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उलझा रिश्ता

शर्मा जी ने कार मेन सड़क से घरों की तरफ़ मोड़ी ही थी कि मिसेज़ शर्मा बोल उठीं, “सुनो, बड़े घर हैं—अच्छे लोग ही होंगे!”

मि. शर्मा चुप रहे, वह वैसे ही खिन्न मन से इस काम में शामिल हुए थे। अपने ख़्यालों में खोये हुए . . . वह अपने इकलौते बेटे को दोषी ठहरा रहे थे। सोच रहे थे, ‘बत्तीस से ऊपर का हो गया है . . . इस देश में पैदा होने के बाद भी अपने लिए कोई गर्ल-फ़्रेंड नहीं ढूँढ़ पाया। नालायक़! अब शादी के लिए भी हम लड़की खोजने निकले हैं।’ 

अलबत्ता मिसेज़ शर्मा को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। बल्कि वह तो ख़ुश थीं कि अपनी बहू वह अपनी पसंद की लायेंगी! कह तो देती थीं कि बेटे की पसंद-नापसंद को वह भली-भाँति समझती हैं, पर बेटे और शर्मा जी को मिसेज़ शर्मा की पसंद पर संदेह तो था ही। मिसेज़ शर्मा ने अपनी बात फिर दोहरायी, “सुनो, देखा घरों को?” 

“हाँ, हाँ देख रहा हूँ, तुम घरों के नंबर को देखो।”

मिसेज़ शर्मा को मि. शर्मा की आवाज़ में रूखेपन का आभास तो हुआ पर कोई प्रतिक्रिया देकर बात को बिगाड़ना नहीं चाहती थीं। घर में संतुलन बनाए रखने का दायित्व उन्हीं का था। बेटा एक पलड़े में तो पति दूसरे में। दोनों में अक़्सर टकराव होता रहता था। 

“बत्तीस का हो चुका है . . . लड़की ढूँढ़ रहे हैं हम,” शर्मा जी ने अपने मन की बात ज़ाहिर कर ही दी, “नालायक़, मुझे तो कभी यह प्रॉबल्म नहीं हुई। एक गर्लफ्रेंड छोड़ने से पहले दूसरी लाईन में रखता था।” 

उनके स्वर में मर्दानगी के गर्व की झलक थी। मिसेज़ शर्मा ने बाहर घरों का मुआइना जारी रखा। बहुत बार वह सुन चुकी थीं यह जुमला। अब पहले की तरह वह परेशान नहीं होती थीं। 

अंत में वह लड़की वालों यानी भारद्वाज दंपती के घर के सामने थे। बेटे से अनुमति मिलने के बाद मिसेज़ शर्मा ने उसके लिए वैवाहिक विज्ञापन दिया था। परिणाम स्वरूप भारद्वाज परिवार से मिलने का दिन और समय तय हुआ था। फ़ोन पर ही मिसेज़ भारद्वाज ने ताक़ीद कर दी थी कि ख़्याल रखें, अभी इस मीटिंग के बारे में लड़की को नहीं बताया है—इसलिए वह घर पर नहीं होगी। बाद में लड़के और लड़की के मिलने और बातचीत करने का भी तय होता रहेगा। 

मिसेज़ शर्मा ने फिर कहा, “सुनो जी! ड्राइवे में लैक्सेस खड़ी है। अच्छे लोग ही होंगे!” 
मि. शर्मा चिढ़ गए, “मैं भी तो मर्सेडीज़ चला रहा हूँ। हम बुरे हैं क्या? चलो उतरो!” ड्राइव-वे में पार्क करते हुए शर्मा जी ने कहा। 

मि. भारद्वाज उन्हें पोर्च पर ही मिल गये; शर्मा दंपत्ति को घंटी बजाने की आवश्यकता नहीं पड़ी। 

“आइये, आइये . . . स्वागत है,” कहते हुए मि. भारद्वाज ने हॉलवे का दरवाज़ा खोला। आरंभिक औपचारिक परिचय के बाद मि. भारद्वाज उन्हें लिविंग रूम में ले गये। 

“आप बैठिये, मिसेज़ अभी ज़रा किचन में बिज़ी हैं। आप बैठिये मैं देखता हूँ।”

मि. और मिसेज़ शर्मा सोफ़े पर बैठ गये। मि. शर्मा अभी भी अपनी खिन्नता को छिपाने का प्रयास कर रहे थे और मिसेज़ शर्मा लिविंग रूम के फ़र्नीचर और सजावट की क़ीमत आँक रही थीं। उन्होंने आँखें नचाते हुए अपने पति की ओर देखा—मानो मिसेज़ शर्मा लड़की देखने से पहले ही अपनी हामी ज़ाहिर कर दी। सब कुछ क़ीमती जो था। 

दो मिनट में मि. भारद्वाज लौट आए और सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोले,“बस एक मिनट . . . चाय ला रही हैं!” 

इतने में मिसेज़ भारद्वाज ट्रे में चाय-नाश्ता लेकर लिविंग रूम के दरवाज़े पर खड़ी थीं। मिसेज़ शर्मा ने उन्हें देखा, सुन्दर हैं . . . नैन-नक़्श भी तीखे हैं। लड़की भी सुंदर ही होगी। मिसेज़ शर्मा “हाँ“ कहने का मन बना चुकी थीं। 

दूसरी ओर मि. शर्मा के चेहरे पर पीलापन और मुर्दानगी छाने लगी थी। बाक़ी समय बातचीत मि. भारद्वाज और मिसेज़ शर्मा के बीच ही हुई। मिसेज़ भारद्वाज और शर्मा जी हाँ-हूँ करते रहे। बच्चों के ई-मेल एक्सचेंज की बात करके दोनों परिवारों ने आगे की ज़िम्मेवारी लड़का–लड़की पर छोड़ दी। 

ड्राईव-वे से कार रिवर्स करते-करते मिसेज़ शर्मा अपने आप को रोक नहीं पायीं। 

“मुझे तो सब ठीक ही लगता है—बस भगवान करे कि बात बन ही जाये!”

मि. शर्मा चुप्पी साधे रहे। बात-बात पर अपनी पुरानी प्रेमिकाओं की धौंस देने वाले शर्मा जी अब चिंता में खोये थे;  वह अपनी पत्नी को कैसे बतायें कि मिसेज़ भारद्वाज मि. शर्मा की पुरानी गर्लफ़्रेंड थी और दोनों की शादियों के बाद भी दोनों के सम्बन्ध कई सालों तक चलते रहे थे। 

इधर मिसेज़ शर्मा अपने पति की चुप्पी का कारण खोजने में लगी थीं और दूसरी तरफ़ शर्मा जी लड़की की उम्र का गणित लगा रहे थे कि लड़की भारद्वाज है या शर्मा! 

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