अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित
पीछे जाएं

एक खेल अटकलों का

वह रोज़ सुबह काम पर जाती थी। कभी आठ बजे तो कभी आठ बजकर पाँच मिनट पर। शाम चार से सवा चार बजे के बीच बिल्डिंग में उसकी वापसी हो ही जाती थी। समय की इतनी पाबंद कि चाहो तो उसके आने-जाने से अपनी घड़ी का समय मिला लो। सुबह-सवेरे टिक-टिक करता घड़ी का काँटा इधर आठ के आसपास पहुँचा नहीं कि उधर घड़ी के काँटों से क़दम मिलाती उसकी हड़बड़ाती चाल पट-पट करती दरवाज़े से बाहर। पिछले दस सालों से यही है उसकी दिनचर्या। उसकी ढलती उम्र को देखकर तो लगता है जैसे रिटायर हुए दस-पंद्रह साल तो हो ही गए होंगे, लेकिन नहीं वह काम कर रही है अभी, बेहद चुस्ती से, पाबंदी से कर रही है। जिस तरह से वह दरवाज़े से बाहर निकलती है लगता है एक पल की भी देर हो गयी तो उसे उसके काम वालों द्वारा फाँसी पर लटका दिया जाएगा। 

बिल्डिंग की सिक्योरिटी डेस्क पर बैठे हुए पश्तो सोचता रहता था कि बड़ी खुशकिस्मत है यह। इस उम्र में भी इस महिला के पास काम है जबकि ख़ुद उसे कई बार अपनी नौकरी जाने का डर बना रहता है। सुबह के फ़ुरसती समय में और कुछ ख़ास काम नहीं होता तो बस आने-जाने वालों को देखकर अच्छा लगता कि इतने सारे लोग काम पर जाते हैं। सभी लोग अच्छी तरह तैयार होकर जाते हैं। इसका मतलब यह कि सबके पास काम है और अच्छा काम है। हर एक को देखकर वह अनुमान लगाता कि यह क्या काम करता होगा। लोगों के व्यक्तित्व को देखकर अटकलें लगाने में उसका समय अच्छी तरह निकल जाता। कई बार जब पता लगता कि उसने जो कुछ सोचा था, जो भी अनुमान लगाया था वह सब सच निकला तो उसे अपने ऊपर भी नाज़ होता और अपनी अटकलों पर भी। एक ख़ास मुस्कान के साथ इस खेल को खेलते रहने का उसका विश्वास दोगुना हो जाता। 

कई बार ग़ुस्सा भी आता कि दूसरों के काम के अनुमान तो सही लगा लेता है वह पर स्वयं डिग्री पर डिग्री लिये बैठा है इस इमारत की सिक्योरिटी डेस्क पर। क्या उसके बारे में इनमें से कोई यह नहीं सोचता होगा कि“इतना क़ाबिल लड़का यहाँ काम क्यों कर रहा है! शायद इसे अच्छा काम नहीं मिला होगा इसीलिये इस योग्य दिमाग़ को यहाँ बैठे-बैठे ऐसे फ़ालतू काम करने पड़ रहे हैं।” और वही क्यों, उसके जैसे कई नौजवान हैं जो उम्र के इस दौर में अपनी आजीविका को लेकर असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हैं। बेरोज़गारी यहाँ-वहाँ हर जगह किसी रोग की तरह फैली हुई है। युवा लोग भटकते रहते हैं काम की तलाश में मगर किसी को मिलता है डिप्रेशन तो किसी को मिलता है बेरोज़गारी भत्ता। 

ज़माने के इस दौर में इस महिला को देखकर सुकून मिलता है कि कैसे उम्र की सीमाओं से परे इसमें काम का इतना उत्साह है कि जिजीविषा के मायने ही बदल दिए हैं इसने। अभी तक कौन काम देता होगा इसे और क्या काम देता होगा। यह सब जानने की उत्सुकता रहती पश्तो को मगर वह कभी उसकी डेस्क तक नहीं आती, दूर से हाय-हलो के साथ हाथ हिला कर निकल जाती। न कभी उसका कोई पार्सल आता कि वह अपने पार्सल को लेने आए और इस बहाने कुछ शब्दों का आदान-प्रदान हो जाए। बग़ैर किसी शिकायत के अपने काम से काम रखने वाले बिल्डिंग के सुसभ्य रहवासियों में से एक थी वह। 

पश्तो का काम ही ऐसा था कि इमारत में रहने वालों के नाम-पतों का लेखा-जोखा उसके पास लिखित-अलिखित, मौखिक-अमौखिक होता ही था बस काम के बारे में कुछ पता नहीं चलता था। उसके जैसा नवयुवक काम के लिये इस डेस्क पर घंटों ख़ाली बैठता तो दिमाग़ की गतिविधि बढ़ाने के लिये इससे अच्छा कोई काम नहीं होता कि हर एक आने वाले के लिये और जाने वाले के लिये उसकी अपनी सोच हो जो हक़ीक़त से अनजान हो। कई लोगों को उसने अपने नाम दिए हुए थे जैसे एक अस्सी साल का बूढ़ा बाबा जो बग़ैर दाँतों के उससे बात करता था उसे वह ‘बत्तीसी’ कहता था। एक लड़की बड़ी अदाओं से आकर उससे अपने पार्सल माँगती थी–“एक्सक्यूज़ मी . . . आपने मेरा पैकेज रिसीव किया होगा।” उसे वह ‘नौटंकी’ कहा करता था। इतराती-इठलाती उसकी ज़बान शब्दों को पैकेज की तरह इस तरह से डिलीवर करती कि बस वे अदाएँ उसके मनोमस्तिष्क पर उस पैकेज को खोलतीं बहुत देर तक छायी रहतीं। एक ईरानी महिला जो डेस्क के क़रीब आती तो उसके परफ़्यूम की तेज़ महक से पश्तो को लगता जैसे वह बाल्टी भर कर परफ़्यूम उँडेल कर आयी हो। उसे वह ‘अगरबत्ती’ कहता था। दिमाग़ी दौड़ की तेज गति कई क़यास लगाती। इतनी ख़ुश्बू अपने साथ ले कर चलने वालों की ख़ुद अपनी नाक बड़ी संवेदनशील हो जाती होगी। हवा की किसी भी गंध से अनभिज्ञ, अपने ही ख़ुश्बूमयी संसार में लिप्त। 

ख़ुश्बू और बदबू के साथ याद आता वह एक अधेड़ व्यक्ति जिसे आते देख वह मन ही मन बुदबुदाता ‘खड़ूस’, जो सप्ताह में चार बार आकर किसी न किसी बात की शिकायत करता। कभी कचरे के डिब्बों की दिनभर हवा में बदबू के लिये तो कभी जिम की किसी मशीन के बराबर काम न करने के बारे में। कभी पड़ोसी का कुत्ता ही उसकी शिकायत का केंद्र बिन्दु हो जाता। कई लोग ऐसे थे यहाँ जो अपने कुत्तों से ऐसे चिपके रहते जैसे अपने हाथों में कोई दुनिया की दौलत लिये चल रहे हों जबकि उनके आसपास चलने वाले लोग उनसे बिदकते थे। एक नवयुवक ऐसा था जो पश्तो के लिये असली ‘सनकी’ था। हर बार उसे उस व्यक्ति की कार से शिकायत होती जो नियमानुसार घुमा कर लाने के बजाय सीधे निकालते और ऐसे में सामने से आने वाली कार के ड्राइवर को बहुत परेशानी होती। उन सारे ड्राइवरों की तहक़ीक़ात कर उनके ख़िलाफ़ पूरा एक मुक़दमा बनाने की तैयारी में दिखाई देता वह। 

उस समय बिल्डिंग से निकलने वाले हर व्यक्ति से उसका एकतरफ़ा परिचय था। उस बड़ी इमारत में बूढ़ों से लेकर बच्चों तक कई लोग ऐसे थे जो पश्तो के कम्प्यूटरनुमा मस्तिष्क में अपनी ख़ास पहचान लिये भरे हुए थे। इन कई शख़्सियतों के बावजूद उसका सबसे अधिक ध्यान समय की पाबंद उस महिला पर होता था जो अपनी चुप्पी से, अपनी चुस्ती-फ़ुर्ती से उसके ज़ेहन में बसी रहती थी। उसका नाम भी उसने उत्सुकतावश देख लिया था अपने रहवासियों के रिकॉर्ड में। सिर्फ़ वही महिला थी जिसे अपना कोई नाम देने के बजाय उसका असली नाम उसने ख़ुद ढूँढ़ा था। मीशा नाम था उसका। मीशा कभी कोई शिकायत भी लेकर नहीं आई। कभी किसी मेहमान को आते नहीं देखा उसके घर, न ही कोई पीज़ा डिलीवरी या किसी और खाने की डिलीवरी होती थी उसकी यूनिट पर। 

ऐसा लगता है शायद कहीं पढ़ाती होगी या फिर किसी अस्पताल में काम करती होगी। हो सकता है किसी स्टोर में कैशियर भी हो। पश्तो की सोच बहती रहती थी अटकलों के हुजूम के साथ, कभी कपड़ों को देखकर तो कभी बात करने का अंदाज़ देखकर। मीशा से बात तो बिल्कुल नहीं होती थी व उसके कपड़ों पर हमेशा एक जैकेट पहना रहता था। वैसे भी इन दिनों सभी इतने अच्छे कपड़े पहनते हैं कि अनुमान लगाना ही मुश्किल हो जाता है कि कौन किस तरह के काम से ताल्लुकात रखता है। एक दिन हल्के नीले कपड़ों में लंबी कमीज़ व वैसा ही पायजामा पहने एक लड़की निकली तो उसे लगा कि यह नर्स है लेकिन वह तो किसी कंपनी में सफ़ाई का काम करती थी। एक बाबू बना लड़का हीरो वाले कपड़े पहने घूमता था उसने हमेशा यही सोचा कि यह किसी एक्टिंग के काम से जुड़ा है। जब सिक्योरिटी डेस्क पर अपना पार्सल लेने आया तो पता चला कि वह तो प्लम्बर है। उसके अपने सालभर के बच्चे की बेबीसिटर को अगर बच्चे के साथ कोई न देखे तो किसी कॉलेज की प्रोफ़ेसर ही लगे वह। 

पश्तो को जानने की उत्सुकता बनी रहती थी कि मीशा क्या काम करती है। इसी गुंताड़े में एक दिन मीशा से बात करने की कोशिश की थी उसने पर–“देर हो रही है” के जुमले के साथ वह निकल गयी थी। इस बात का पक्का विश्वास था कि वह एक ही समय पर तैयार होकर निकलती है, आने-जाने का समय भी पक्का है मतलब कि काम तो करती है। बहुत सयानी बातें करती है या सदा ऐसे ही चुप रहती है, पश्तो को ज़्यादा कुछ पता नहीं था उसके बारे में। एक जिज्ञासा को शांत करो तो दूसरी उठती है मगर पश्तो की एक ही शांत नहीं हो रही थी तो बेचारी दूसरी जिज्ञासा को फटकने का मौक़ा ही नहीं मिल पाता। वह सिर्फ़ एक ही बात जानना चाहता था कि वह आख़िर कहाँ काम करती है। इमारत की सिक्योरिटी पर काम करते वह इतना पता न कर पाए तो ऐसे सिक्योरिटी गार्ड से भला कोई क्या उम्मीद कर सकता है। 

अपनी मेज़ पर बैठे-बैठे उसका ख़ुराफ़ाती दिमाग़ ऊट-पटांग सोचता रहता था। सुबह सात बजकर पचास मिनट पर वह चार्ज लेता था और पाँच बजे के पहले दे देता था। आठ से दस बजे तक ही उसका यह नाटक चल पाता बाद में काम वाले तो सब जा चुके होते और डिलीवरी के लिये ट्रक आने लगते। यह उसका व्यस्ततम समय होता। तब न कोई आने वाले को देखने की फ़ुरसत होती, न ही जाने वाले को देखने की। 

उसके बाद लगभग चार बजे से फिर से उसे ख़ाली समय मिलता तब वापस लौटने वालों की आवाज़ें उसे सुनायी देतीं। अधिकतर सब हाथ हिलाते निकल जाते। सुबह के ताज़े-मुस्कुराते चेहरे कुम्हलाए लगते, थके-थके से घर पहुँचने की जल्दी में। काम से लौट रहे वे लोग ऐसे लगते जैसे काम पर उनकी सारी ताक़त को पाइप डालकर खींच लिया गया हो। जितनी चुस्ती-फ़ुर्ती से सुबह निकले थे उतनी ही मरी-मरी चाल से दाख़िल होते, पश्तो की जानी-पहचानी दिनचर्या का एक हिस्सा बनकर। 

आज पश्तो की छुट्टी थी, वह शॉपिंग के लिये बाहर निकला था। एक मॉल से दूसरे मॉल में घूम रहा था, बीच-बीच में अपने दोस्तों के साथ इधर-उधर खा-पी कर फिर से एक स्टोर से दूसरे स्टोर में जा रहा था। भटकते-भटकते दोपहर होने आयी लेकिन कोई चीज़ पसंद नहीं आयी उसे। आख़िर एक कॉफ़ी शॉप में रुक कर कॉफ़ी की लाइन में खड़ा हो गया। अपने आगे एक परिचित चेहरा दिखा। वह मीशा थी, वहीं कॉफ़ी की उस लाइन में। आख़िर उससे बात करने का मौक़ा मिल गया–“अरे आप, यहाँ!” 

“आप भी तो यहीं हैं, आज छुट्टी है क्या?” 

“हाँ, और आपकी?” 

मीशा जवाब दे उसके पहले ही उसका नंबर आ गया और वह अपनी कॉफ़ी लेकर चली गयी। पश्तो उसे जाते देखता ही रह गया। इस बात का मलाल सताता रहा उसे कि आज उन सारे सवालों के जवाब पाने का अच्छा-सा मौक़ा गँवा दिया उसने। अब जब भी उस कॉफ़ी शॉप पर जाता इधर-उधर उसे ढूँढ़ने की कोशिश करता। एक दिन फिर से शहर के दूसरे हिस्से में कॉफ़ी शॉप में दिखी मीशा। इस तरह अलग-अलग जगहों पर उसका होना इस बात को पुख़्ता कर रहा था कि उसका काम इस तरह दो अलग दिशाओं में तो हो नहीं सकता। आज वह रोक नहीं पाया स्वयं को, अपनी कॉफ़ी लेकर उसके पीछे ही चला गया। 

“हाय!” 

“हाय पश्तो” मीशा के मुँह से अपना नाम सुनकर वह हैरान था कि मीशा उसका नाम जानती है। 

“आप इधर कहीं काम करती हैं क्या?” 

“काम!” वह हँसने लगी–“नहीं, मैं तो रिटायर्ड हूँ।” 

“अच्छा लेकिन हर सुबह तो आप इतनी जल्दी में होती हैं कि . . .।” 

वह बताने लगी–“अरे, काम कहाँ, रिटायर हुए सालों हो गए। कॉफ़ी शॉप से फिर किसी फ़ूड कोर्ट में और फिर वहाँ से किसी शॉप में चली जाती हूँ।” दोनों के हाथों में कॉफ़ी का कप था बैठकर चुस्कियाँ लेते रहे। वह बताने लगी जैसे काफ़ी समय के बाद उसे कोई सुनने वाला मिला हो। चार बच्चे हैं उसके लेकिन सब अपने-अपने घर। घर में कोई था नहीं। सालों तक काम किया तो बस मन को समझाने के लिये रोज़ वही करती थी। अब तो कहीं काम नहीं करती पर सालों से जो दिनचर्या है उसे क़ायम रखने के लिये घर से निकल जाती है। ख़ाली वक़्त में कैफ़ेटेरिया में घूमकर, मॉल में घूमकर अपना समय पूरा होते ही घर आ जाती है। 

“सच” 

“बिल्कुल सच” 

“बग़ैर किसी काम के समय की इतनी पाबंदी कैसे हो सकती है,” पश्तो की आँखें इस क़द्र चौड़ी हो रही थीं जैसे उसके अपने बनाए सारे ख़्लीया पुलाव उस पर हमला कर रहे हों एक के बाद एक, यह कहते हुए कि “एक़दम बुद्धू हो तुम, तुमने क्या सोचा और क्या निकला।” 

“मन को समझाना पड़ता है बस, और कुछ नहीं। एक बार मन को समझाना कठिन है लेकिन समझने के बाद ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं हटता, कभी भी नहीं। बस इसीलिये चल रहा है यह सब, तैयार होना, समय पर निकल जाना, ये, वो सब, सब कुछ अपने समय पर।” कॉफ़ी ख़त्म होते ही मुस्कुरा कर चली गयी वह। एक सामान्य-सी मुस्कान मगर उसकी अपनी कहानी के साथ पश्तो की सोच में सब कुछ बदलती जा रही थी। 

पश्तो मीशा के इस सच पर विश्वास करने के लिये अपने मन को समझाने की लड़ाई लड़ रहा था। पश्तो के लिये यह एक सवाल था कि मीशा स्वयं को नहीं समझा पायी कि अब वह काम नहीं कर रही है, एक भुलावे में जीने के लिये उसने अपने मन को समझाया तो सच्चाई स्वीकार करने के लिये क्यों नहीं समझा सकती। आज के बाद वह सुबह बिल्डिंग से निकल कर जा रही होगी तो पश्तो को उसे जाते देख उस पर दया आएगी। अब उसका सच यह टीस देगा कि वह ऊपर-ऊपर से जल्दी में है लेकिन अंदर ही अंदर अपना समय काटने का कोई नया उपाय सोचने के लिये ख़ुद से ही लड़ रही होगी। हो सकता है कि रिटायर होने के बाद घड़ी के काँटे उसे दुश्मन लगते हों जो आगे ही नहीं बढ़ते। पेंडुलम के घेरे को अनावश्यक रूप से हिलाते-डुलाते ऐसे लगते होंगे जैसे सबसे आलसी बच्चा अपनी हठ पर एक जगह खड़ा हो गया है मुँह फुलाकर। रात के वे पल जो नींद में कट जाते हैं कितने अच्छे होते हैं। जब नींद नहीं आती तो वे ही पल दुश्मन बन जाते हैं। वैसे ही दिन के वे पल भी अच्छे लगते हैं जो “अब क्या करूँ” सोचे बग़ैर निकल जाते हैं। रोज़़ की कहानी न हो जाए यह, इसीलिये उसने तय कर लिया होगा कि उतने समय घर में रहना ही नहीं है। 

कल की छुट्टी के बाद आज जब वह अपनी कुर्सी पर है तो अच्छा लग रहा है कि अब वह मीशा को जानता है। आज में और कल में यह फ़र्क़ था। कल तक वह अटकलों में गुम रहता था, आज हक़ीक़त से वाकिफ़ है। आज वह उसका इंतज़ार कर रहा है लेकिन आने-जाने वालों की गहमा-गहमी में मीशा तो दिखाई ही नहीं दी। आठ बजकर दस मिनट हो चुके हैं। इतने दिनों में पहली बार ऐसा हुआ है कि वह आठ बजे दिखाई नहीं दी। माहौल तो रोज़़ की तरह था, सुबह की चहल-पहल के बाद शांत होता हुआ। वह जाकर देखना चाहता था उसकी यूनिट में पर यह इमारत की आचार संहिता का उल्लंघन होता। कुछ ही देर में एक एम्बुलेंस आकर रुकी। 

आशंका सच थी, मीशा के घर जाना था उन्हें। पश्तो साथ गया उनके। 

पता लगा, ठीक आठ बजे उसने फ़ोन किया था। वे उसे ले जा रहे हैं। पैरामेडिक्स के चेहरों से ऐसा लग रहा है जैसे कि कुछ शेष नहीं है। वे चार बच्चे, वह आठ बजे का समय और वह शाम चार बजे उसका लौटना अड़ियल विचारों की तरह पश्तो के सामने गुत्थमगुत्था हो रहे थे। आज उसे घर जाने की जल्दी नहीं है। ड्यूटी ख़त्म होने के बाद भी वह रुका रहा। मीशा के इंतज़ार में, या शायद उसके किसी अपने के इंतज़ार में। वही हुआ भी, इस बार मीशा नहीं आयी उसके बच्चों की कार आकर रुकी जो उसके घर को खोलने का निवेदन कर रहे थे। 

वह जा चुकी थी। सवाल बहुत बड़ा था पश्तो के सामने, अब वह इस सोच की लड़ाई लड़ रहा था कि ये सारे लोग जो आठ बजे दौड़ते-भागते घर से निकलते हैं, इनमें से कितने लोग मीशा की तरह होंगे जो बस ख़ुद को समझाने के लिये काम करने जाने का, व्यस्त होने का दिखावा कर रहे होंगे। अपने मन की संतुष्टि के लिये अटकलों के उस खेल में वह अटकल ही लगा पाता है कि “नहीं, सिर्फ़ एक अकेली मीशा ही थी और कोई नहीं, इन सबके पास तो सचमुच बहुत काम है।” 

सकारात्मक सोच उसके बुझे चेहरे को एक आशा देती है और फिर से वह बत्तीसी, नौटंकी, अगरबत्ती, खड़ूस, सनकी जैसे कई चरित्रों में खोने लग जाता है। 

इस विशेषांक में

कविता

पुस्तक समीक्षा

पत्र

कहानी

साहित्यिक आलेख

रचना समीक्षा

लघुकथा

कविता - हाइकु

स्मृति लेख

गीत-नवगीत

किशोर साहित्य कहानी

चिन्तन

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

व्यक्ति चित्र

बात-चीत

अन्य विशेषांक

  1. सुषम बेदी - श्रद्धांजलि और उनका रचना संसार
  2. ब्रिटेन के प्रसिद्ध लेखक तेजेन्द्र शर्मा का रचना संसार
  3. दलित साहित्य
  4. फीजी का हिन्दी साहित्य
पीछे जाएं