एक याद
स्मृति लेख | दीप्ति अचला कुमारमार्च का आरंभ था। दूसरा सत्र समाप्त होने वाला था। इस कारण स्कूल में पढ़ाई का ज़ोर बढ़ चला था। मार्च की छुट्टियों से पहले बच्चों की रिपोर्ट देनी होती है। उसके लिए हम अध्यापकों को अपनी कक्षाओं को कई टैस्ट देने थे, हम सभी उसमें व्यस्त थे।
उस दिन, कक्षा में पहुँच कर मैंने बच्चों को गणित का प्रश्नपत्र बाँट दिया। जो भी सवाल उस प्रश्ननपत्र में पूछे गए थे, बच्चे उनसे अच्छी तरह अवगत थे। कई सप्ताहों से इन्हीं पर काम किया जा रहा था। प्रश्नपत्र से सम्बंधित ज़रूरी बातें समझा कर मैंने निश्चिन्तता की साँस ली और मेज़ पर रखा कागज़-पत्रों का ढेर अपनी ओर खिसका लिया। पिछले कुछ वर्षों में शिक्षा के क्षेत्र में पढ़ाई का स्तर बढ़ा हो या नहीं, काग़ज़ी लिखा-पढ़ी का बोझ बहुत ही बढ़ गया है। इतने दिनों में न जाने कितनी चीज़ें जमा हो गई थीं, जिन पर ध्यान देने का समय ही नहीं मिल सका था। बच्चे पन्द्रह बीस मिनट तक तो एकाग्रचित होकर काम करेंगे ही, यह मन में आशा थी। इतने समय में मेरा भी कुछ काम निबट जायेगा, इस विश्वास के साथ ऑफ़िस से आए पहिले सूचना-पत्र पर ध्यान लगाया ही था कि“मैम” की कातर पुकार कानों में पड़ी व आँचल पर हल्का खिंचाव भी महसूस हुआ।
मुड़ कर देखा तो मेरे पल्ले को हाथ में पकड़े पॉल खड़ा था। घबराहट में वह क्या कह कर मुझे सम्बोधित कर रहा है, इस ओर उसका ध्यान ही न था। नन्ही कोमल पलकों पर आँसू टिके थे व होंठ कातरता से काँप रहे थे।
"मैम, मुझे तो पहली ही पंक्ति के सवाल समझ में नहीं आ रहे हैं। मैं कोई भी सवाल नहीं कर पा रहा हूँ और मेरा पेट भी बहुत ज़ोर दर्द कर रहा है। आप ऑफ़िस में कह कर मुझे घर भिजवा दीजिये। मैं घर जाना चाहता हूँ,” उसने घबराहट भरे स्वर में कहा।
पॉल मेरी कक्षा के मेधावी छात्रों में नहीं है। किसी भी चीज़ को समझने में उसे बहुत समय लगता है। पर एक बार अच्छी तरह समझ लेने के बाद भी उसे भूलने में बेचारे को ज़्यादा समय नहीं लगता। मेहनती है, इसलिए प्रयत्न करके दिन-प्रतिदिन का काम तो वह निबटा लेता है पर अपनी ही ज़िम्मेदारी पर, बिना किसी मदद के कोई भी लम्बा काम करना उसके लिये कठिन होता है।
पॉल के पेट दर्द की सूचना ने मुझे विचलित नहीं किया। कोई डॉक्टरी डिग्री न होने पर भी लम्बे समय के अध्यापन-कार्य ने मुझे बच्चों की कई बीमारियों का विशेषज्ञ बना दिया है। कुछ परिस्थितियों में पेट दर्द, सिर दर्द व अचानक चक्कर आने के कारणों व इलाज से मैं अच्छी तरह परिचित हूँ।
लिहाज़ा सहज भाव से पॉल आँसू पोंछ कर मैंने उससे कहा, “तुम अपना प्रश्न पत्र मुझे दे कर वाशरूम में जा कर मुँह धो डालो। पानी भी पी लेना। देखो, शायद कुछ आराम मिले। तब तक मैं तुम्हारे घर जाने का इंतज़ाम करती हूँ।”
पॉल के प्रश्नपत्र पर दृष्टि डाली तो देखा कि उसने दो प्रश्न किये थे और दोनों ही ग़लत थे। प्रश्न-पत्र की पहली पंक्ति के प्रश्न हासिल देकर जोड़ने के थे किन्तु उसने हासिल न देकर ऊपर नीचे की दोनों संख्याओं को जोड़ कर यों ही रख दिया था। इस तरह १९७ व ६७७ का योगफल हज़ारों में आ रहा था। इतनी ऊँची संख्या तक तो हमारी कक्षा अभी पहुँची भी न थी, लिहाज़ा उत्तर के रूप में उसे देख कर पॉल का घबड़ा उठना स्वाभाविक ही था।
कुछ ही देर में पॉल वापस आकर पास में खड़ा हो गया। मुँह धुल गया था पर पलकें अभी भी अतिरिक्त रूप से गीली थीं। “मेरा पेट दर्द तो बढ़ता ही जा रहा है। मैं घर जाने को तैयार हो रहा हूँ। क्या मेरी माँ मुझे लेने आ रही है?” उसने सीधी, सतर दृष्टि से मुझे देखकर पूछा।
अपनी बाईं बाँह से घेरकर मैंने उसे मेज़ के पीछे खड़ा कर लिया और कहा, “तुम्हारी माँ को आने में तो कुछ समय लगेगा, पॉल, तुम्हें थोड़ी प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। मगर तब तक तुम अपने ये दोनों सवाल तो देखो। शायद पेट दर्द के कारण तुम्हें हासिल देकर जोड़ने की याद नहीं रही होगी।”
“आपने तो हम लोगों को यह बताया ही नहीं था कि ये सवाल हासिल देकर जोड़ने के हैं,” उसने कुछ शिकायत भरे स्वर में उत्तर दिया।
“हाँ, यह ग़लती तो मेरी ही रही। चलो, तुम्हें इतनी परेशानी हुई, उसके लिये तुम्हें अतिरिक्त समय मिलेगा। तुम ज़रा ये दोनों सवाल मेरे सामने कर तो डालो,” मैंने ’इरेज़र’ से उसके ग़लत उत्तरों को प्रश्न पत्र से मिटाते हुए उसे फुसलाने की कोशिश की।
“हासिल दे कर जोड़ना मुझे आता है,” उसने मुझे चुनौती सी दी। “मैं अभी करके आपको दिखा देता हूँ।”
मेरी निकटता से आश्वस्त, बाँह के घेरे में बँधे-बँधे उसने पहला सवाल किया। शुरू में कुछ हिचकिचाहट व अनिश्चय के साथ, पर धीरे-धीरे उसमें आत्मविश्वास बढ़ता गया। जैसे नन्हा शिशु डगमगाते हुए एक क़दम के बाद सँभल कर दूसरा क़दम रखता है, फिर आश्वस्त होकर चलने लगता है, उसी तरह पॉल ने दूसरा, फिर तीसरा सवाल भी कर लिया, फिर उत्सुक दृष्टि से मेरी ओर देखा।
“पॉल, तुम्हें तो सब कुछ याद है, यह तो कमाल की बात है! दो-तीन और सवाल जोड़ने के हैं, फिर गिनती के कुछ प्रश्न हैं और शेप्स (shapes) के, वे तो तुम्हारे लिये बहुत आसान हैं न?” मैंने पूछा।
पॉल ने प्रश्न पत्र को उलट-पलट कर उसकी अच्छी तरह से जाँच पड़ताल की, फिर धीरे से कहा, “वह पेट का दर्द अब कुछ कम हो गया है।”
“यह तो बहुत अच्छा हुआ, पॉल! क्यों न तुम अपनी सीट पर जा कर यह प्रश्न कर डालो? मैं भी अपना काम निबटा डालूँ वर्ना बाद में परेशानी होगी,” मैंने सहज भाव से कहा।
पॉल मेरे हाथ से प्रश्न पत्र लेकर अपनी सीट की ओर बढ़ा पर उसकी चाल में अनिश्चय सा था। दो तीन क़दम जाकर वह वापस लौट कर हिचकिचा कर बोला, “क्यों न मैं यह बाक़ी प्रश्न आपकी मेज़ पर ही कर डालूँ, यहाँ ज़्यादा जगह है।”
काग़ज़-पत्रों से लदी मेरी मेज़ पर उसके सीधे सपाट डैस्क की अपेक्षा ज़्यादा जगह है, यह सुन कर मुझे हँसी सी आई पर स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मैंने मेज़ की बाईं ओर से कुछ सामान हटाकर उसके लिये काम करने लायक़ ठीक सी जगह बना दी। सहारे के लिए उसे अपनी बाईं बाँह से क़ैद सा कर लिया व दाएँ हाथ से अपना काम निबटाने लगी। पॉल ने उसी तरह खड़े-खड़े सब प्रश्न कर लिये। इस बीच मेरी सहायता की उसे कोई भी ज़रूरत नहीं पड़ी।
’रिसेस’ की छुट्टी होने तक उसने अपना सारा काम पूरा कर लिया था। घन्टी बजते ही अपना प्रश्नपत्र मेरी मेज़ पर छोड़ कर वह और बच्चों के साथ गर्म कपड़े पहनने हाल में चला गया। मैंने उसका प्रश्न पत्र उठा कर देखा। हासिल देने की क्रिया ठीक होने के बावजूद जोड़ में दोष होने के कारण उसके कई उत्तर ग़लत थे। सब मिलाकर मुश्किल से पास होने के अंक बनते थे। एक लम्बी सी साँस लेकर मैंने उसका प्रश्न पत्र मेज़ पर रख दिया और बच्चों को बाहर भेजने के लिए दरवाज़े पर खड़ी हो गई।
इसी बीच कोट की बाँह में हाथ डालते-डालते पॉल ने मेरी ओर देखा। उस दृष्टि में कृतज्ञता, भरोसा, स्नेह, विश्वास और श्रद्धा–जाने कितने भाव गुँथे हुए थे, यह पहचानना मेरे लिए कठिन न था।
बाहर जाने से पहले पॉल मेरे पास आया। अपने नन्हे हाथों से मेरा हाथ पकड़ कर उसमें कुछ रख कर मेरी मुट्ठी बाँध दी व जल्दी से बाहर चला गया। हाथ खोल कर देखा तो उस में चौकलेट चिप्स कुकी का आधा टुकड़ा था।
द्रुत गति से बाहर जाती हुई, बच्चों की भीड़ में ओझल होती हुई पॉल की आकृति से मैंने मन ही मन कहा, “पॉल, शायद तुम इस जीवन में एक सफल व्यक्ति नहीं बन सकोगे। डॉक्टर, इंजीनियर या वकील बनकर किसी बड़े पद पर नहीं पहुँच सकोगे। ऑफ़िस की कोई ऊँची कुर्सी शायद कभी भी तुम से सुशोभित नहीं होगी। पर तुम सही अर्थों में इन्सान अवश्य बनोगे। रंग, परिधान, आवरण आदि तमाम व्यवधानों को चीर कर जिस प्रखर दृष्टि से तुम अकृत्रिम स्नेह को पहचान लेते हो और जिस सरलता से उसे अधिकार-पूर्वक ग्रहण कर लेते हो, वह तुम्हें जीवन भर सही रास्ते पर रखेगी।
“तुम्हारी दृष्टि की उसी विशेष क्षमता की, शायद इस संसार को आज ज़रूरत है।”
इस विशेषांक में
कविता
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- आकांक्षा आशा बर्मन | कविता
- जागृति आशा बर्मन | कविता
- मेरा सर्वस्व आशा बर्मन | कविता
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- पिता डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
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