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धीमे स्वर में गहराई से बोलती कहानी

कहानी: पगड़ी
लेखक: सुमन कुमार घई

 

आजकल प्रवासी हिन्दी साहित्य में कहानियाँ ख़ूब लिखी जा रही हैं और वे हिन्दी कहानी की मुख्य धारा के समांतर क़दम से क़दम मिलाकर चल भी रही हैं। ये कहानियाँ बदले हुए सामाजिक परिवेश में प्रवासी भारतीयों के जीवन के विभिन्न पहलुओं को उनके परिवर्तित सोच-संस्कार के साथ प्रस्तुत करती हैं। विदेश की धरती पर बसे हुए भारतीय मूल के लोगों की बदली हुई जीवन शैली, टूटते-बिखरते भारतीय संस्कार हमें चौंकाते नहीं; क्योंकि वही वहाँ का आम जीवन है और देश-काल की माँग भी यही है। यह सब पढ़ते हुए हम इस आधुनिक यथार्थ को सहजता से स्वीकारते चले जाते हैं। लेकिन एक सकारात्मक विस्मय तो तब होता है जब हम प्रवासी हिन्दी साहित्य के सुपरिचित कथाकार सुमन घई की कहानी 'पगड़ी' से रूबरू होते हैं। 

आधुनिक देहवादी सभ्यता को बहुत धीमे स्वर में, पर मुँहतोड़ जवाब देती है यह कहानी। विधुर हरभजन सिंह पाँच सालों से अपने एकाकीपन से जूझते हुए बेटा-बहू के साथ आदर्श पारिवारिक जीवन जी रहे हैं। किसीसे कोई शिकायत नहीं। अपने एकाकी जीवन के एकांत को स्वीकार कर लिया है उन्होंने। लेकिन एक दिन उनका इकलौता साथी ऐसी बात कहता है कि उनके मन में द्वंद्व जाग उठता है। वह उन्हें स्ट्रिपटीज़ में जाने की सलाह देता है जिसे सुनकर वे भड़क जाते हैं और नकार भी देते हैं। अपनी बुज़ुर्गी और अपनी इज़्ज़त-प्रतिष्ठा का ध्यान आ जाता है जो कि भारतीय सोच है जिसमें व्यक्ति अपने से अधिक परिवार-समाज, मान-मर्यादा, उम्र और रिश्ते-नातों का ख़्याल करते हुए जीता है। परिवार-समाज क्या कहेगा? मेरी क्या प्रतिष्ठा रह जाएगी? 

परंतु मन में प्रश्न उठने लगते हैं कि क्या उन्हें अपना जीवन अपने ढंग से जीने का अधिकार नहीं? क्या पत्नी की मृत्यु के बाद उन्हें ज़िन्दा लाश बन जाना चाहिए? 

काफ़ी ऊहापोह के बाद अंततः उनका कौतूहल उन्हें वहाँ खींच ही ले जाता है। अपनी आंतरिक आवाज़ को दबाते हुए वे वहाँ चले जाते हैं। दो नर्तकियों को शराब के नशे में निरावृत नाचते हुए देख भी लेते हैं। परंतु जब घोषणा होती है कि ताजमहल के देश की सुंदरी आ रही है तो वे काँप जाते हैं। जब तक गोरी सुंदरियाँ नाच रही थीं, तब तक वे उतने गंभीर नहीं थे। पर अपने देश की नवयौवना को इस तरह निर्वस्त्र होते देखना उन्हें स्वीकार्य नहीं हुआ। हज़ारों मील दूर होकर भी देश के प्रति आदर और अनुराग बाक़ी है। कहानी में नास्टेल्जिया का भाव भी छिपा बैठा है। 

हमारे देश में लड़कों को दूसरी स्त्रियों और लड़कियों को माँ-बहन समझने की बात घुट्टी में पिलाई जाती है। अपना देश छूटा तो छूटा, परंतु हरभजन सिंह इस मान्यता से मुक्त न हो सके थे। कौन हो सकती है यह? इस विचार के मन में आते ही अपनी पोती के वयस् की भारतीय नर्तकी को निर्वस्त्र होते देखने से पहले ही उनकी चेतना उन्हें स्ट्रिपटीज़ से बाहर खींच लाती है। उन्हें ज़मीन पर गिरने से बचाते हुए गार्ड उनकी हालत पर हँस भी देता है। इसी शारीरिक असंतुलन और बदहवासी में उनकी पगड़ी खुल जाती है। किन्तु घर जाने से पहले वे अपनी पगड़ी‌ को सँभालकर बाँध लेते हैं। गुरुद्वारे का बहाना बनाकर घर से निकले थे। अब स्थिर होकर सोचते हैं कि उनके लिए गुरुद्वारे जाना ज़रूरी हो गया है। 

प्रवासी होकर अपने भारतीय मूल्यों को बचाये रखना कठिन तो है, लेकिन विदेशी धरा पर अभी भी अपनी जड़ों, संस्कारों एवं मूल्यों से जुड़े हुए लोग हैं और उन्हीं के कारण भारतीय संस्कृति एवं भारतीय मूल्यों की रक्षा विदेशों में भी हो रही है। व्यक्तिगत कष्ट-दु:ख सहकर भी मनुष्य बहुत सारी ऐसी बातें अपने जीवन में अपनाये रखता है जिनसे उसे शारीरिक कष्ट भले ही होता हो, परंतु मानसिक सुख-संतोष की प्राप्ति होती है। 

हरभजन सिंह एक ऐसे ही व्यक्ति हैं जो अपने संस्कारों एवं मूल्यों पर पश्चिमी भोगवादी सभ्यता को हावी नहीं होने देते। तन है विदेश में, पर मन अभी भी आदर्शवादी सोच की दुनिया में जी रहा है। उन्हें शरीर का प्रदर्शन करने वाली नर्तकियों में भी बहू-बेटियों की छवि नज़र आती है। इस कहानी से गुज़रने के बाद एक सुखद आश्चर्य इस बात को देखकर होता है कि अजनबी देशों में भी जहाँ भारतीय मूल के लोग रह रहे हैं वहाँ प्रतिकूल परिवेश-समाज और विपरीत सोच-संस्कार के बीच भी एक छोटा-सा भारत अपने मूल रूप में साँस ले रहा है। 

कहानी का शीर्षक 'पगड़ी' भी बहुत उपयुक्त है जो भारतीय संस्कारों एवं मूल्यों का प्रतीक है। ऐसे भारतीयों की कमी नहीं जो अपनी धरती के मूल्यों को अपने शीश पर धारण किए हुए हवा के ख़िलाफ़ अन्य देशों की अजनबी ज़मीन पर चल रहे हैं। हरभजन जी की पगड़ी बिखरने को होती है, पर बिखरती नहीं। वे उसे सँभालकर बाँध लेते हैं। यह आधुनिक समाज के स्वास्थ के लिए बहुत शुभ संकेत है। 

कथा स्ट्रिप-बार से जुड़ी हुई है। फिर भी कथाकार बोल्ड दृश्यों को विस्तार देने के मोह से बचते हुए और कहानी को ऐसे अनावश्यक वर्णनों से यथासंभव बचाते हुए सही-सलामत कहानी को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने में सफल हो जाता है। 

वर्तमान प्रवासी कथा साहित्य के बीच यह कहानी अपनी एक अलग पहचान बनाती है। इसलिए नहीं कि कोई बहुत अनूठी-अनोखी कथावस्तु दिमाग़ भिड़ाकर रची गई है, जैसा कि यशलिप्सा के जुनून में आजकल हो रहा है; बल्कि इसलिए कि बहुत ‌‌ही सरल एवं सहज यथार्थ को भी महत्त्वपूर्ण समझते हुए कहानी का विषय बनाने का साहस कथाकार ने किया है। 

इस कहानी के लिए सुमन जी को बहुत-बहुत बधाई! 

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