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कैनेडा की राजधानी ओटवा में हिंदी साहित्य की भूमिका

इस लेख में ओटवा के क्षेत्र में हिंदी भाषा और साहित्य की बाल्यावस्था से यौवन तक की यात्रा का वर्णन है। यह यात्रा सम्भवतः वर्ष 1971 में प्रारंभ हुई जब यहाँ हिंदी भाषा और साहित्य का बाल्यकाल था। आज वे दोनों अपने यौवन तक आ पहुँचे हैं। संयोगवश 1971 ही वर्ष था जब मैंने और मेरे परिवार ने भारत से विदा लेकर ओटवा को अपना घर बनाया, वह आज भी हमारा घर है। इन वर्षों में मैं एक दृष्टा और कर्ता के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य की यात्रा से संलग्न रहा। यह लेख उन्हीं वर्षों की स्मृतियों पर आधारित है। ओटवा के निवासी, मेरे तीन मित्रों ने इस लेख को पूर्ण करने में मेरा सहयोग दिया है। वे हैं श्रीमती रश्मि गुप्ता, श्री वीरेन्द्र कुमार भारती एवं श्री रणजीत देवगण। ये सब मित्र साहित्यकार, लेखक, और कवि होने के साथ साथ अनेक अन्य प्रतिभाओं के धनी हैं। 

ओटवा में हिंदी भाषी

कला, नृत्य, संगीत और साहित्य संस्कृति के दर्पण हैं। इनमें साहित्य का एक विशेष स्थान है। साहित्य का सृजन और विकास निर्भर है भाषा के संरक्षण पर, पालन और पोषण पर, उसके ज्ञान और उसकी शिक्षा के साधनों की उपलब्धि पर और यह होना तभी सम्भव है जब उस भाषा को उपयोग में लाने वाले, उस भाषा के प्रति प्रेम का भाव रखने वाले नागरिक यथेष्ट संख्या में हों। स्वाभाविक है कि ओटवा क्षेत्र में हिंदी भाषा का प्रसार और विकास हिंदी भाषियों की संख्या से जुड़ा है। 

कैनेडा में और ओटवा में 1960 से पहले भारत मूल के आप्रवासियों की संख्या नगण्य सी थी। एक गणना के अनुसार यह संख्या केवल 180 थी। 1970 और उसके आगे के वर्ष भारत मूल के आप्रवासियों के लिये अवसर-पूर्ण वर्ष थे। कैनेडा ने 1966 के वर्ष में अपनी आप्रवास की नीति में एक महत्त्वपूर्ण सुधार किया। इसके अनुसार आप्रवासियों का चयन उनकी योग्यता, उनकी सक्षमता, और उनकी शिक्षा के आधार पर किया जाने लगा। इस नीति ने भारत के होनहार, योग्य और शिक्षित व्यक्तियों के लिये स्वागत के द्वार खोल दिये। भारत मूल के आप्रवासियों में सतत वृद्धि होती गई साथ ही भारतीय संस्कृति भाषा और कला का प्रसार और विकास होता गया। 

वर्ष 2016 की जनगणना के अनुसार ओटवा गेटेन्यू जनगणना क्षेत्र में भारतीय व्यक्तियों की कुल जनसंख्या 27665 थी जिसमें 2875 ऐसे थे जिनकी मातृ भाषा हिंदी थी। तुलना के लिये 3850 व्यक्तियों की मातृ भाषा पंजाबी थी। सम्भवतः हिंदी बोलने वाले 2875 से अधिक होंगे क्योंकि 2875 के अंक में भारत के अतिरिक्त अन्य देशों से आये आप्रवासी जो हिंदी जानते हों सम्मिलित नहीं हैं। 

ओटवा में हिंदी भाषा की शिक्षा 

जैसा पहले उल्लेख किया गया, किसी भी भाषा का प्रसार और विकास बहुत कुछ उसकी शिक्षा के साधनों की उपलब्धि पर निर्भर है। ओटवा में हिंदी भाषा की प्राथमिक शिक्षा प्रदान करने का प्रथम प्रयास 1971 में किया गया। उस वर्ष भारत के उच्चायुक्त श्री अशोक बडकामकर की पत्नी श्रीमती मेघा बडकामकर की प्रेरणा से मुकुल हिंदी स्कूल की स्थापना हुई। चार महिलाओं ने स्वैच्छिक रूप से इस स्कूल में पढ़ाने का दायित्व सँभाला। वे थी श्रीमती इंदु मेहता, प्रेम श्रीवास्तव, सरिता जिंदल एवं मालती केसरवानी। 

मुकुल स्कूल की स्थापना के समय इसमें 10 छात्र थे आज लगभग 250 छात्र हैं। छात्र कक्षा के.जी. से 8 तक की शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त समय-समय पर मुकुल स्कूल माध्यमिक शिक्षा स्तर की कक्षा का भी आयोजन करता है। मुकुल के 50 वर्षों में बहुत वर्षों तक मुकुल से हमारा बहुत निकट का सम्बन्ध रहा है। श्रीमती यश हूमर ने लगभग 15 वर्ष तक मुकुल में अध्यापन किया इनमें से 10 वर्ष तक वे स्कूल की प्रधानाध्यापिका रहीं। समय समय पर मैंने मुकुल के लिये, विशेषतः छात्रों के लिये, कविताओं, गीतों और नाटकों की रचना की। छात्रों ने कुछ कविताओं और गीतों को स्कूल के उत्सवों पर सुनाया तथा कतिपय नाटकों का भी प्रदर्शन किया। इस लेख के अन्त में कुछ रचनाएँ प्रस्तुत हैं। 

इस वर्ष सितम्बर माह में मुकुल स्कूल ने अपनी पचासवीं वर्षगाँठ बड़े उत्साह के साथ कम्पयूटर के माध्यम से मनाई। इस अवसर पर प्रमुख अतिथि थे भारत के उच्चायुक्त श्री अजीत बिसरिया। इसके अतिरिक्त विशेष अतिथियों में थे भारतीय लोकसभा के सदस्य श्री महेश शर्मा, प्रख्यात हिंदी कवि श्री अशोक चक्रधर, और जाने हुए अभिनेता श्री पंकज त्रिपाठी। स्लाइड शो के माध्यम से भाग लेने वालों को मुकुल के 50 वर्ष के इतिहास की झलक मिली। मेरी कुछ कविताओं को सुनने का अवसर भी प्राप्त हुआ। 

ओटवा में हिंदी साहित्य का प्रचार प्रसार

सन्‌ 1971 से अब तक के वर्षों की अवधि में ओटवा में हिंदी साहित्य में एक अद्भुत जागृति आई है। विशेषतः कविता और नाटक के सृजनकर्ता देश विदेश में अपनी पहचान बनाने में सफल रहे हैं। यहाँ उन सबका विस्तृत परिचय देना संभव नहीं है पर उनमें तीन से इस लेख के माध्यम से आप मिलेंगे। कुछ अन्य की आपसे भेंट कराने के लिये मैंने इस लेख के अंत में ओटवा में आयोजित कुछ कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों का विवरण प्रस्तुत किया है। 

हिन्दी कविताओं, लेख, और नाटकों के सृजन में मेरी भी रुचि रही है। मेरी कुछ कवितायें 'जीवन के रंग' नामक पुस्तक में प्रस्तुत हैं, तो अन्य समय समय पर कैनेडा से प्रकाशित काव्य संकलनों में छपी हैं। इनमें विशेष हैं 'केनेडियन हिन्दी काव्य धारा', 'उत्तरी अमेरिका के हिन्दी साहित्यकार', 'कलम', 'रेनबो', 'काव्योत्पल', और 'सपनों का आकाश'। मेरी कविताएँ, लेख और नाटक कैनेडा से प्रकाशित पत्रिकाओं में, विशेषतः टोरोंटो से प्रकाशित 'हिंदी चेतना' में, समय समय पर छपते रहते हैं। 

साहित्य सृजन के क्षेत्र में मेरे सीमित योगदान की प्रशंसा कर कैनेडा के श्रोताओं ने मेरा उत्साह वर्धन किया है। मुझे कैनेडा के बहुत से प्रमुख शहरों में काव्य प्रस्तुति के लिये आमंत्रित किया गया है। इन शहरों में हैं टोरोंटो, ओटवा, वेन्कूवर, विनिपेग और एडमन्टन। इसके अतिरिक्त मेरे कविता पाठ अनेक बार एशियन टेलिविजन नेटवर्क और टेलिविजन एशिया नामक टीवी कार्यक्रमों से प्रसारित हुए हैं। 

मैंने और मेरे कुछ मित्रों ने मिलकर 1980 और 1990 की अवधि में 15 वर्ष तक एक त्रैमासिक अँग्रेज़ी और हिंदी की पत्रिका 'अंकुर' का प्रकाशन किया था। पत्रिका का उद्देश्य था भारतीय सामाजिक, सांस्कृतिक, एवं साहित्यिक विरासत से पाठकों का परिचय कराना। मैंने पत्रिका के संपादक का उत्तरदायित्व निभाया और श्री शिव चोपड़ा सह-सम्पादक थे। सम्पादक मंडल के अन्य सदस्य थे श्री शिबन रैना, श्रीमती निर्मला केम्पबेल, श्रीमती निर्मला चोपड़ा, और श्री विजय धावले। 

मेरे योगदान के लिये टोरोंटो के हिंदी राइटर्स गिल्ड ने अपने साहित्य सृजन पुरस्कार से सम्मानित कर मुझे अनुगृहीत किया है। 
मेरे लिये यह अत्यन्त गौरव की बात है कि वर्ष 2020 में जब कैनेडा ने राष्ट्र के सर्वोपरि सम्मान 'ऑर्डर ऑफ़ कैनेडा' से मुझे सम्मानित किया तो मेरी जिन उपलब्धियों और देश की सेवाओं को सम्मान का आधार माना उनमें हिंदी साहित्य के प्रति मेरे योगदान को भी सम्मिलित किया। 

ओटवा में अब कई ऐसी गतिविधियाँ हैं जिनके माध्यम से हिंदी साहित्य की गरिमा और उसके सौन्दर्य की झलक मिलती है। इनमें से कुछ के विषय आप आगे पढ़ सकते हैं। 

साहित्य के प्रति निष्ठावान

ओटवा के कई निवासी साहित्य और विशेषतः हिन्दी साहित्य को समर्पित रहे हैं। इनमें तीन नाम उभर कर आते हैं। श्रीमती रश्मि गुप्ता, श्री रणजीत देवगण, और श्री वीरेन्द्र भारती। इन्होंने एक लंबी अवधि तक साहित्य की अनवरत सेवा की है। वे स्वयं तो निपुण रचनाकार हैं ही, उन्होंने भाषा और साहित्य के प्रचार प्रसार में भी अनुपम और प्रशंसनीय योगदान दिया है। उनकी सेवाओं का विवरण उन्हीं के शब्दों में सुनिये। 

 

रश्मि रेखा गुप्ता

 

मेरा जन्म वाराणसी में हुआ। मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से भौतिकी में एमएससी प्राप्त की तथा शोध कार्य किया। इसके पश्चात बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय तथा कानपुर विद्या मंदिर कॉलेज में अध्यापन किया। ओटवा, कैनेडा में आने के बाद इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, और बिज़नेस मैनेजमेंट में एक सफल करियर का अनुसरण किया। 

साहित्य, संगीत और चित्रकला में मेरी विशेष रुचि रही है। 

वर्ष 2002 में मेरी कविताओं का प्रथम संकलन ’अविरल रश्मि’ प्रकाशित हुआ। अविरल रश्मि का द्वितीय संकलन तैयार है प्रकाशन के लिए I

मैंने अनेक हिंदी नाटकों में मुख्य पात्र का अभिनय किया है। ओटवा के ही स्वर्गीय मदन गोपाल जी के निर्देशन में और फिर श्री रणजीत देवगण के निर्देशन में इन नाटकों का मंचन हुआ। 

मुकुल हिंदी स्कूल की प्रबन्धक समिति में मैं सांस्कृतिक समन्वयक रही और फिर प्रधान भी। मुकुल के बच्चों के लिए नाटक लिखे और बच्चों को अभिनय के माध्यम से हिंदी बोलने के लिए प्रोत्साहित करती रही। इन नाटकों की रचना इस ध्येय से की थी कि बच्चों को हिंदी बोलने का अभ्यास हो और साथ ही प्राचीन भारत के गौरव का ज्ञान हो। ये नाटक थे 'अशोक की कलिंग विजय', 'कुबेर का घमंड', 'अकबर और बीरबल', 'मूर्तिकार का स्वप्न', 'धनुष भंग’, 'सीता विवाह', 'राम का अयोध्या लौटना' आदि। 

मेरी रचनाएँ 'हिंदी चेतना' में भी प्रकाशित होती रही हैं।


रणजीत देवगण

 

मैं सन्‌ 1986 में भारत की राजधानी दिल्ली से कैनेडा की राजधानी ओटवा में इमीग्रेशन ले कर पहुँचा। मैं तब बहुत उत्साहित था, यहाँ आकर अपने सपनों को साकार करना चाहता था। साथ ही अपनी संस्कृति और मातृभाषा से भी जुड़ा रहना चाहता था। दिल्ली में रहते हुए मैंने परफ़ॉर्मिंग आर्टस के क्षेत्र में कुछ कार्य किया था। वहाँ पर मैं हिंदी रेडियो, टेलीविज़न और थिएटर प्रोडक्शन से जुड़ा हुआ था। वैसा सभी कुछ मैं यहाँ भी करना चाहता था। 

हिंदी भाषा से मुझे बहुत लगाव रहा। समय-समय पर मैंने कविताओं और गीतों की रचना की है। इनमें चुनी हुई रचनाएँ 'प्रवासी बोल' नामक संकलन में सन्‌ 2008 में प्रकाशित हुई हैं। 

हिंदी के प्रति अपने आकर्षण से प्रेरित होकर मैंने 1995 में पहले हिंदी 'कवि दरबार' का आयोजन किया, जिसमें कुछ स्थानीय कवि ही भाग ले सके। फिर मैंने हिंदी भाषा के साथ-साथ दूसरी हिंदुस्तानी भाषाओं के कवियों और शायरों को भी शामिल करने के लिए 'चुप सोसाइटी' (केनेडियन हिंदी, उर्दू, पंजाबी सोसाइटी) का गठन किया जिसमें मेरे साथ थे तेजिंदर ढिल्लों, विश्वा मित्तर राशा और कुछ दूसरे स्थानीय कवि। और लोग शामिल होते गए कारवां बनता गया। पिछले 24-25 वर्षों से हम सब मिल जुल कर हिंदी, पंजाबी, और उर्दू के कवियों को आमंत्रित कर कवि दरबार का आयोजन कर रहें हैं जिसमें बहुत से प्रतिष्ठित कवि शामिल होते हैं। इनमें हैं हिंदी के कवि श्री जगमोहन हूमर, श्री वीरेन्द्र भारती, और श्रीमती रश्मि रेखा गुप्ता, उर्दू के शायर श्री वली आलम शाहीन, और श्री संतोष कामरा, और पंजाबी के कवि श्री अमरजीत साथी, तथा श्री मित्तर राशा। ओटवा के अतिरिक्त मोंट्रियाल और टोरोंटो के कवि भी शामिल होते हैं। 

स्थानीय रेडियो पर प्रसारित हिंदी नाटकों का निर्देशन भी मैंने किया है। इनमें कई स्थानीय कलाकारों ने भाग लिया, जिनमें प्रमुख हैं स्व. मदन गोपाल, डॉ. राम साही, डॉ. उषा साही, श्री गौतम शॉ, स्व. श्याम आहूजा, श्रीमती उषा आहूजा, श्री यश लाम्बा, श्रीमती सपना शैल आदि। पिछले 20-21 वर्षों से विभिन्न हिंदी रेडियो कार्यक्रम सतत रूप से प्रस्तुत कर रहा हूँ। 

हिंदी के सात आठ नाटकों का ओटवा में मंचन भी मैंने किया है। सभी नाटकों को दर्शकों का उत्साह पूर्ण स्वागत मिला। कुछ प्रमुख अभिनेता हैं जिनके सहयोग के बिना मेरे नाटक कभी मंचित ही नहीं हो सकते थे, उनमें हैं रश्मि गुप्ता, स्व. कमलेश गुप्ता, वीरेन्द्र भारती, सीमा कुदसिया, ग़ालिबखान, लीज़ा गोडबोले, गौतम शॉ, जयदीप सिंह, जगमोहन हूमर, संजोगिता भंडारी, रीटा अठवाल, कविता आदि। आज कल एक और हिंदी नाटक 'प्रेग्नेंट फादर', जिसे मुंबई की पुरस्कृत लेखिका विभा रानी ने लिखा है, के मंचन की तैयारी में जुटा हुआ हूँ। 

सन्‌ 1998 में प्रदर्शित एक हिंदी फ़ीचर टेली फ़िल्म 'ग्रैंडपा' का निर्माण और निर्देशन मैंने किया जिसमें स्व. श्री मदन गोपाल जी ने मुख्य भूमिका निभायी, सह मुख्य भूमिका में थे टोरोंटो के राकेश सूद। 

हिंदी भाषा और साहित्य के प्रति समर्पण की मेरी यही कहानी है। 

डॉ. कुमार भारती

बचपन और शिक्षा: 

मेरा जन्म भारत के संत कबीर नगर ज़िले के एक गाँव हैंसर बाज़ार में हुआ। पिता गोरखपुर ज़िले के गोला बाज़ार नामक क़स्बे में अध्यापक रहे और मैंने वहीं अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण की। उच्च शिक्षा क्रमशः पंतनगर विश्व विद्यालय, नैनीताल, भारत, और कार्लटन विश्व विद्यालय, ओटवा, कैनेडा से प्राप्त की। मैंने पंतनगर विश्व विद्यालय, और ओटवा विश्व विद्यालय (मेडिसिन विभाग), कैनेडा में शोध एवं अध्यापन भी किया। मेरे क़रीब पचास (50) से ज़्यादा शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त कैंसर विषय पर एक पुस्तक यूरोप और अमेरिका से प्रकाशित हो चुकी है। 

आजकल:

मैं पिछले लगभग २३ वर्षों से ओटवा में रह रहा हूँ। गत वर्ष काफ़ी कम उम्र में गवर्नमेंट से प्री-रिटायरमेंट लेकर स्वयं के व्यवसाय पर पूर्णकालिक कार्य शुरू किया है। मेरी कंपनी स्वास्थ्य और फ़ूड सेक्टर में काम करती है। कंपनी में १०० से ज़्यादा लोग काम करते हैं। मैं योग गुरु, शिक्षक, और विशेषज्ञ हूँ तथा कई सामाजिक संगठनों में भी सक्रिय हूँ। मेरी कवितायें और लेख (हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों में) विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। साथ ही कैनेडा के पत्रों में योग, ध्यान, आयुर्वेद तथा उसके विभिन्न आयामों के बारे में सतत लिखता रहता हूँ। 

साहित्य सेवा एवं रंगमंच:

मेरे दो कविता संग्रह 'अपराजेय' एवं 'ओम्नीपोटेन्ट' प्रकाशित हो चुके हैं। इन दिनों एक अँग्रेज़ी उपन्यास, योग पुस्तक, तथा कहानी और कविता संग्रह पर काम कर रहा हूँ। मैं हिंदी मंच नामक संस्था से जुड़ा हूँ। संस्था के दो वार्षिक कार्यक्रम मेरे संचालन में ओटवा के कवियों के सहयोग से सतत, सुचारु रूप से सफलता पूर्वक चल रहे हैं। डॉ. हूमर, श्रीमती रश्मि गुप्ता, और श्री रणजीत देवगण का इन आयोजनों में सहयोग सराहनीय है। 

मैं रंगमंच पर काफ़ी सक्रिय हूँ और मैंने कई नाटकों में सफलता पूर्वक काम किया है। 'मिस मौसी', 'झूठा गवाह' तथा 'दूसरा आदमी और दूसरी औरत' नामक मंचन काफ़ी चर्चा में रहे। 

 काव्य धारा

ओटवा में पिछले तीन दशक में समय-समय पर कवि गोष्ठियों का, कवि सम्मेलनों का आयोजन होता रहा है। इनमें भाग लेते हैं स्थानीय कवि, और कभी-कभी अतिथि कवि। प्रायः इनके संचालन का सौभाग्य मुझे मिला है। इनमें से एक-दो का विवरण यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। इस प्रस्तुति में मेरा प्रमुख तात्पर्य है आपका हमारे स्थानीय कवियों से परिचय कराना साथ ही यह बताना कि ओटवा में हिंदी साहित्य जीवंत है। इस विवरण को आकर्षक बनाने के लिये मैंने स्वयं की और मेरे कवि मित्रों की रचनाओं से सँजोये उद्धरणों का सहारा लिया है। समय के लंबे अंतराल के कारण मैं उद्धरणों के सर्जकों की पहचान नहीं करा सका हूँ इसके लिये मैं उनका क्षमाप्रार्थी हूँ। 

सिसकती संस्कृतियाँ

मार्च 2008

यह सम्मेलन हमारे अतिथि श्रीनाथ द्विवेदी जी के स्वागत में आयोजित किया है। श्रीनाथ जी वेनकूवर के निवासी हैं। ये एक अग्रणी साहित्यकार हैं, अनेक विधाओं में रचना करते हैं–गीत, गज़ल, कविता, नाटक, और संस्मरण के सृजनकर्ता हैं। आपकी कविताओं के कई संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें प्रमुख हैं 'मुट्ठी भर रोशनी', 'यश संतूर', और 'हमसफर परछाइयाँ'। 

मैं सोचता रहा आज के इस आयोजन का प्रसंग क्या हो। आजकल की ज़िन्दगी और पतनशील सामाजिक स्थिति को देख मन में एक पीड़ा उठना स्वाभाविक है। मन में विचार आया कि क्यों न श्रीनाथ जी की एक रचना के शीर्षक से प्रेरणा ले कर आज के प्रसंग को शीर्षक दें सिसकती संस्कृतियाँ। यह परिभाषा यथार्थ है, हमारी संस्कृति उत्पीड़ित है, दर्द के बोझ से कुंठित है। पर इस दुख से या तो हार मान सकते हैं, उदासीन हो सकते हैं, या अराजकता, अनैतिकता, हिंसा के आवरण को हटाकर, किसी सौंदर्य और शान्ति को खोज कर उसे अनवरत करने की, उभारने की चेष्टा। 

इस सिसकती संस्कृतियों की इस रूपरेखा में हम अपने कवि मित्रों की कुछ रचनाएँ देखें। 

प्रतिष्ठित कवयित्री श्रीमती अरुणा गुप्ता की कविताओं में पीड़ा की अभिव्यक्ति, पतनशील संस्कृति के बोझ तले दबे मानव के दर्द की पहचान, उसके घावों पर मरहम लगाने की कामना रहती है, एक झलक देखें:

ये पीड़ाएँ, ये दुःख, ये त्रास
बन गये सभी मेरी कविता के अनुप्रास
जब भी आती है, आती है अनायास
सहज-सहज बिना अभ्यास
जैसे हो मेरी कविता, किसी दीन दुखी की प्यास।
 

दूसरे कवि हैं-श्री यश लांबा, जिनकी कविताओं में फिसलती हुई मानव सभ्यता के प्रति दर्द है। 

इनसानियत की ख़ुदकुशी पर
चाँद यों बोला तड़प कर
इस जहाँ को तूने ऐसा
क्यों बनाया तूने मालिक। 

ओटवा की एक और प्रतिष्ठित कवयित्री हैं: श्रीमती सुदर्शन सहगल, उनके भावों और कविता में एक पवित्रता है, साधना और पूजा के प्रति समर्पण है। आज मानवता का अवमूल्यन हो रहा है, संबंधों में तनाव है, टकराव है, मानव अपना अस्तित्व खोकर लूट पाट, मार काट में डूब रहा है। आज आवश्यकता है मानव गुणों को जागृत करने की, दया, सेवा, परोपकार, मैत्री, सद्भावना को सींचने की:

कवि से अपेक्षित है
सिंह के सद्रश्य वीर
हँस सा विवेकी
लाल जैसा मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरने वाला
साधु जैसा अपरिग्रही, सब का अप्रतिबद्ध। 

माना यह युग कबीर, मीरा, तुलसी, सूर का नहीं
पर आज भी कविता में
पूजा के स्वर गूँजते हैं
प्रेम के राग उभरते हैं
साधना की सज्जा होती है
और होती है भक्त की प्रेरणा। 

श्री सरिता अग्रवाल की कविताओं में भी संस्कृति के ह्रास की पीड़ा है जिस पर वे अपनी कविता के मिठास का मरहम लगाने की कामना करती हैं। 

आज कोई मेरा ये
सपना सच कर जाता
आज कोई मेरी साँसों को सुरभित कर जाता
आज कोई मेरी करुणा के तार बजाता
मेरी कविता के प्राणों में
मधुमय सुख भर जाता
पीड़ित जग के छालों पर
चन्दन सा लेप लगाता। 

मानव संस्कृति को साहित्य की एक बहुत बड़ी देन है हास्य और व्यंग्य। सरल, वैमनस्य रहित हास्य जीवन की विषमताओं को हटा कर उसमें एक माधुर्य भर सकता है, पतन से जनित उदासीनता को उत्साह में बदल सकता है। 

बहुत पुरानी बात है ये
जब प्राण बचाने प्रियवर के
एक कामिनी ने अपने सारे
थे केश निछावर कर डाले। 
बलिदान देख जनता ने तब
नभ के इक जगमग तारे को
था नाम दिया उस कामिनी का। 
पर अपना युग है कुछ विचित्र
इतनी बालाएँ आज यहाँ
जो अपने केश बचाने को
बलि दे दें प्रियतम की हँसकर। 
हैं कहाँ रहे इतने तारे
दें नाम जिन्हें उन बालाओं का। 

श्रीमती स्वप्ना शैल की कविताओं में मिलता है अत्याचार का विरोध, दुर्विचार और दुष्कर्मों के विरुद्ध बग़ावत। इनकी कविताओं में है एक आक्रोश नारी के प्रति हुए अत्याचार पर, और है समाज की कुरीतियों को चुनौती देने की आतुरता। 

आजकल मेरे मन में 
तड़पती चीखों की अनुगूँज
हा हा करती
मन के सन्नाटे को तोड़ती
मेरी रातों की नींद उड़ाकर
मुझे व्याकुल अनाकुल बनाती
कुछ कहना चाहती है। 
तोड़ देना चाहती है यह कवच
जो मेरी भावनाओं के ज्वार को
व्यक्त नहीं होने देता। 

श्रीनाथ प्रसाद द्विवेदी जी की कविता के कई रूप हैं। उनके मन में एक ज्वार है, संस्कृति की वितृष्णा को तोड़ कर बिखेर देने का। उन्हीं के शब्दों में:

वाणी भाव विचार सभी सम
प्रेम अहिंसा हृदयों का क्रम
स्नेहाच्छादित धरती अम्बर
सुख शान्ति के गीत दिगम्बर
दुख दारिद्र्य मिटा, चलता जा रे। 

अधरों में षड्यंत्रों का स्वर
धर्म रंग का बढ़ता है ज्वर
घृणा द्वेष का हो जल प्लावन
स्वार्थ भाव का उमगा सावन
अर्थ वर्ग का भेद मिटा, बढ़ता जारे। 

प्रेम एक अमृत है जो बीमार संस्कृति को स्वस्थ बना सकता है। श्रीमती रश्मि गुप्ता की कविताओं में प्रेम का ही माधुर्य है। प्रेम के सम्बन्धों की अभिव्यक्ति का एक ऐसा मिठास है जो हृदय को छू जाता है। वह प्रेम चाहे प्रभु के लिये हो मातृभूमि के लिये या प्रियतम के लिये। उन्हीं के शब्दों में:

कल्पना के मधुर
जीवन्त प्यार के वितान तानकर
दूर मेघ का वह युवा खंड
ज्यों धरती पयोधर
क्षितिज की ओर झुक रहा है    । 
बस वैसे ही तुमसे आत्मसात होने की चाह
हृदय को लगाये
ये जोगन तुम्हारी
देर से तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है। 

श्री वली आलम शाहीन को मैं साहित्य के आसमान का आफ़ताब कहता हूँ। इनकी रचनाएँ, नज़्में, और ग़ज़लें सूरज की किरणों की तरह हैं जो सारी धरती पर फैलती हैं और फिर उस धरती की हो जाती हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि उनकी शायरी कई उच्च विद्यालयों के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित है और शोध का विषय है। शायर की मिसाल एक बाग़बान से दे सकते हैं:

कवि तो वह माली है
जिसने उपवन में फूल खिलाये
ना मालिक है वह उन फूलों का
उनके सौरभ उनकी छबि का
वो सब तो बस उसके हैं
जिसने परखा जिसने चाहा 
जो हँसा फूल जब मुस्कराये। 

मन में एक विचार उठता हैः ईश्वर और कविता किसी एक की धरोहर नहीं, किसी एक से प्रतिबद्ध नहीं, वे सब के 

हैं, समान रूप से। 
मेरे ईश
तू किसी का ब्रह्म 
किसी का राम
किसी का अल्लाह है
सब हैं अपने-अपने राम अल्लाह से प्रतिबद्ध

किन्तु तू यदि सब का है
तो किसी से प्रतिबद्ध कैसे
यदि किसी से प्रतिबद्ध है
तो सब के लिये तेरी सार्थकता क्या है। 

कठिनाई यह है कि ईश्वर को हमने अपनी पूँजी बना लिया है, अपनी सम्पत्ति बना लिया है जिसे हम दूसरों से बाँट नहीं सकते। इसी भावना ने विकारों को, द्वन्द्व को जन्म दिया है। इसलिये मैंने ’सहस्त्रनाम’ रचना में व्यंग्य लिखा और राम और दाम की तुलना की। 

अनुभूतियाँ

कविता जीवन का दर्पण है। उसमें जीवन की विभिन्न अनुभूतियाँ प्रतिबिम्बित होती हैः उल्लास, प्रेम, अनुराग, मन के उद्गार, हृदय की पीड़ा। प्रस्तुत हैं इनमें से कुछ अनुभूतियों का चित्रण। 

म और न की कहानी
जगमोहन हूमर

मुकुल हिंदी स्कूल के छात्रों को समर्पित

जो बात आज मैं कहता हूँ
वो बहुत पुरानी बात नहीं
दुर्गत भाषा की देख देख
हिंदी वर्णों की आँख बही। 

भाषा की खिचड़ी ख़ूब पकी
बंगाल प्रांत से बंबई तक
अपभ्रंश हुए सब शब्द वाक्य
उत्तर प्रदेश से दक्षिण तक। 

बँगला बाबू जल को खाते
बंबइआ वाणी अति विचित्र
ख़ाली पीली है बूम मची
सुन व्यर्थ शोर को कहें मित्र। 

प्रांगण में पंत निराला के
सब आज शोर को कहें सोर
शशि का उच्चारण ससि करते
कहना निश्चित था कहें स्योर। 

मिल बैठक की सब वर्णों ने
प्रस्ताव एक फिर पास किया
कर एक समिति का निर्वाचन
भाषा का संरक्षण भार दिया

‘म’ और ‘न’ को सब वर्णों ने
संचालक का तब काम दिया
दोनों नेता अत्यन्त कुशल
सब काम हाथ में थाम लिया। 

पर पहले पद का अधिकारी
उन दोनों में से कौन बने
मैं अनुक्रम में तुझसे ज़्यादा
‘म’ ने तब ऐसे वचन कहे

कुछ रोश लिये तब ‘न’ बोला
है मान तेरा कितना ऊँचा
मैं जहाँ नम्र, मगरूर है तू
कर ले तू मस्तक कुछ नीचा। 

है नष्टबुद्धि, तू है निढाल
मैं महापुरुष, मैं महाप्राण
तू नीरस और निरर्थक है
मैं मनभावन, मैं मूल्यवान। 

है मंदबुद्धि, है मूर्ख मूढ़
मैं निपुण, निरामय, नीतिवान
मक्कार, मतलबी तू जो है
निष्कपट, नवल मैं निर्विकार। 

तू निर्दय, निष्ठुर, निंदनीय
मैं मृत्यंजय, तू नाशवान
मैं मृदुल, मनोरम, मंगलमय
तू है नगण्य, मैं हूँ महान। 

मुट्ठी भर माटी को पाकर
तू समझा खुदको मालदार
मैं नामी और निराला हूँ
नव रत्नों सा मेरा निखार। 

निस्तेज, निखट्टू, निर्मम तू
तू एक नम्बरी नीच नाम
मैं हूँ मनोज, मैं माहिर हूँ
मर्मज्ञ ज्ञान मैं मूर्तिमान। 

मैं नारायण हूँ, तू है मलेच्छ
मैं नायक हूँ, तू मंदभाग्य
तू मरुथल की मृग तृष्णा है
मैं नील गगन सा हूँ विशाल। 

जो मैं मनुष्य तो तू नृशंस
मैं माननीय, तू निन्दित है
मुझमें मधु है, मुझमें मिठास
तू नाग नशे से पूरित है। 

तब सभी दिशायें गूँज उठी
‘म’ ‘न’ का लेकर के विवाद
‘व’ के कानों तक तब पहुँचा
उन शब्दों का बढ़ता निनाद। 

‘व’ था सब वर्णों में विशिष्ट
वह था विवेक मय, विनय वान
विशुद्ध, विमल उसके विचार 
मन वारिधि सम वंदित, विशाल। 

मन ‘व’ का तब विक्षुब्ध हुआ
‘म’ ‘न’ का सुन कर वह विवाद
क्यों लड़ते तुम अविवेकी से
हो मतवाले या नशे मान। 

म’ लीला ले ‘न’ से मिलता
तब तब मलीन हो जाता है
‘म’ हास लिये ‘न’ से मिलता
तो वो महान हो जाता है। 

‘न’ ने ‘म’ से जब जोड़ किया
तो बना नम्र और नाम मिला
और ‘न’ की गति ‘म’ से जो मिली
नगमें उभरे सन्मान मिला। 

ना एक वर्ण से काम चले
शब्दों का गठन कराना जो
आवश्यक वर्णों की सन्धि
भाषा का कोश बढ़ाना जो। 

सामंजस्य होगा वर्णों का
स्वर से व्यंजन मिल जायेंगे
भाषा की वृद्धि तब होगी
जब मनमुटाव मिट जायेंगे। 

छोड़ो मतिभ्रम तुम मित्र बनो
सहयोग मार्ग अपनाओ तुम
निर्वाचन जिसके लिये हुआ
उस लक्ष्य सफलता पाओ तुम। 

एक स्वप्न एक आकांक्षा

जगमोहन हूमर

मैंने कल रात स्वप्न देखा था आँख जो मेरी खुली एक स्वप्न टूट गया। 
सोचा उजला प्रभात आयेगा होगी प्राची में रंग की होली
ले के आँचल में प्रेम की पाती सूर्य किरणें रचेंगी रँगोली। 
बहकी बहकी सी गगन में बदली एक रश्मि ने उसको छू जो लिया
जैसे अधरों पे खिंची स्मित रेखा या कि लाली ने मुख को सींच दिया। 
गगन के छोर पे लज्जा के थम गयी बदली जैसे प्रिय ने अधर को चूम लिया। मैंने. . . 

सोचा खेतों में फ़सल झूमेगी नन्हे कोपल भी मुस्करायेंगे
छलकते झरनों का संगीत मधुर झूमेगा वन में पक्षी भी गान गायेंगे। 
यहाँ से दूर तक धरती की सब दिशाओं में महकी-महकी बहार छाई है
भीगे आँचल में एक प्रियतम का कोई संदेश ले के आई है। 
विहँसते झूमते मदमाते हुए फूलों का जैसे सौरभ हवा ने लूट लिया। मैंने. . . 

घर के आँगन में बाल खेलेंगे साथ खेलेंगे सारे हमजोली
नैन विह्वल हैं आज जननी के उसकी ममता से भर गयी झोली। 
घर की दहलीज़ पे कोई बाला अपने प्रियतम की बाट जोती है
आज प्रिय से मिलन की आशा में चित्र कितने मधुर संजोती है। 
नैन जननी के हों या सजनी के प्यार सृष्टि का सब समेट लिया। मैंने. . . 

स्वप्न था सत्य भला क्या होता रात बीती तो साथ बीत गया
है शेष कल्पना रही केवल एक धुँधला सा ज्यों अतीत गया। 
सुबह हुई थी किन्तु प्राची में ना तो लाली थी ना उजाला था
सूर्य किरणें उदास ओझल थी धुंध थी और घना कुहासा था। 
स्तब्ध सारी दिशायें मौन थी जैसे प्रारब्ध ने डरा हो दिया। मैंने. . . 

मैंने देखा मनुष्य दानव बन आज हिंसा का नृत्य करता है
अस्त्र कितने कुटिल जुटा करके अपने पौरुष का दंभ भरता है। 
धर्म की ओट में अधर्म पला द्वंद्व की अग्नियां सुलगती हैं
देश और जाति के विवादों में जाने कितनी चितायें जलती हैं। 
क्रोध ने सोच को किया कुंठित द्वेष ने है हृदय को घेर लिया। मैंने. . . 

मैंने देखा अबोध बालक गण खेल सकते जो खिलोनों से
वे थाम अस्त्र रण की भूमि पर जूझते हैं प्रलय के शोलों से। 
उनका आँगन है रक्त से सिंचित बीज प्रतिशोध के पनपते हैं
छोड़ ममता की पुण्य गाथा को पाठ हिंसा का आज पढ़ते हैं। 
इतने अश्रु बहे हैं नैनों से माँ की आँखों का नीर सूख गया। मैंने. . . 

लगता मानव ने किया है निश्चित अपना अस्तित्व ही मिटा देगा
अपने हाथों से अपनी सृष्टि को क्रोध की अग्नि में जला देगा। 
मैंने पर हार नहीं मानी है एक सपना मधुर संजोया है
पुण्य की पाप पर विजय होगी ऐसा विश्वास नहीं खोया है। 
मैं तो ये आस लिये बैठा हूँ कभी तो आयेगा प्रभात नया। मैंने. . . 

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