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सहज स्नेह पगी – 'कही-अनकही'

“कही-अनकही” शीर्षक अपने आप में बहुत कुछ कहता है; कहने के लिये कुछ न रह जाना, व्यक्ति के चुक जाने की निशानी है, कुछ न कुछ कहने के लिये छूट जाना ही जीवन का परिचायक है। आशा बर्मन की कवितायों में हमें यही जीवन्तता देखने को मिलती है। 

यह आशा बर्मन का पहला काव्य संग्रह है। पहला काव्य संग्रह सदा ही भावनाओं का वह पुलंदा होता है जो छ्पाई से पहले, कवि के मन और डायरी में संगृहीत होता चलता है। पहले काव्य संग्रह में कविताओं की छँटाई, कटाई से लेकर छपाई और विमोचन, बिक्री और आलोचना के जगत से कवि अनजान होता है। इस समय कवि के मन में प्रथम प्रेम की-सी झिझक भरी लचकन होती है कि पाठक इस पुस्तक को कैसे लेंगे, एक पुलक भरी आशंका होती है कि सालों बाद मन की पोटली को एक सुन्दर कलेवर मिला है तो वह कैसी लगेगी, एक सौंधा उत्साह होता है जो गरमी के बाद पहली बारिश जैसी ख़ुश्बू लेखक के मन को देता है। इस पुस्तक के प्रकाशन से आशा बर्मन उस पुलक भरी आशंका और सौंधे उत्साह के अपूर्व अनुभव को पा सकी हैं, इसके लिये उन्हें साधुवाद और शुभकामनायें। 

इस संग्रह में स्वानुभूत सत्य से प्रेरित कवितायें हैं। इनमें कथ्य के स्तर पर और भाषा के स्तर पर बनावटी लाग-लपेट नहीं है। मन में जैसी अनुभूति उठी, विचारों ने उस को वैसे ही अपने में समेटा है और भाषा ने उसी तरह उन विचारानुभूतियों को प्रस्तुत कर दिया है। यहाँ चमत्कार दिखाने की चेष्टा की नहीं की गई है। हर कविता सहज है, प्रवाहपूर्ण है और पाठक से बतियाती है। वे कहती भी हैं कि उनकी कवितायें स्वान्त: सुखाय हैं पर साथ ही ये कवितायें शेष सबको भी अपनी भावधारा में सम्मिलित करती हुई चलती हैं, “आत्मविस्तार” में वे कहती हैं: 

“उनमें जो स्वर हैं, 
जो आवाज़, जो दर्द है, 
वह न केवल मेरा अपना है, 
वह आप सबका भी है।” 

इनकी कविताओं, गीतों का उद्देश्य अपनी ऐसी निजी अनुभूतियों को प्रस्तुत करना है जो शेष सब से भी तादात्म्य स्थापित कर सके। 

ये कविताएँ आशा जी के जीवन के आसपास घूमती हैं। उनके जीवन की सबसे बड़ी घटना प्रवास है और प्रवासी जीवन का दुख आशा जी की कई कविताओं में प्रकट हुआ है। घर-परिवार, भाई-भाभी, माता-पिता और सास के घर के लोगों की उन को बार-बार याद आती है। पति को वो लोकगीत “मैं टप-टप रोऊँ रे” और “सैंया काहे करे कविताई” में मीठा उलाहना देती हैं जो उन्हें अपने मायके और सुसराल से दूर ले आया है, कभी “बाबू जी” याद आते हैं और कभी “वे पत्र”, “प्रवासी की पीड़ा”, “अपराधबोध” आदि अनेक रचनायें ऐसी हैं जिनमें घर से दूर होने का गहरा दर्द है। वे प्रवासी की स्थिति अच्छी तरह समझते हुए कहती हैं: 

“अपनी पावन धरती को तज, 
क्यों सदूर देश में आये हम? 
जियें दोहरा जीवन कब तक? 
यह भी समझ न पाये हम” 

यह दोहरा जीवन प्रवासी जीवन का अभिशाप है जिसे हम सब भोगते हैं। पर इस गहरे दर्द को जीते हुए भी आशा जी की कवितायें प्राय: संतुष्ट मन की कवितायें हैं। ये कवितायें जीवन के स्वीकार भाव से उत्पन्न सहज प्रसन्नता से उपजी हैं। वे “जीवन की सांझ” कविता में जीवन के संघर्ष, भागादौड़ी और दायित्वों की पूर्ति के बाद की स्थिति पर कहती हैं: 

“जो मिल गया प्रसाद है / न अब कोई विषाद है। / बग़िया की हर कली खिली / उसे सभी ख़ुशी मिली।” 

यही जीवन-दर्शन हमें उनकी रचनाओं में दिखाई देता है। अगर मन भटकता है तो वह मन को बाँधने की चेष्टा करती हैं और मन को समझाती हैं। 

जीवन में देश से दूर होने का दुख तो है पर प्रिय के मधुर साथ ने इस दुख को कम भी कर दिया है। आशा जी कविताओं में वैवाहिक जीवन का मर्यादित शृंगार रस है। वे कहती हैं: 

“अपनी लघुता से विश्वस्त 
निज सीमाओं में आबद्ध, 
मैं हूँ प्रसन्नवदन!” 

नारी विमर्श का एक रूप यह भी है जो नारी-पुरुष के स्वस्थ सम्बन्ध को सारी महत्ता के साथ स्वीकार करता है और इस सम्बन्ध के प्रति नतमस्तक है। यहाँ न नारी का मान है और न पुरुष का अभिमान, यहाँ पुरुष प्रेम में “महत्ता” की स्थिति को प्राप्त हो चुका है और इसी महत्ता को नारी मन समर्पण कर रहा है। यह प्रेम आनंद की तुरीयावस्था के समकक्ष है, जहाँ शब्दों का महत्त्व नहीं है, चेहरे का भाव देख कर ’उनकी’ बात समझ लेने का गर्व है: 
“जान लेना ‘हाँ’ को उनकी, 
देखकर मुस्कान, किंचित, 
समझ लेना ‘ना’ को भी बस, 
देखकर भ्रू-भंग कुंचित॥ 
प्रेम-गरिमा भरे मन में 
शान्ति और विश्राम। 
समय का वरदान!” 

इस के अतिरिक्त इस संग्रह में जीवन की स्थिति के अनुसार कवितायें हैं जैसे “आकांक्षा” कविता में नौकरी और घर-बार के हज़ारों-हज़ार कामों के बीच आशा जी कहती हैं “थक चले हैं पाँव, बाँहें माँगती है सहारा”, “दर्द” कविता में दो पीढ़ियों के अंतराल का बहुत मार्मिकता से वर्णन किया गया है। “फ़ुर्सत” कविता एक सुखी घर का चित्र उपस्थित करती है तो “दिशाभ्रम” कविता में आज के जीवन का चित्र प्रस्तुत किया गया है जहाँ हर आदमी दिशा भ्रमित सा भागता लगता है। कई कविताएँ मन और विचारों के विवेचन की कवितायें हैं जैसे: “मन”, “मौन की मुखरता”, “प्रश्न”, आदि। “आज का सत्य” कविता में आज के जीवन पर दार्शनिक विचार है। इन कविताओं में प्रकृति वर्णन भी है और कविता करने पर भी विचार किया गया है। जीवन दर्शन से सम्बन्धित कविताओं में कहीं वे “अहं” की चर्चा करती हैं, तो कहीं आदमी के दुख से घटने और सुख में बढ़ने और उसके बाद असीम से ससीम में समा कर पुन: एक हो जाने की बात “मैं और गणित” में कहती हैं: 

प्रसन्नता में मैंने स्वयं को जोड़ा, 
अवसाद में स्वयं को घटाया, 
मद में स्वयं को गुणित किया, 
घोर निराशा में स्वयं को विभाजित 

आशा जी की कविताएँ उनसे बतियाती हैं, झगड़ा करती हैं और उन पर पक्षपात का आरोप लगाती हैं। 

इन कविताओं के विषय वैविध्य जीवन की विविध अवस्थाओं, मन की विविध स्थितियों पर आधारित हैं। समाज के बदलते घटना चक्र से अधिक अपने जीवन के बदलते रूप का वर्णन यहाँ मिलता है। 

इस संग्रह की अधिकांश रचनायें गीत है और आशा जी ने कई गीत अपनी मधुर आवाज़ में गा कर भी प्रस्तुत किये हैं। गीतों में प्राय: मात्राओं और छंद का ध्यान रखा गया है। कुछ कविताएँ अतुकान्त भी हैं पर सभी कविताओं में आंतरिक लयात्मकता है। इन कविताओं की भाषा भावानुरूप है जैसे लोकगीतों और भजन की भाषा में बोली का प्रयोग किया गया है और “फुर्सत” जैसे विषयों की भाषा आम बोलचाल की भाषा है, मन के भावों का वर्णन करते समय यह भाषा कोमल और मधुर हो जाती है और जीवन चिंतन करते समय गंभीर। अधिकांशत: परिमार्जित संस्कृतनिष्ठ भाषा है पर इन गीतों/कविताओं का सहज प्रवाह इन को बोधगम्य बनाता है। 

आजकल की कविता में प्राय: सहजता की कमी दिखाई देती है पर इस संग्रह के भावों की सहजता और भाषा की मधुरता पाठकों को प्रिय लगेगी, ऐसी मुझे आशा है। संग्रह के प्रकाशन पर आशा जी को बहुत-बहुत बधाई॥

डॉ. शैलजा सक्सेना
ओन्टेरियो, कैनेडा

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