिटिया, मेरी मुनिया संदीप कुमार सिंह | कविता
- अधूरी रह गई संदीप कुमार सिंह | कविता
- चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो? संदीप कुमार सिंह | कविता
- मैं नदी हूँ सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- लेखनी से संवाद सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- हमारे पूर्वज सीमा बागला | कविता
- मेरा बचपन वाला ननिहाल सीमा बागला | कविता
- धारा ३७० सीमा बागला | कविता
- परिक्रमा सुरजीत | कविता
- तू मिलना ज़रूर सुरजीत | कविता
- प्रवास कृष्णा वर्मा | कविता
- वायरस डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लाईक ए डायमण्ड इन द स्काई डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लिफ़ाफ़ा प्राची चतुर्वेदी रंधावा | कविता
- चार्ली हेब्दो को सलाम करते हुए धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- रोबॉट धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- मेरे टेलीस्कोप में धरती नहीं है धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
- निज भाग्य विधाता परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव | कविता
- आ गया बसंत है परिमल प्रज्ञा प्रमिला भार्गव | कविता
- कुछ कहा मधु भार्गव | कविता
- मेरी माया मधु भार्गव | कविता
- मधु स्मृति स्नेह सिंघवी | कविता
- अश्रु स्नेह सिंघवी | कविता
- निमंत्रण स्नेह सिंघवी | कविता
- मैं हवा हूँ इन्दिरा वर्मा | कविता
- मेरी पहचान इन्दिरा वर्मा | कविता
- चिट्ठियाँ इन्दिरा वर्मा | कविता
- वह कोने वाला मकान इन्दिरा वर्मा | कविता
- एक दिया जलाया इन्दिरा वर्मा | कविता
- आशीर्वाद इन्दिरा वर्मा | कविता
- बंधन कृष्णा वर्मा | कविता
- सोंधी स्मृतियाँ कृष्णा वर्मा | कविता
- स्त्री कृष्णा वर्मा | कविता
- रेत कृष्णा वर्मा | कविता
- ज़िन्दगी का साथ दीप्ति अचला कुमार | कविता
- छोटे–बड़े सुख दीप्ति अचला कुमार | कविता
- सिमटने के दिन दीप्ति अचला कुमार | कविता
- दुविधा दीप्ति अचला कुमार | कविता
- दिशाभ्रम आशा बर्मन | कविता
- मैं और मेरी कविता आशा बर्मन | कविता
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- सन्नाटे अम्बिका शर्मा | कविता
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पुस्तक समीक्षा
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- कृष्णा वर्मा के सृजन-कर्म से गुज़रते हुए डॉ. पूर्वा शर्मा | साहित्यिक आलेख
- राग-विराग के समभाव की कवयित्री: इंदिरा वर्मा! डॉ. सुमन सिंह | साहित्यिक आलेख
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- डॉ. नूतन पाण्डेय द्वारा टोरोंटो, कैनेडा निवासी डॉ. शैलजा सक्सेना से बातचीत डॉ. नूतन पांडेय | बात-चीत
- कैनेडा की हिंदी कथाकार हंसा दीप से साक्षात्कार डॉ. दीपक पाण्डेय | बात-चीत
- डॉ. दीपक पाण्डेय द्वारा कैनेडा निवासी डॉ. स्नेह ठाकुर से साक्षात्कार डॉ. दीपक पाण्डेय | बात-चीत
- कैनेडा निवासी राधेश्याम त्रिपाठी से डॉ. नूतन पाण्डेय की बातचीत डॉ. नूतन पांडेय | बात-चीत
- कैनेडा निवासी डॉ. रत्नाकर नराले से डॉ. नूतन पाण्डेय का संवाद डॉ. नूतन पांडेय | बात-चीत
- कैनेडा निवासी व्यंग्यकार धर्मपाल महेंद्र जैन से डॉ. दीपक पाण्डेय का संवाद डॉ. दीपक पाण्डेय | बात-चीत