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बहादुर गुदरिया

भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम—अंग्रेज़ों के अत्याचारों से तंग आकर भारत में एक आन्दोलन शुरू हुआ जो १८५७ के गदर के नाम से प्रचलित हुआ। दिल्ली और मेरठ बड़ा सैनिक अड्डा होने के कारण वहाँ आन्दोलन की गतिविधियाँ बहुत ज़ोर पकड़ रहीं थीं। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। मेरठ में क़रीब २३५७ भारतीय सैनिक और २०३८ ब्रिटेन के सिपाही थे। पूरे मेरठ में अशान्ति का वातावरण था। बाज़ार में विद्रोह प्रदर्शन और आगजनी की घटनाएँ हो रही थीं। ”अँग्रेज़ों भारत छोड़ो“की भावना ने भारतीयों के मन में स्थान बना रखा था। सामान्य व्यक्तियों को घरों से निकलने की अनुमति नहीं थी। अनेकों घर बर्बाद हो रहे थे। सिपाहियों की पत्नियाँ अपनी चूड़ियाँ तोड़ रही थीं। अनेक घरों में मातम छाया हुआ था। बालकों और औरतों को मौत के घाट उतारा जा रहा था। घर-घर में बैठक हो रही थीं। समय समय पर कर्फ़्यू लग जाता था। कभी कभी सब्ज़ी और राशन इत्यादि लाने के लिए कर्फ़्यू में ढील दी जाती थी और लोग अपनी अति आवश्यक वस्तुएँ, खाने का सामान पास की दुकानों से ख़रीद लाते थे। लोग भागकर जल्दी से घर का सामान लाकर रख लेते थे। पता नहीं दूसरी बार कब कर्फ़्यू उठे और बाहर निकालने का मौक़ा मिले। धीरे-धीरे सामान मिलने में भी असुविधा होने लगी थी क्योंकि दुकानदारों तक माल नहीं पहुँच पाता था। आवागमन के सभी साधन बंद हो चुके थे। स्वतंत्रता के नारे सभी स्थानों पर गुंजायमान्‌ हो रहे थे। 

एक दिन जब कर्फ़्यू में ढील हुई तब गुदरिया (गुद्दो) अपनी माँ के यहाँ, जो कि बग़ल वाली गली में क़रीब आधा फर्लांग पर ही रहती थीं, चली गयी। गोद में छह माह का बच्चा था, उसे भी साथ ले गई। माँ ने कहा, “अरे तू क्यों आ गयी ऐसे समय में?" 

गुदरिया बोली, "पता नहीं कल क्या होगा इसलिए सोचा मिल आऊँ।" 

माँ से बात करते-करते समय पर ध्यान ही नहीं दिया और फिर से कर्फ़्यू लगने का समय हो गया। तभी गुदरिया को अचानक अपने ससुराल वापिस जाने की याद आई। माँ के बहुत मना करने पर भी वह न मानी और बोली, "आधा फर्लांग का ही तो रास्ता है मैं शीघ्र ही घर पहुँच जाऊँगी वर्ना सासू जी नाराज़ होंगी और पति भी परेशान होंगे।" गुदरिया की ज़िद के सामने माँ की एक न चली। 

जैसे ही गुद्दो घर से बाहर निकली, कुछ ही क़दम चली थी कि उसे हर हर महादेव के नारे लगाते हुए कुछ लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं, उसके क़दम और तेज़ी से चलने लगे परन्तु वो आवाज़ें और तेज़ी से उसके क़रीब आती गयीं तभी गुद्दों को अहसास हुआ कि वह घर तक न पहुँच पायेगी और वह बीच रास्ते में ही थी न ही माँ के यहाँ और न सास के यहाँ पहुँच सकेगी। पुराने घरों में चारपाई बिछाने का चलन था सभी घरों के बाहर चारपाई पड़ी ही रहती थी क्योंकि लोग उसी पर बैठ कर आपस में वार्तालाप किया करते थे। बस गुदरिया ने जल्दी से उस चारपाई को खड़ा किया और उस पर अपनी चादर जो उस समय की महिलाएँ साड़ी के ऊपर ओढ़ती थीं, उतार कर चारपाई पर डाल दिया और अपने बच्चे को लेकर उसके पीछे बैठ गई और बच्चे को स्तनपान कराने लगी। तभी हाथों में नंगी तलवारें लिए हुए विद्रोहियों का क़ाफ़िला उधर ही आ गया। क़रीब चालीस मिनट तक वह क़ाफ़िला चलता रहा और हर हर महादेव के नारे लगते रहे। गुद्दो चुपचाप साँस रोके बच्चे को दूध पिलाती रही। और भगवान् का नाम लेती रही। भगवान् ने उसकी सुनी और बच्चा भी न रोया और दूध पीते-पीते सो गया। विद्रोहियों में चाहे वह भारतीय ही हों एक बार ख़ून सिर पर सवार हो जाए तो न जाने किस को अपनी तलवार का शिकार बना लें। यही भय गुद्दो को खाए जा रहा था। चालीस मिनट तक वह अपनी साँस रोके उस क़ाफ़िले के निकल जाने का इंतज़ार करती रही। क़ाफ़िला निकल जाने के बाद जब शान्ति हो गई तब गुद्दो चारपाई के पीछे से निकल कर घर की ओर भागी। उस समय में घरों में टेलीफ़ोन तो होते नहीं थे जो गुद्दो पति को अपने आने की सूचना दे देती और सलाह करती कि इस समय उसे घर से निकलना चाहिए या नहीं। सास और पति दोनों ही उसके आने की राह देख रहे थे। पति ने खिड़की से देखा कि वह पहुँच गई है तो झट से दरवाज़ा खोल दिया और उसे घर के अंदर खींच लिया। गुद्दो को सास से भी सुनने को मिला। उधर गुद्दो की माँ और पिता का बुरा हाल था कि उनकी बेटी कहाँ है? अगली बार कर्फ़्यू उठा तो गुद्दो के पति भाग कर गुद्दो के सुरक्षित घर पहुँचने की ख़बर उसके माता पिता को दे आये। 

समय बीतता गया, गुद्दो बूढ़ी हो गई परन्तु वह उस समय के अपनी बहादुरी के क़िस्से अपने बच्चों को और नाती-पोतों को सुनाती थी और गर्व महसूस करती थी कि किस तरह उसने उस दिन अपनी रक्षा स्वयं की, और अपनी बुद्धि का उपयोग कर स्थिति को सम्भाला। 

अन्त में आज़ादी के इस संग्राम में भारत विजयी हुआ और अँग्रेज़ों से मुक्त होकर स्वतन्त्रता पाई।

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