विवशता
लघुकथा | सुमन कुमार घईपैराग्रीन बाज़ों के जोड़े ने शहर के मध्य एक ऊँची इमारत की खिड़की के बाहर कंक्रीट की शेल्फ़ को अपने अंडे देने के लिए चुना था। पता नहीं प्रकृति की गोद की चट्टान की बजाय शहर की चट्टानी इमारत उन्हें अपने बच्चे पालने के लिए क्यों अच्छी लगी थी? शहर के समाचार पत्रों में सुर्ख़ियाँ थीं, जीव वैज्ञानिकों में हलचल थी और शहर के पहले से फूले हुए मेयर और भी कुप्पा हुए जा रहे थे। उन्होंने तो कनखियों से मुस्कराते हुए वक्तव्य भी दे डाला था, “अगर मैं जार्विस स्ट्रीट की साईकिल की लेन को ख़त्म करके कारों के लिए खोल रहा हूँ तो पर्यावरण प्रेमी क्यों शोर मचाते हैं कि शहर में प्रदूषण बढ़ेगा? देखो प्रकृति तो स्वयं हमारे शहर को चुन रही है।”
शहर में उनके समर्थक, सनसनीखेज समाचार पत्र ने तो सुर्ख़ी ही दे डाली थी, “ओंटेरियो में पैराग्रीन बाज़ों की संख्या का विस्फोट—पूरे प्रांत में दस से अधिक जोड़े देखे गए”।
जीव वैज्ञानिक सबसे अधिक संयत थे। वह पूरे आँकड़े जुटाना चाहते थे। उनके आदेशानुसार रात को उस इमारत की और आसपास की इमारतों की बत्तियाँ बंद की जाने लगीं ताकि बाज़ों को परेशानी न हो। लगा, बाज़ों के साथ शहर भी सोने और जागने लगा है। उस शेल्फ़ से ऊपर की मंज़िल की खिड़की में दूरबीन वाला कैमरा लगा दिया गया और एक वैज्ञानिकों की टीम उस पर तैनात हो गई; चौबीस घंटे अंडों और बाज़ों पर नज़र रखने के लिए। आँकड़े भरे जाने लगे कि कितने घंटे मादा बाज़ ने अंडे सेंके और कितनी बार बाज़ ने लौट कर शिकार मादा बाज़ को परोसा।
उस दिन लोग-बाग अपने कार्यालयों से घर लौट चुके थे। तैनात वैज्ञानिक को कैमरे के लैंस के कोने में एक आकृति दिखाई दी। उत्सुकता जागी तो उसने कैमरा घुमा कर आकृति पर फ़ोकस किया। आकृति साफ़ दिखाई देने लगी। मेट्रो ग्रोसरी स्टोर के सामने के कचरे के ढोल में से एक बेघर गर्भवती औरत सेब निकाल कर पोंछ रही थी। अपने पेट में पल रहे बच्चे को पलोसते हुए उसने सेब खाना शुरू किया। वैज्ञानिक झल्ला उठा—कितनी मूर्ख है; क्या नहीं जानती दूषित सेब से उसके पेट में पल रहे बच्चे को हानि पहुँच सकती है? क्यों नहीं वह ऐसी औरतों के शरण-गृह में चली जाती, जहाँ इसकी देख-भाल हो सकती है। फिर झल्लाते हुए उसने वापिस मादा बाज़ को देखना शुरू कर दिया। उसे पक्षियों कि विवशता का अध्ययन करना था कि उन्होंने शहर की चट्टानी इमारत पर अंडे देने क्यों पसंद किए? पर गंदा सेब खाने के लिए विवश गर्भवती औरत की छवि अभी उसके कैमरे के लैंस से नहीं हट पा रही थी।
इस विशेषांक में
कविता
- तुम्हारा प्यार आशा बर्मन | कविता
- आकांक्षा आशा बर्मन | कविता
- जागृति आशा बर्मन | कविता
- मेरा सर्वस्व आशा बर्मन | कविता
- नित – नव उदित सफ़र डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- इन्द्रधनुषी लहर डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता का दिल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- पिता डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- नया साल डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- बसन्त आया था डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- ये पत्ते डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- एक मुट्ठी संस्कृति डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- जीवंत आसमान की धरती का जादू डॉ. रेणुका शर्मा | कविता
- राह डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- मुस्कान डॉ. अंकिता बर्मन | कविता
- अग्नि के सात फेरे तरुण वासुदेवा | कविता
- माँ और स्वप्न तरुण वासुदेवा | कविता
- ये पैग़ाम देती रहेंगी हवायें निर्मल सिद्धू | कविता
- उम्र के तीन पड़ाव निर्मल सिद्धू | कविता
- वह पूनम कासलीवाल | कविता
- तुम कहाँ खो गए . . . प्राण पूनम कासलीवाल | कविता
- हर बार पूनम कासलीवाल | कविता
- आना-जाना पूनम कासलीवाल | कविता
- पिता हो तुम पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- माँ हिन्दी पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कैकयी तुम कुमाता नहीं हो पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कृष्ण संग खेलें फाग पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- साँवरी घटाएँ पहन कर जब भी आते हैं गिरधर पूनम चन्द्रा ’मनु’ | कविता
- कटघरा प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- आईना प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- मुलाक़ात प्रीति अग्रवाल 'अनुजा' | कविता
- पेड़ डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- माँ! मैं तुम सी न हो पाई! डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- चिड़िया का होना ज़रूरी है डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- मूड (Mood) डॉ. शैलजा सक्सेना | कविता
- गुरुदेव सीमा बागला | कविता
- मेरी बिटिया, मेरी मुनिया संदीप कुमार सिंह | कविता
- अधूरी रह गई संदीप कुमार सिंह | कविता
- चंदा, क्या तुम भी एकाकी हो? संदीप कुमार सिंह | कविता
- मैं नदी हूँ सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- लेखनी से संवाद सविता अग्रवाल ‘सवि’ | कविता
- हमारे पूर्वज सीमा बागला | कविता
- मेरा बचपन वाला ननिहाल सीमा बागला | कविता
- धारा ३७० सीमा बागला | कविता
- परिक्रमा सुरजीत | कविता
- तू मिलना ज़रूर सुरजीत | कविता
- प्रवास कृष्णा वर्मा | कविता
- वायरस डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लाईक ए डायमण्ड इन द स्काई डॉ. निर्मल जसवाल | कविता
- लिफ़ाफ़ा प्राची चतुर्वेदी रंधावा | कविता
- चार्ली हेब्दो को सलाम करते हुए धर्मपाल महेंद्र जैन | कविता
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