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एक मुट्ठी संस्कृति

ये एक कारवाँ 
है एक अनवरत सिलसिला। 
जो बाँध अपने साथ अपने शहर, 
गली की यादों को 
मन में एक उल्लास, हर्ष, 
और थोड़ी सी लिए कसक 
निकला है कोई, फिर घर से। 
 
सहेज कर लाई 
मुट्ठी भर अपनी संस्कृति, 
विदेश की धरती पर दिल और मुट्ठी दोनों, 
खोलकर दी बिखेर। 
सारी आशाएँ, सारे ख़्वाब, मोतियों की तरह, 
बिखेर क्या दिए, नहीं . . .
रोप दिए इस नई मिट्टी में, अपनी मेहनत के रंग से। 
छोटे–छोटे अपने तम्बू से ताने, 
सुनहरे अंकुरित बीजों के पौधों में 
उग आए एक नई संस्कृति के सतरंगी फूल। 
इन फूलों की ख़ुश्बू महकाने, 
निकला है कोई फिर घर से। 
 
सालों, दशकों बाद आज वही 
एक-एक मुट्ठी संस्कृति, भारत से बाहर 
हर राज्य की छटा बिखेर–निखर, 
फल–फूल रही अपने पूरे कलेवर में। 
विदेशी आकर्षण और 
अपनी संस्कृति की जीवन्तता में 
उपजाने एक नई संस्कृति, 
निकला है कोई फिर घर से। 
 
अपनी संस्कृति को सुरक्षित, विकसित कर
आने वाली पीढ़ी को जोड़े रखना अपने मूल से। 
नहीं है आसान। 
नई पीढ़ी के लिए है यह चुनौती और भी ज़्यादा 
कि अपनी जड़ों से जुड़े रहें। 
फिर भी, आधुनिक युग की माँग के साथ 
कराने सामंजस्य, 
निकला है कोई फिर घर से। 
नए–पुराने सभी लोगों के लिए
‘घर से दूर एक घर’ की 
परिकल्पना का एहसास कराने के लिए 
निकला है कोई फिर घर से। 

ये एक कारवाँ 
है एक अनवरत सिलसिला। 
जो बाँध अपने साथ अपने शहर, 
गली की यादों को 
मन में एक उल्लास, हर्ष, 
और थोड़ी सी लिए कसक 
निकला है कोई, फिर घर से 

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