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इमोजी की मौज में

मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कब डिजिटल हो गया। नया आईफ़ोन लिया तो टेक्नीशियन ने पूछा क्या सेटिंग करूँ? सेटिंग के मामले में मैं अशिक्षित हूँ। पापा-मम्मी पचास साल पहले जो सेटिंग करवा गए वह अभी तक चल रही है। मैंने उससे भोलेपन में कह दिया, तुमको जैसी ठीक लगे वैसी सेटिंग कर दो। मेरे और फ़ोन के बीच टेक्नीशियन 'वह' जैसा था। फ़ोन प्रश्न पूछता तो वह मुझसे पूछता। मैं उत्तर देता तो वह फ़ोन में डाल देता। 

पूरी गति से मैं खर्राटे भर रहा था और शायद ऊँची उठती अर्थव्यवस्था के सपने देख रहा था कि फ़ोन टर्राने लगा। मैंने उसे उठाया तो वह चालू हो गया, अब पासवर्ड की ज़रूरत नहीं थी। मेरा डिजिटल चेहरा फ़ोन में दर्ज़ था जो फ़ेस आईडी का काम कर रहा था। दनादन संदेश आ रहे थे। जो लोग मुझसे पहले उठकर सक्रिय हो गए थे उन्होंने डिजिटल कॉफ़ी भेज दी थी। धुआँ उठ रहा था, ताज़ी काफ़ी के बुलबुले दिख रहे थे। डिजिटल कॉफ़ी पीने की स्वीकृति में मैंने करबद्ध वाली इमोजी भेज दी। किसी ने फूलों का बहुत सुंदर डिजिटल गुलदस्ता भेजा था, ग़ालिब के शेर को बेगम अख़्तर ने आवाज़ दी थी पर तस्वीर 'उनकी' थी। उनका नाम भी था जो मैं आपको क्या, किसी को भी नहीं बताने वाला। उनकी तस्वीर डिजिटल थी, उनकी फ्लाईंग किस डिजिटल थी, उनकी भावनाएँ डिजिटल थीं। मैं हतप्रभ था, मेरी झिझक डिजिटल नहीं बन पा रही थी। मेरे चेहरे के उड़ते रंग डिजिटल नहीं हो पा रहे थे। अंततः मैंने डिजिटल साहस जुटाया और एक डिजिटल फूल उन्हें भेज दिया, उधर से दो डिजिटल फूल आ गए। मुझे बाद में पता चला कि डिजिटल प्रेयसी ने ऐसी ऑटोमेटिक सेटिंग कर रखी थी, सिरी उर्फ़ अलेक्सा का फ़ोन स्वतः ही डिजिटल प्रेम का इज़हार कर सकता था। मैं फ़ालतू ही वास्तविक फ़रहाद बन बैठा था। मन को डिजिटल प्रेम का मुआमला समझने में बहुत देर लगी। 

आजकल मेरी सुबह डिजिटल होती है। मित्रों और निंदकों के डिजिटल उलाहनों से उबरने मैं प्रभुशरण ग्रुप पर आ जाता हूँ। प्रभु का दिव्य डिजिटल शृंगार हो चुका होता है। मैं भी इमोजी-पुष्पों की थाल उनके चरणों में अर्पित कर देता हूँ। डिजिटल भोग देखकर मेरी जीभ और आत्मा दोनों प्रसन्न हो जाते हैं। मुझमें आसक्ति भाव जागे उसके पहले ही महाकाल ‘लाइव’ हो जाते हैं। शंखघोष के साथ डिजिटल भस्म आरती शुरू होती है। जन-गण-मन की तरह इस समय भी यथास्थान खड़े होकर महाकाल का सम्मान करने की प्रथा है तो मैं बिस्तर छोड़ कर खड़ा हो जाता हूँ। डिजिटल भस्म लगाने का सात्विक आनंद आप असांस्कृतिक लोग क्या जाने! हम विदेशों में रहते हैं, चालीस-पचास साल पहले जो ख़ालिस पवित्र संस्कृति हम भारत छोड़कर आए थे उसका डिजिटल संस्करण दिमाग़ में अब रच-बस गया है। डिजिटल बाज़ार के बारे में क्या लिखूँ। वे नेट पर डिजिटल ऑर्डर लेते हैं, डिजिटल भुगतान लेते हैं और धोखा भी डिजिटल देते हैं। कुछ मित्र कई फेक आईडी बना-बना कर डिजिटल दशानन हो गए हैं। यूँ प्रति आईडी बस पाँच हज़ार मित्र बनाने की छूट है पर उन्हें सारी दुनिया को मित्रता के जाल में लपेट कर 'लाइक' करना है। 

डिजिटल जीवन में अभी नित्यकर्म जैसी बहुत सी अडिजिटल चीज़ें हैं। क्या मालूम बिल गेट्स और मार्क ज़करबर्ग को कभी प्राकृतिक कामों की ज़रूरत पड़ती भी है या नहीं, वे इनका कोई डिजिटल हल नहीं सोचते। रेस्त्राँ में बैठकर मैंने मनपसंद भौतिक नाश्ता किया। डिशों के नाम बताऊँगा तो आप रेसिपी पूछेंगे, रेसिपी बताऊँगा तो बहुत-सी युवा मित्र कुल कैलोरी पूछेंगी। इसलिए मुद्दे की बात बता देता हूँ। डायट ऐप के अनुसार मैंने पाँच सौ कैलोरी नाश्ता किया। अब स्टेशन से लोकल पकड़ने के लिए प्रवेश द्वार पर हूँ। फ़ोन टैप करता हूँ तो डिजिटल टिकट देख कर द्वार खुल जाता है। यहाँ एक बार में एक ही यात्री घुस सकता है। भारत ने इस मामले में बहुत प्रगति की है, वहाँ इतनी देर में दस लोग घुस सकते हैं। सरकार नियंत्रण नहीं लगाये तो पंद्रह लोग भी घुस सकते हैं। मेरे संपादकजी ने यह वाक्य पढ़कर फ़ोन किया और कहा कि हम तो बीस लोग भी घुस सकते हैं पर लोकल में लटकने की इतनी जगह नहीं रहती। 

अपनी सीट पर बैठ कर मैं पुनः डिजिटल दुनिया से जुड़ जाता हूँ। डिब्बे में मेरे आसपास कौन खड़ा है, कौन मेरी स्क्रीन में झाँक कर जोक्स पढ़ रहा है, मुझे उनकी फ़िक्र नहीं है। अपने आसपास की दुनिया से नितांत कटकर अपनी डिजिटल दुनिया में रहने का सुख अवर्णनीय है। मैं हर दिन चार-छः लोगों को संवेदना संदेश भेजता हूँ। डिजिटल संवेदनाओं का अच्छा ख़ासा डेटाबेस है मेरे पास। कॉपी-पेस्ट करता हूँ, इमोजियाँ सजाता हूँ और क्लिक कर देता हूँ। एक आभासी मित्र के पिताश्री के निधन पर श्रद्धांजलियों का ताँता लगा है। वहाँ चार लोगों ने उदासी वाली इमोजी लगाई है पर चार सौ से अधिक लोगों ने इस पोस्ट को 'लाइक' किया है। मृत्यु को भी डिजिटल रूप से पसंद करके लोग ख़ुद को सहिष्णु समझते हैं। एक श्रद्धांजलिदाता ने यहाँ हार्दिक बधाई का संदेश लिखा है। डिजिटल युग में कॉपी-पेस्ट करना ज़रूरी है, ग़लत संदेश जा रहा है तो जाये, उसे वैसे भी कोई पढ़ने वाला नहीं है। जिस किसी भी निठल्ले ने कॉपी-पेस्ट की खोज की है उसका दिमाग़ चूमने को जी चाहता है। उसने सोशल मीडिया से लिंग भेद हटाने की कोशिश की है। कई फ़ेसबुकिये अपनी डिजिटल बहनों के पेज पर भी हार्दिक बधाई भैया या शुक्रिया भाई के कॉमेंट धड़ल्ले से चिपका देते हैं। कभी कुछ मिनट वाई-फाई नहीं मिलता है तो अपने आसपास की वास्तविक दुनिया बड़ी डरावनी और घिनौनी लगती है। डिजिटल दुनिया स्वर्ग-सी है। यहाँ अप्सराओं के नृत्य हैं, गंधर्वों के सुर हैं, तानसेन की तानें हैं। इनके साथ हॉलीवुड, बॉलीवुड और डॉलीवुड की धमाचौकड़ी देखते-देखते मैं गंतव्य पर आराम से पहुँच जाता हूँ। 

ऑफ़िस के डिजिटल दरबान मेरे अंगूठे को जानते हैं। हॉल में अंदर आ जाने पर सुरक्षाकर्मी मुझ पर अपना डिजिटल डंडा घुमाते हैं और केवल अस्थि-मज्जा से बने मेरे शरीर की अभिपुष्टि कर लेते हैं। कैबिन में पहुँच कर मैं लोगों के नंबर कंप्यूटर पर डालता हूँ, उनका डिजिटल चरित्र और डिजिटल वैभव मेरे सामने होता है। मेरे लिए ये आँकड़े ही व्यक्ति हैं। मेरे सामने कई लोगों के आपराधिक जीवनवृत्त हैं, मुझे आदमी नहीं, आँकड़े देखना है और निर्णय लेना है। डिजिटल रिकॉर्ड्स के अलावा कुछ जानने में न मेरी रुचि है और न ही समय। मन के किसी अँधेरे कोने से कोई याद आ जाये तो मेरे पास उनकी डिजिटल स्मृतियाँ हैं। क्या हूँ मैं? मेरी स्मृतियाँ, संवेदनाएँ, बुद्धि, तर्क, दृष्टि सब डिजिटल हैं। अच्छा है मन और दिमाग़ अभी पूरी तरह डिजिटल नहीं हुए हैं, मुझ में कहीं आदमी शेष है, वह इमोजी नहीं बना है। 

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